"गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 29": अवतरणों में अंतर

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ये सब बातें बहुत अच्छी हैं, आजकल इनकी खास आवश्यकता भी है, और ये भगवत्‍संकल्प का ही अंश है, क्योंकि यदि ये भगवत्‍संकल्प के अंग न होतीं तो मनुष्य जाति में इन्हें इतनी प्रधानता प्राप्त न होती। और, इसका कोई कारण नहीं है कि जिस मनुष्य ने भागवत स्वरूप को प्राप्त कर लिया हो, जो ब्राह्यी-स्थिति की चिन्मयी अवस्था में तथा भागवत सत्ता में रहता हो, उसके कर्म में ये सब बातें न हों, बल्कि यदि यही युगधर्म हो, ये ही काल-विशेष की सबसे उत्कृष्ट ध्येय वस्तुएं हों, और उस समय इनसे बड़ी और कोई चीज न हो, कोई महत् आमूल परिवर्तन न हो तो ये सब बातें उसके कर्म अवश्य रहेंगी। कारण, जैसा कि भगवान् अपने शिष्य से कहते हैं, वह श्रेष्ठ पुरुष है और उसे ऐसा आचरण करके दिखाना है जो दूसरों के लिये प्रमाण-स्वरूप हो, और सचमुच अर्जुन से जो बात कही जा रही है वह यही है कि वह अपने समय के सर्वोत्कृष्ट आदर्श और तत्कालीन संस्कृति के अनुसार आचरण करे, पर ज्ञान युक्त होकर करे, उस वस्तु को जानकर करे जो इन सब के पीछे है, सामान्य मनुष्यों की तरह नहीं जो केवल बाह्य धर्म और विधि का ही अनुसरण करते हैं। परंतु विचारणीय बात यह है कि आधुनिकों की बुद्धि ने अपनी व्यावहारिक प्रेरक शक्ति में से जिन दो चीजों को अर्थात् ईश्वर या सनातन ब्रह्म को और आध्यात्मिकता या परमात्म-स्थिति को निकाल बाहर कर दिया है वे ही गीता को सर्वोत्कृष्ट भावनाएं हैं। आधुनिकों की बुद्धि मानवता के दायरे के अंदर रहती है और गीता कहती है कि भगवान् में रहो; इसका जीना केवल इसके प्राण, हृदय और बुद्धि में है और गीता कहती है कि आत्मा मे जीयो; इसकी शिक्षा है क्षर पुरुष में, सर्वाणि भूताणि  में रहने की और गीता की शिक्षा है अक्षर और परम पुरुष में भी रहने की; इसका कहना है सदा बदलने वाले काल-प्रवाह के साथ बहे चलो और गीता का आदेश है सनातन में निवास करो। गीता की इन उच्चतर बातों की ओर यदि आजकल कुछ-कुछ ख्याल दौड़ने भी लगा है तो वह केवल  इसलिये कि मनुष्य और मनुष्य-समाज की इनसे कुछ सेवा करायी जाये। परंतु भगवान् और आध्यात्मिक जीवन का अस्तित्व उनकी अपनी वजह से ही है, किसी के पुछल्ले बनकर नहीं। और, व्यवहार में हमारे अंदर जो कुछ निम्न हैं उसको उच्‍च के लिये जीना सीखना होगा, ताकि हममें जो उच्च है वह भी निम्न कि लिये रूप से विद्यमान रहे ताकि वह उसको अपनी उच्च भूमिका के अधिकाधिक समीप ले आवे। इसलिये आजकल की मनोवृत्ति के विचार से गीता का अर्थ करना और गीता से जर्बदस्ती यह शिक्षा दिलाना कि निःस्वार्थ होकर कर्तव्य का पालन करना ही सर्वश्रेष्ठ और सर्वसंपूर्ण धर्म है, बिलकुल गलत रास्ता है।  
ये सब बातें बहुत अच्छी हैं, आजकल इनकी खास आवश्यकता भी है, और ये भगवत्‍संकल्प का ही अंश है, क्योंकि यदि ये भगवत्‍संकल्प के अंग न होतीं तो मनुष्य जाति में इन्हें इतनी प्रधानता प्राप्त न होती। और, इसका कोई कारण नहीं है कि जिस मनुष्य ने भागवत स्वरूप को प्राप्त कर लिया हो, जो ब्राह्यी-स्थिति की चिन्मयी अवस्था में तथा भागवत सत्ता में रहता हो, उसके कर्म में ये सब बातें न हों, बल्कि यदि यही युगधर्म हो, ये ही काल-विशेष की सबसे उत्कृष्ट ध्येय वस्तुएं हों, और उस समय इनसे बड़ी और कोई चीज न हो, कोई महत् आमूल परिवर्तन न हो तो ये सब बातें उसके कर्म अवश्य रहेंगी। कारण, जैसा कि भगवान् अपने शिष्य से कहते हैं, वह श्रेष्ठ पुरुष है और उसे ऐसा आचरण करके दिखाना है जो दूसरों के लिये प्रमाण-स्वरूप हो, और सचमुच अर्जुन से जो बात कही जा रही है वह यही है कि वह अपने समय के सर्वोत्कृष्ट आदर्श और तत्कालीन संस्कृति के अनुसार आचरण करे, पर ज्ञान युक्त होकर करे, उस वस्तु को जानकर करे जो इन सब के पीछे है, सामान्य मनुष्यों की तरह नहीं जो केवल बाह्य धर्म और विधि का ही अनुसरण करते हैं। परंतु विचारणीय बात यह है कि आधुनिकों की बुद्धि ने अपनी व्यावहारिक प्रेरक शक्ति में से जिन दो चीजों को अर्थात् ईश्वर या सनातन ब्रह्म को और आध्यात्मिकता या परमात्म-स्थिति को निकाल बाहर कर दिया है वे ही गीता को सर्वोत्कृष्ट भावनाएं हैं। आधुनिकों की बुद्धि मानवता के दायरे के अंदर रहती है और गीता कहती है कि भगवान् में रहो; इसका जीना केवल इसके प्राण, हृदय और बुद्धि में है और गीता कहती है कि आत्मा मे जीयो; इसकी शिक्षा है क्षर पुरुष में, सर्वाणि भूताणि  में रहने की और गीता की शिक्षा है अक्षर और परम पुरुष में भी रहने की; इसका कहना है सदा बदलने वाले काल-प्रवाह के साथ बहे चलो और गीता का आदेश है सनातन में निवास करो। गीता की इन उच्चतर बातों की ओर यदि आजकल कुछ-कुछ ख्याल दौड़ने भी लगा है तो वह केवल  इसलिये कि मनुष्य और मनुष्य-समाज की इनसे कुछ सेवा करायी जाये। परंतु भगवान् और आध्यात्मिक जीवन का अस्तित्व उनकी अपनी वजह से ही है, किसी के पुछल्ले बनकर नहीं। और, व्यवहार में हमारे अंदर जो कुछ निम्न हैं उसको उच्‍च के लिये जीना सीखना होगा, ताकि हममें जो उच्च है वह भी निम्न कि लिये रूप से विद्यमान रहे ताकि वह उसको अपनी उच्च भूमिका के अधिकाधिक समीप ले आवे। इसलिये आजकल की मनोवृत्ति के विचार से गीता का अर्थ करना और गीता से जर्बदस्ती यह शिक्षा दिलाना कि निःस्वार्थ होकर कर्तव्य का पालन करना ही सर्वश्रेष्ठ और सर्वसंपूर्ण धर्म है, बिलकुल गलत रास्ता है।  


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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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०८:४६, २२ सितम्बर २०१५ के समय का अवतरण

गीता-प्रबंध
4.-उपदेश का कर्म

ये सब बातें बहुत अच्छी हैं, आजकल इनकी खास आवश्यकता भी है, और ये भगवत्‍संकल्प का ही अंश है, क्योंकि यदि ये भगवत्‍संकल्प के अंग न होतीं तो मनुष्य जाति में इन्हें इतनी प्रधानता प्राप्त न होती। और, इसका कोई कारण नहीं है कि जिस मनुष्य ने भागवत स्वरूप को प्राप्त कर लिया हो, जो ब्राह्यी-स्थिति की चिन्मयी अवस्था में तथा भागवत सत्ता में रहता हो, उसके कर्म में ये सब बातें न हों, बल्कि यदि यही युगधर्म हो, ये ही काल-विशेष की सबसे उत्कृष्ट ध्येय वस्तुएं हों, और उस समय इनसे बड़ी और कोई चीज न हो, कोई महत् आमूल परिवर्तन न हो तो ये सब बातें उसके कर्म अवश्य रहेंगी। कारण, जैसा कि भगवान् अपने शिष्य से कहते हैं, वह श्रेष्ठ पुरुष है और उसे ऐसा आचरण करके दिखाना है जो दूसरों के लिये प्रमाण-स्वरूप हो, और सचमुच अर्जुन से जो बात कही जा रही है वह यही है कि वह अपने समय के सर्वोत्कृष्ट आदर्श और तत्कालीन संस्कृति के अनुसार आचरण करे, पर ज्ञान युक्त होकर करे, उस वस्तु को जानकर करे जो इन सब के पीछे है, सामान्य मनुष्यों की तरह नहीं जो केवल बाह्य धर्म और विधि का ही अनुसरण करते हैं। परंतु विचारणीय बात यह है कि आधुनिकों की बुद्धि ने अपनी व्यावहारिक प्रेरक शक्ति में से जिन दो चीजों को अर्थात् ईश्वर या सनातन ब्रह्म को और आध्यात्मिकता या परमात्म-स्थिति को निकाल बाहर कर दिया है वे ही गीता को सर्वोत्कृष्ट भावनाएं हैं। आधुनिकों की बुद्धि मानवता के दायरे के अंदर रहती है और गीता कहती है कि भगवान् में रहो; इसका जीना केवल इसके प्राण, हृदय और बुद्धि में है और गीता कहती है कि आत्मा मे जीयो; इसकी शिक्षा है क्षर पुरुष में, सर्वाणि भूताणि में रहने की और गीता की शिक्षा है अक्षर और परम पुरुष में भी रहने की; इसका कहना है सदा बदलने वाले काल-प्रवाह के साथ बहे चलो और गीता का आदेश है सनातन में निवास करो। गीता की इन उच्चतर बातों की ओर यदि आजकल कुछ-कुछ ख्याल दौड़ने भी लगा है तो वह केवल इसलिये कि मनुष्य और मनुष्य-समाज की इनसे कुछ सेवा करायी जाये। परंतु भगवान् और आध्यात्मिक जीवन का अस्तित्व उनकी अपनी वजह से ही है, किसी के पुछल्ले बनकर नहीं। और, व्यवहार में हमारे अंदर जो कुछ निम्न हैं उसको उच्‍च के लिये जीना सीखना होगा, ताकि हममें जो उच्च है वह भी निम्न कि लिये रूप से विद्यमान रहे ताकि वह उसको अपनी उच्च भूमिका के अधिकाधिक समीप ले आवे। इसलिये आजकल की मनोवृत्ति के विचार से गीता का अर्थ करना और गीता से जर्बदस्ती यह शिक्षा दिलाना कि निःस्वार्थ होकर कर्तव्य का पालन करना ही सर्वश्रेष्ठ और सर्वसंपूर्ण धर्म है, बिलकुल गलत रास्ता है।


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