"गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 145": अवतरणों में अंतर

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गीता-प्रबंध
15.अवतार की संभावना और हेतु

यहां जो कुछ है सब ईश्वर , आत्मा, एकमेवाद्वितीय ब्रह्म ही तो है और ऐेसी कोई चीज नहीं जो उससे भिन्न हो, कोई चीज हो ही नहीं सकती जो उससे इतर और भिन्न हो; प्रकृति भागवत चेतना की ही एक शक्ति हाने के अतिरिक्त न कुछ है न हो सकती है; सब प्राणी एक ही भागवत सत्ता के आंतर और बाह्म, अहं और इदं , जीवरूप और देहरूप के अतिरिक्त न कुछ हैं न हो सकते हैं, ये उसी भागवत चेतना की शक्ति से उत्पन्न होते और उसी में स्थित रहते हैं, अनंत ईश्ववर के सांत भाव को धारण करने के बारे में सवाल ही नहीं उठता जब कि सारा जगत्त उस अनंत के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। इस समग्र विशाल जगत् में, जहां हम रहते हैं, हम जिधर दृष्टि उठाकर देखें , चाहे जैसे देखें, उसीको देखेंगे, और किसी को नहीं। आत्मा का साकार न हो सकना अथवा अन्नमय या मनोमय रूप के साथ संबंध जोड़ने और परिच्छिन्न स्वभाव या शरीर धारण करने से घृणा करने से घृणा करना तो दूर रहा, यहां तो जो कुछ है वही , उसकी संबध से, उसी परिच्छिन्न स्वभाव और शरीर को धारण करने से ही इस जगत् का अस्तित्तव है।
जगत् का स्वतंत्र चलने वाला विधान - मात्र होना तो दूर रहा, जिसकी शक्तियों की गति में या जिसके मन - प्राण शरीर से हेने वाले कर्मो में हस्तक्षेप करने वाला कोई आत्मा या पुरूष नहीं है , है केवल कोई आदि तटस्थ आत्मत्व की सत्ता जो इस जगत् में नहीं, इसके बाहर या ऊपर कहीं निष्क्रिय रूपसे रहती है, यह सारा जगत् और इसका प्रत्येक अणु ही कर्मरत भागवत शक्ति है और इसकी प्रत्येक गति का निर्धारण और नियमन उसी भागवत शक्ति के द्वारा होता है, इसके प्रत्येक रूप में उसीका निवास है, प्रत्येक जीव और उसका अंत: करण उसी का है; सब कुछ ईश्वर में है और उसीमें सब कुछ होता रहता है , सबमें वही है, वही कर्म करता और अपनी सत्ता दर्शाता है; प्रत्येक प्राणी छद्वेश में नारायण ही है। अजन्मा जन्म नहीं ले सकता यह बात तो दूर रही, यहां तो प्रत्येक जीव अपने व्यक्तित्व के अंदर रहते हुए भी वही अजन्मा आत्मा है, वही सनातन है जिसका न कोई आदि है न अंत । और अपने मूल अस्तित्व और अपनी विश्व - व्यापकता में सभी जीव वही है अजन्मा आत्मा है, जिसके आकार - ग्रहण और आकर - परिवर्तन का नाम ही जन्म और मृत्यु है। इस जगत् का सारा रहस्यमय व्यापार यही तो है कि अपूर्णता को पूर्ण कैसे धारण किये हुए हैं? पर यह अपूर्णता धारण किये गये मन और शरीर के रूप और कर्म में ही प्रकट होती है, यहां के बाह्म जगत् में ही रहती है; जो इसे धारण करता है , उसमें कोई अपूर्णता नहीं होती ; जैसे सूर्य, जो सबको आलोकित करता है, उसमें प्रकाश या दर्शन - शक्ति की कोई कमी नहीं हेाती, कमी होती है व्यक्त् - विशेष की दर्शनेंद्रिय की क्षमता में।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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