"गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 39": अवतरणों में अंतर

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गीता-प्रबंध
5.कुरुक्षेत्र

उपनिषदों ने कहा, भूख जो मृत्यु है, वही इस जगत् का स्त्रष्टा स्वामी है, और प्राणमय जीवन को इन्होंने अन्न कहा है, इनका कहना है कि हम इसे अन्न के लिये इसलिये कहते हैं कि यह स्वयं खाया जाता है और साथ ही प्राणियों को निगल जाता है। भक्षण भक्षण कर भक्ष्य होता है, यही इस जड़ प्रकृति जगत् का मूल सूत्र है, और डारविन-मतवादियों ने इसी बात का फिर से आविष्कार किया जब उन्होंने कहा कि जीवन-संग्राम विकसनशील सृष्टि का विधान है। आधुनिक सायंस ने उन्हीं सत्यों को केवल नवीन शब्दों में ढालकर प्रकट किया है जो उपनिषदों के वर्णित रूपकों में या हिराक्लिटस के वचनों में बहुत अधिक जोरदार, व्यापक और ठीक-ठीक अर्थ देने वाले सूत्रों के रूप में बहुत पहले ही कहे जा चुके थे। नीत्शे का आग्रह पूर्वक कहना है कि युद्ध जीवन का एक पहलू है और आर्दश मनुष्य वही है जो योद्धा है। आरंभ में वह ऊंट-प्रकृति वाला हो सकता है और उसके बाद शिशु-प्रकृति वाला बन सकता है, पर यदि पूर्णत्व प्राप्त करना है, तो मध्य में सिंह प्रकृति वाला मनुष्य होना पड़ेगा। नीत्शे ने अपने इन मतों ने लोकाचार और व्यवहार के लिये जो सिद्धांत निकाले उनसे हमारा मतभेद चाहे जितना क्यों न हो, पर उसके लोकनिंदित मतों में कोई ऐसा तथ्य भी है जो अस्वीकार नहीं किया जा सकता, बल्कि उससे एक ऐसे सत्य का स्मरण होता है जिसे हम लोग सामान्यतः अपनी दृष्टि की ओर देखना पसंद करते हैं।
यह अच्छा है कि हम लोगों को उस सत्य की याद दिलायी जाय; क्योंकि एक तो, प्रत्येक बलवान् आत्मा पर इसको देख लेने का बड़ा बलपूर्वक परिणाम होता है; खूब मीठी-मीठी दार्शनिक, धार्मिक या नैतिक भावुकताओं के कारण हम पर जो सुस्ती छा जाती है उससे हम बच जाते हैं; इस प्रकार की भावुकता का परिणाम होता है कि लोग प्रकृति को प्रेम, सौन्दर्य और कल्याण-स्वरूप देखना पसंद करते हैं और उसके कराल रूप से भागते है; ईश्वर को शिव रूप से तो पूजते हैं, पर उसके रूद्र रूप की पूजा करने से इंकार करते हैं; दूसरे यह कि जीवन कैसा है उसको वैसा ही देखने की सच्चाई और साहस यदि हम में न हो तो इसमें जो विविध द्वंद्व और परस्प-विरोध हैं उनका समाधान करने वाला कोई अमोघ उपाय हमें कभी प्राप्त नहीं हो सकता। पहले हमें यह देखना होगा कि यह जीवन क्या है और जगत क्‍या है; तब इस बात को ढूंढ़ने चलना अधिक अच्‍छा होगा कि इस जीवन और जगत् को, जैसे ये होने चाहियें उस रूप में रूपांतरित करने का ठीक रास्ता कौन-सा है। यदि संसार के इस अप्रिय लगने वाले पहलू में कोई ऐसा रहस्य हो जो इसके अंतिम सामंजस्य को ले आने वाला हो, तो इसकी उपेक्षा या अवहेलना करने से हम उस रहस्य को नहीं पा सकेंगे और इस प्रश्न को हल करने के हमारे सारे प्रयास, प्रश्न के वास्तविक तत्वों की मनमानी उपेक्षा करने के दोष के कारण, विफल हो जायेंगे।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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