"गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 158": अवतरणों में अंतर
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अब प्रश्न यह उपस्थित होता है और यही असल में मुनष्य की बुद्धि के लिये एक मात्र बड़ी समस्या है - क्योंकि यहां आकर मानव - बुद्धि अपनी ही सीमा के अदंर लुढ़कने - पुढ़कने लगती है - कि अवतार मानव - मन बुद्धि और शरीर का ग्रहण कैसे करता है? कारण इनकी सृष्टि अक्समात् एक साथ इसी रूप में नहीं हुई होगी, बल्कि भौतिक या आध्यात्कि या दोनो ही प्रकार के किसी विकासक्रम से ही हुई होगी। इसमें संदेह नहीं कि अवतार का अवतरण , दिव्य जन्म की ओर मुनष्य के आरोहण के समान ही तत्वतः एक आध्यात्मिक व्यापार है; जैसा कि गीता के वाक्य से जान पड़ता है , - यह आत्मा का जन्म है। परंतु फिर भी इसके एक भौतिक जन्म तो लगा ही रहता है। तब यह प्रश्न उपस्थित होता है कि अवतार के मानव - मन और शरीर का कैसे निर्माण होता है। | अब प्रश्न यह उपस्थित होता है और यही असल में मुनष्य की बुद्धि के लिये एक मात्र बड़ी समस्या है - क्योंकि यहां आकर मानव - बुद्धि अपनी ही सीमा के अदंर लुढ़कने - पुढ़कने लगती है - कि अवतार मानव - मन बुद्धि और शरीर का ग्रहण कैसे करता है? कारण इनकी सृष्टि अक्समात् एक साथ इसी रूप में नहीं हुई होगी, बल्कि भौतिक या आध्यात्कि या दोनो ही प्रकार के किसी विकासक्रम से ही हुई होगी। इसमें संदेह नहीं कि अवतार का अवतरण , दिव्य जन्म की ओर मुनष्य के आरोहण के समान ही तत्वतः एक आध्यात्मिक व्यापार है; जैसा कि गीता के वाक्य से जान पड़ता है , - यह आत्मा का जन्म है। परंतु फिर भी इसके एक भौतिक जन्म तो लगा ही रहता है। तब यह प्रश्न उपस्थित होता है कि अवतार के मानव - मन और शरीर का कैसे निर्माण होता है। | ||
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ||
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०८:१३, २२ सितम्बर २०१५ के समय का अवतरण
यह भी जरूरी नहीं है कि अवतार असाधारण शक्तियों का प्रयोग करे ही नहीं जैसे कि ईसा के रोगियों को ठीक कर देनेवाले तथकथित चमत्कार क्योंकि असाधारण शक्तियों का प्रयोग मानव - प्रकृति की संभावना के बाहर नहीं है। परंतु इस प्रकार की कोई शक्ति न हो तो भी अवतार में कोई कमी नहीं आती , न यह कोई मौलिक बात है। यदि अवतार का जीवन असाधारण आतिशबाजी का खेल हो तो इससे भी काम न चलेगा। अवतार ऐंद्रजालिक जादूगर बनकर नहीं आते , प्रत्युत मनुष्य - जाति के भागवत नेता और भागवत मनुष्य के एक दृष्टांत बनकर आते हैं। मनुष्योंचित शोक और भौतिक दुःख भी उन्हें झेलने पड़ते है और उनसे काम लेना पडता है , ताकि वे यह दिखला सकें कि किस प्रकार इस शोक और दुःख को आत्मोक्षरा का साधन बनाया जा सकता है। ईसा ने दुःख उठाकर यही दिखाया। दूसरी बात उन्हे यह दिखलानी होती है कि मानव - प्रकृति में अवतरित भागवत आत्मा इस शोक और दुःख को स्वीकार करके उसीप्रकृति में उसे किस प्रकार जीत सकता हैं।” बुद्ध ने यही करके दिखाया था। यदि कोई बुद्धिवादी ईसा के आगे चिल्लाया होता ‘‘ तुम यदि ईश्वर के बेटे हो तो उतर आओ इस सूली पर से।” अथवा अपना पाण्डित्य दिखाकर कहता कि अवतार ईश्वर नहीं थे , क्योंकि वे मरे और वह भी बीमारी से - कुत्ते की मौत मरे- तो वह बेचारा जानता ही नहीं कि वह क्या बक रहा है , क्योकि वह तो शिष्य की वास्तविकता से ही वंचित है। भागवत आनंद के अवतार से पहले शोक और दुःख को झेलने वाले अवतार की भी आवश्यकता होती है; मनुष्य की सीमा को अपनाने की आवश्यकता हेती है, ताकि यह दिखाया जा सके कि इसे किस प्रकार पार किया जा सकता है। और , यह सीमा किस प्रकार या कितनी दूर तक पार की जायेगी केवल आंतरिक रूप से पार की जायेगी या बाह्म रूप से भी , यह बात मानवजाति के उत्कर्ष की अवस्था पर निर्भर है , यह सीमा किसी अमानव चमत्कार के द्वारा नहीं लांधी जायेगी । अब प्रश्न यह उपस्थित होता है और यही असल में मुनष्य की बुद्धि के लिये एक मात्र बड़ी समस्या है - क्योंकि यहां आकर मानव - बुद्धि अपनी ही सीमा के अदंर लुढ़कने - पुढ़कने लगती है - कि अवतार मानव - मन बुद्धि और शरीर का ग्रहण कैसे करता है? कारण इनकी सृष्टि अक्समात् एक साथ इसी रूप में नहीं हुई होगी, बल्कि भौतिक या आध्यात्कि या दोनो ही प्रकार के किसी विकासक्रम से ही हुई होगी। इसमें संदेह नहीं कि अवतार का अवतरण , दिव्य जन्म की ओर मुनष्य के आरोहण के समान ही तत्वतः एक आध्यात्मिक व्यापार है; जैसा कि गीता के वाक्य से जान पड़ता है , - यह आत्मा का जन्म है। परंतु फिर भी इसके एक भौतिक जन्म तो लगा ही रहता है। तब यह प्रश्न उपस्थित होता है कि अवतार के मानव - मन और शरीर का कैसे निर्माण होता है।
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