"गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 135": अवतरणों में अंतर

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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">14.दिव्य कर्म का सिद्धांत</div>
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न तो कर्मप्रधान मनुष्य की कर्मण्यता और न संन्यासी, वैरागी या निवृत्तिामार्गी की कर्मविहीन ज्योती, न तो कर्मी मुनष्य का प्रचंड व्यक्तित्व और न तत्तवज्ञानी ऋषि का उदासीन नैर्वक्तित्व, इनमें से कोई भी संपूर्ण भागवत आदर्श नहीं है। ये संसारीजनों के तथा संन्यासी, वैरागी या निवृत्तिमार्गी के दो परस्पर - विरोधी सर्वथा भिन्न मानदंड है। इनमें से एक क्षर के कर्म में डूबे रहते हैं और दूसरे सर्वथा अक्षर की शंति में निवास करने का प्रयास करते है। परंतु समग्र भागवत आदर्श पुरूषोत्तम की प्रकृति की चीज है जो इस परस्पर - विरोधी के परे है और जिसमें सभी भागवत संभावनाओं का समन्वय होता है। कर्मी मनुष्य किसी ऐसे आदर्श से संतुष्ट नहीं होता जो इस विश्वप्रकृतिक की ,इसकी इस त्रिगुणक्रीडा़ की, मन - बुद्धि - हृदय - शरीर के इस मानव - कर्म की परिपूर्णता पर अवलंबित न हो। वह कह सकता है कि इस कर्म की चरम परिपूर्णता ही मेरी समझ में मनुष्य की परम सिद्धि है, मनुष्य की भागवत संभावना से मैं जो कुछ समझता हूं वह यही है; जिस आदर्श से मानव- प्राणी को संतोष हो सकता है वह ऐसा आदर्श होना चाहिये जो मनुष्य की बुद्धि को , उसके हृदय को, उसकी नैतिक सत्ता को संतुष्ट कर सके, वह ऐसा आदर्श होना चाहिये जो कर्मरत मानव - प्रकृतिक का है ; वह कह सकता है कि मेरे सामने तो कोई ऐसी चीज होनी चाहिये जिसे मैं अपने मन, प्राण और शरीर की क्रिया में पा सकूंगा। क्योंकि यही उसकी प्रकृति और उसका धर्म है और जो बीज उसकी प्रकृति के बाहर की हो उसमें वह अपने - आपको कैसे परिपूर्ण कर सकता है? क्योंकि प्रत्येक जीवन अपनी प्रकृति से बंधा है और उसे अपनी सिद्धि को इस दायरे के अंदर ढूंढना होगा। हमारी मानव - प्रकृति के अनुसार ही हमारी मानव - सिद्धि हो सकती है और इसलिये प्रत्येक मनुष्य को उसके लिये अपने व्यष्टिधर्म अर्थात् स्वधर्म के अनुसार अपने जीवन और कर्म में यत्न करना याहिये, जीवन और कर्म के बाहर नहीं इस बात को गीता यह उत्तर देती है कि हां, इसमें भी एक सत्य है; मनुष्य के अंदर ईश्वर की पूर्ण अभिव्यक्ति, जीवन में भगवान्, की लीला अवश्य ही आदर्श सिद्धि का एक अंग हैं परंतु यदि तुम उसे केवल बाहर ढूंढ़ो, जीवन में और कर्म के सिद्धांत में ही उसकी खोज करते रहो तो तुम उसे कभी नहीं पा सकते; - क्योंकि तब तुम केवल इतना ही नहीं करोगे कि अपनी प्रकृति के अनुसार ही कर्म करो, जो अपने - आपको सिद्धि का ही एक विधान है - बल्कि सदा उसके गुंणों के अधीन रहोगे (और यह असिद्धि का एक लक्षण है ) सदा राग - द्वेष और सुख - दुख के द्वंदों में धक्के खाते रहोगे, विशेषतः प्रकृति की उस राजसी प्रवृत्ति के वश हो जाओगे जो काम का चंचल सर्वग्रासी तत्व है और क्रोध , शोक और लालसा जिसके जाल हैं, जो कभी संतुष्ट न होने वाली आग है  
न तो कर्मप्रधान मनुष्य की कर्मण्यता और न संन्यासी, वैरागी या निवृत्तिामार्गी की कर्मविहीन ज्योती, न तो कर्मी मुनष्य का प्रचंड व्यक्तित्व और न तत्तवज्ञानी ऋषि का उदासीन नैर्वक्तित्व, इनमें से कोई भी संपूर्ण भागवत आदर्श नहीं है। ये संसारीजनों के तथा संन्यासी, वैरागी या निवृत्तिमार्गी के दो परस्पर - विरोधी सर्वथा भिन्न मानदंड है। इनमें से एक क्षर के कर्म में डूबे रहते हैं और दूसरे सर्वथा अक्षर की शंति में निवास करने का प्रयास करते है। परंतु समग्र भागवत आदर्श पुरूषोत्तम की प्रकृति की चीज है जो इस परस्पर - विरोधी के परे है और जिसमें सभी भागवत संभावनाओं का समन्वय होता है। कर्मी मनुष्य किसी ऐसे आदर्श से संतुष्ट नहीं होता जो इस विश्वप्रकृतिक की ,इसकी इस त्रिगुणक्रीडा़ की, मन - बुद्धि - हृदय - शरीर के इस मानव - कर्म की परिपूर्णता पर अवलंबित न हो। वह कह सकता है कि इस कर्म की चरम परिपूर्णता ही मेरी समझ में मनुष्य की परम सिद्धि है, मनुष्य की भागवत संभावना से मैं जो कुछ समझता हूं वह यही है; जिस आदर्श से मानव- प्राणी को संतोष हो सकता है वह ऐसा आदर्श होना चाहिये जो मनुष्य की बुद्धि को , उसके हृदय को, उसकी नैतिक सत्ता को संतुष्ट कर सके, वह ऐसा आदर्श होना चाहिये जो कर्मरत मानव - प्रकृतिक का है ; <br />
वह कह सकता है कि मेरे सामने तो कोई ऐसी चीज होनी चाहिये जिसे मैं अपने मन, प्राण और शरीर की क्रिया में पा सकूंगा। क्योंकि यही उसकी प्रकृति और उसका धर्म है और जो बीज उसकी प्रकृति के बाहर की हो उसमें वह अपने - आपको कैसे परिपूर्ण कर सकता है? क्योंकि प्रत्येक जीवन अपनी प्रकृति से बंधा है और उसे अपनी सिद्धि को इस दायरे के अंदर ढूंढना होगा। हमारी मानव - प्रकृति के अनुसार ही हमारी मानव - सिद्धि हो सकती है और इसलिये प्रत्येक मनुष्य को उसके लिये अपने व्यष्टिधर्म अर्थात् स्वधर्म के अनुसार अपने जीवन और कर्म में यत्न करना याहिये, जीवन और कर्म के बाहर नहीं इस बात को गीता यह उत्तर देती है कि हां, इसमें भी एक सत्य है; मनुष्य के अंदर ईश्वर की पूर्ण अभिव्यक्ति, जीवन में भगवान्, की लीला अवश्य ही आदर्श सिद्धि का एक अंग हैं परंतु यदि तुम उसे केवल बाहर ढूंढ़ो, जीवन में और कर्म के सिद्धांत में ही उसकी खोज करते रहो तो तुम उसे कभी नहीं पा सकते; - क्योंकि तब तुम केवल इतना ही नहीं करोगे कि अपनी प्रकृति के अनुसार ही कर्म करो, जो अपने - आपको सिद्धि का ही एक विधान है - बल्कि सदा उसके गुंणों के अधीन रहोगे (और यह असिद्धि का एक लक्षण है ) सदा राग - द्वेष और सुख - दुख के द्वंदों में धक्के खाते रहोगे, विशेषतः प्रकृति की उस राजसी प्रवृत्ति के वश हो जाओगे जो काम का चंचल सर्वग्रासी तत्व है और क्रोध , शोक और लालसा जिसके जाल हैं, जो कभी संतुष्ट न होने वाली आग है  


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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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०८:१२, २२ सितम्बर २०१५ के समय का अवतरण

गीता-प्रबंध
14.दिव्य कर्म का सिद्धांत

न तो कर्मप्रधान मनुष्य की कर्मण्यता और न संन्यासी, वैरागी या निवृत्तिामार्गी की कर्मविहीन ज्योती, न तो कर्मी मुनष्य का प्रचंड व्यक्तित्व और न तत्तवज्ञानी ऋषि का उदासीन नैर्वक्तित्व, इनमें से कोई भी संपूर्ण भागवत आदर्श नहीं है। ये संसारीजनों के तथा संन्यासी, वैरागी या निवृत्तिमार्गी के दो परस्पर - विरोधी सर्वथा भिन्न मानदंड है। इनमें से एक क्षर के कर्म में डूबे रहते हैं और दूसरे सर्वथा अक्षर की शंति में निवास करने का प्रयास करते है। परंतु समग्र भागवत आदर्श पुरूषोत्तम की प्रकृति की चीज है जो इस परस्पर - विरोधी के परे है और जिसमें सभी भागवत संभावनाओं का समन्वय होता है। कर्मी मनुष्य किसी ऐसे आदर्श से संतुष्ट नहीं होता जो इस विश्वप्रकृतिक की ,इसकी इस त्रिगुणक्रीडा़ की, मन - बुद्धि - हृदय - शरीर के इस मानव - कर्म की परिपूर्णता पर अवलंबित न हो। वह कह सकता है कि इस कर्म की चरम परिपूर्णता ही मेरी समझ में मनुष्य की परम सिद्धि है, मनुष्य की भागवत संभावना से मैं जो कुछ समझता हूं वह यही है; जिस आदर्श से मानव- प्राणी को संतोष हो सकता है वह ऐसा आदर्श होना चाहिये जो मनुष्य की बुद्धि को , उसके हृदय को, उसकी नैतिक सत्ता को संतुष्ट कर सके, वह ऐसा आदर्श होना चाहिये जो कर्मरत मानव - प्रकृतिक का है ;
वह कह सकता है कि मेरे सामने तो कोई ऐसी चीज होनी चाहिये जिसे मैं अपने मन, प्राण और शरीर की क्रिया में पा सकूंगा। क्योंकि यही उसकी प्रकृति और उसका धर्म है और जो बीज उसकी प्रकृति के बाहर की हो उसमें वह अपने - आपको कैसे परिपूर्ण कर सकता है? क्योंकि प्रत्येक जीवन अपनी प्रकृति से बंधा है और उसे अपनी सिद्धि को इस दायरे के अंदर ढूंढना होगा। हमारी मानव - प्रकृति के अनुसार ही हमारी मानव - सिद्धि हो सकती है और इसलिये प्रत्येक मनुष्य को उसके लिये अपने व्यष्टिधर्म अर्थात् स्वधर्म के अनुसार अपने जीवन और कर्म में यत्न करना याहिये, जीवन और कर्म के बाहर नहीं इस बात को गीता यह उत्तर देती है कि हां, इसमें भी एक सत्य है; मनुष्य के अंदर ईश्वर की पूर्ण अभिव्यक्ति, जीवन में भगवान्, की लीला अवश्य ही आदर्श सिद्धि का एक अंग हैं परंतु यदि तुम उसे केवल बाहर ढूंढ़ो, जीवन में और कर्म के सिद्धांत में ही उसकी खोज करते रहो तो तुम उसे कभी नहीं पा सकते; - क्योंकि तब तुम केवल इतना ही नहीं करोगे कि अपनी प्रकृति के अनुसार ही कर्म करो, जो अपने - आपको सिद्धि का ही एक विधान है - बल्कि सदा उसके गुंणों के अधीन रहोगे (और यह असिद्धि का एक लक्षण है ) सदा राग - द्वेष और सुख - दुख के द्वंदों में धक्के खाते रहोगे, विशेषतः प्रकृति की उस राजसी प्रवृत्ति के वश हो जाओगे जो काम का चंचल सर्वग्रासी तत्व है और क्रोध , शोक और लालसा जिसके जाल हैं, जो कभी संतुष्ट न होने वाली आग है


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