"गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 103": अवतरणों में अंतर

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पुरूष का नैष्कम्र्य तो यथार्थ में यही है , प्रकृति के कर्मो का बंद हो जाना नहीं। इसलिये यह समझना भूल है कि किसी प्रकार का कर्म न करने से की नैष्कम्र्य अवस्था को पाया और भोगा जा सकता है। केवल कर्मो का संन्यास तो मुक्ति का पर्याप्त , यहां तक कि एकदम उचित साधन भी नहीं है। “कर्म न करने से ही मनुष्य नैष्कम्र्य को नहीं प्राप्त होता ,न केवल (कर्मो के ) संन्यास से उसे सिद्धि ही प्राप्त होती है।”<ref>3.4</ref> यहां सिद्धि से मतलब है योगसाधना के लक्ष्य की प्राप्ति । पर कम - से - कम कर्मो संन्यास एक आवश्यक ,अनिवार्य और अलंघनीय साधन तो होगा ही? यदि प्रकृति के कर्म होते रहें तो पुरूष के लिये यह कैसे संभव है वह उनमें लिप्त न हो? यह कैसे संभव है कि मैं युद्ध भी करूं और अपने अंदर यह न समझूं, यह न अनुभव करूं कि मैं, अमुक व्यक्ति युद्ध कर रहा हूं, न तो विजय - लाभ की इच्छा करूं और न हारने पर अंदर दु:ख ही हो। सांख्यों का यह सिद्धांत है कि जो पुरूष प्रकृति के कर्मो में नियुक्त होतेा है, उसकी बुद्धि अहंकार, अज्ञान और काम में फंस जाती और इसलिये वह कर्म में प्रवृत्त होती है। दूसरी ओर, बुद्धि यदि निवृत्त हो तो इच्छा और अज्ञान की समाप्ति होने कैसे कर्म का भी अंत हो जाता है। इसलिये मोक्षमार्ग की साधना में संसार और कर्म का परित्याग एक आवश्यक अंग अपरिहार्य अवस्था और अनिवार्य अंतिम साधन है।  
पुरूष का नैष्कम्र्य तो यथार्थ में यही है , प्रकृति के कर्मो का बंद हो जाना नहीं। इसलिये यह समझना भूल है कि किसी प्रकार का कर्म न करने से की नैष्कम्र्य अवस्था को पाया और भोगा जा सकता है। केवल कर्मो का संन्यास तो मुक्ति का पर्याप्त , यहां तक कि एकदम उचित साधन भी नहीं है। “कर्म न करने से ही मनुष्य नैष्कम्र्य को नहीं प्राप्त होता ,न केवल (कर्मो के ) संन्यास से उसे सिद्धि ही प्राप्त होती है।”<ref>3.4</ref> यहां सिद्धि से मतलब है योगसाधना के लक्ष्य की प्राप्ति । पर कम - से - कम कर्मो संन्यास एक आवश्यक ,अनिवार्य और अलंघनीय साधन तो होगा ही? यदि प्रकृति के कर्म होते रहें तो पुरूष के लिये यह कैसे संभव है वह उनमें लिप्त न हो? यह कैसे संभव है कि मैं युद्ध भी करूं और अपने अंदर यह न समझूं, यह न अनुभव करूं कि मैं, अमुक व्यक्ति युद्ध कर रहा हूं, न तो विजय - लाभ की इच्छा करूं और न हारने पर अंदर दु:ख ही हो। सांख्यों का यह सिद्धांत है कि जो पुरूष प्रकृति के कर्मो में नियुक्त होतेा है, उसकी बुद्धि अहंकार, अज्ञान और काम में फंस जाती और इसलिये वह कर्म में प्रवृत्त होती है। दूसरी ओर, बुद्धि यदि निवृत्त हो तो इच्छा और अज्ञान की समाप्ति होने कैसे कर्म का भी अंत हो जाता है। इसलिये मोक्षमार्ग की साधना में संसार और कर्म का परित्याग एक आवश्यक अंग अपरिहार्य अवस्था और अनिवार्य अंतिम साधन है।  


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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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०८:०७, २२ सितम्बर २०१५ के समय का अवतरण

गीता-प्रबंध
11.कर्म और यज्ञ

अर्जुन इस बात का उलाहना देता है कि मुझे ऐसी शिक्षा दी जा रही है जिसमें सिद्धातों का परस्पर - विरोध है और उसे बुद्धि बडे असमंजस में पड़ती है, ऐसा कोई स्पष्ट और सुनिश्चित मार्ग नहीं दिखाया जा रहा ,जिस पर चलकर मुनष्य की बुद्धि बिना इधर - उधर भटके सीधे परम कल्याण की ओर चली जाये। इसी आपत्ति का उत्तर देने के लिये गीता तुरंत अपने निश्चित और अलंघनीय कर्म - सिद्धांत का अधिक स्पष्ट प्रतिपादन आरंभ करती है। गुरू पहले मोक्ष के उन दो साधनों का भेद स्पष्ट करते हैं जिन्हें मनुष्य इस लोक में अलग - अलग अपना सकते हैं, एक हे ज्ञानयोग और दूसरा है कर्मयोग। साधारण मान्यता ऐसी है कि ज्ञानयोग कर्मो को मुक्ति का बाधक कहरक त्याग देता है और कर्मयोग इनको मुक्ति का साधन मानकार स्वीकार करता है। गुरू अभी इन दोनों को मिला देने पर, इन दोनों का विभाजन करने वाले विकारों में मूल मिलाने पर बहुत अधिक जोर नहीं दे रहे हैं, बल्कि यहां इतने से आरभ करते हैं कि साख्यों का कर्मसंन्यास न तो एकमात्र मोक्ष्ज्ञ मार्ग है और न कर्मयोग से उत्तम ही है। नैष्कम्र्य अर्थात् कर्मरहित शान्त शून्यता अवश्य ही वह अवस्थ है जो पुरूष को प्राप्त करनी है; क्योंकि कर्म प्रकृति के द्वारा होता है और पुरूष को सत्ता की कमण्यताओं में लिप्त होने की अवस्था से ऊपर उठकर उस शांत कर्मरहित अवस्था और समस्थित में पहुंचना होगा जहां से वह प्रकृति के कर्मो का साक्षित्व तो कर सके ,पर उनसे प्रभावित न हो ।
पुरूष का नैष्कम्र्य तो यथार्थ में यही है , प्रकृति के कर्मो का बंद हो जाना नहीं। इसलिये यह समझना भूल है कि किसी प्रकार का कर्म न करने से की नैष्कम्र्य अवस्था को पाया और भोगा जा सकता है। केवल कर्मो का संन्यास तो मुक्ति का पर्याप्त , यहां तक कि एकदम उचित साधन भी नहीं है। “कर्म न करने से ही मनुष्य नैष्कम्र्य को नहीं प्राप्त होता ,न केवल (कर्मो के ) संन्यास से उसे सिद्धि ही प्राप्त होती है।”[१] यहां सिद्धि से मतलब है योगसाधना के लक्ष्य की प्राप्ति । पर कम - से - कम कर्मो संन्यास एक आवश्यक ,अनिवार्य और अलंघनीय साधन तो होगा ही? यदि प्रकृति के कर्म होते रहें तो पुरूष के लिये यह कैसे संभव है वह उनमें लिप्त न हो? यह कैसे संभव है कि मैं युद्ध भी करूं और अपने अंदर यह न समझूं, यह न अनुभव करूं कि मैं, अमुक व्यक्ति युद्ध कर रहा हूं, न तो विजय - लाभ की इच्छा करूं और न हारने पर अंदर दु:ख ही हो। सांख्यों का यह सिद्धांत है कि जो पुरूष प्रकृति के कर्मो में नियुक्त होतेा है, उसकी बुद्धि अहंकार, अज्ञान और काम में फंस जाती और इसलिये वह कर्म में प्रवृत्त होती है। दूसरी ओर, बुद्धि यदि निवृत्त हो तो इच्छा और अज्ञान की समाप्ति होने कैसे कर्म का भी अंत हो जाता है। इसलिये मोक्षमार्ग की साधना में संसार और कर्म का परित्याग एक आवश्यक अंग अपरिहार्य अवस्था और अनिवार्य अंतिम साधन है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 3.4

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