"गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 91": अवतरणों में अंतर

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गीता-प्रबंध
9. सांख्य, योग और वेंदांत

वस्तुतः शास्त्रीय वाक्यों की ऐसी स्वतंत्र और समन्वय- कारी व्याख्या के बिना तत्कालीन नानाविधि संप्रदायों में जो मतभेद था और वैदिक व्याख्याओं की जो उस समय प्रचलित पद्धतियां थीं , उन सबका एक विशाल समन्वय साधना असंभव ही होता। गीता की पिछले अध्याओं में वेदों और उपनिषदों की बड़ी प्रशंसा है। वहां कहा गया है कि वे ईश्वर - प्रणीत शास्त्र हैं, शब्दब्रह्म हैं । स्वयं भगवान् ही वेदों के जानने वाले और वेदांत के प्रणेता हैं, सब वेदों के वे ही एकमात्र ज्ञातव्य विषय हैं, इस भाषा का फलितार्थ यह होता है कि वेद शब्द का अर्थ है ज्ञान का ग्रंथ और इन ग्रंथों के नाम इनके उपयुक्त ही है।
स्वयं पुरूषोत्तम ही अक्षर और क्षर पुरूष से भी ऊपर उनकी जो परमावस्था है उसमें से इस जगत् में और वेद में प्रसारित हुए हैं। फिर भी शास्त्रों के शब्द बंधनकारक और भरमाने वाले होते हैं, जैसा कि ईसाई - घर्म के प्रचारक ने अपने शिष्यों से कहा था, शब्द मारते हैं और भाव तारते हैं। शास्त्रों की भी एक हद है और इस हद को पर कर जाने के बाद उनकी कोई उपयोगिता नहीं रहती । ज्ञान का वास्तविक मूल है हृदय में विराजमान ईश्वर ; गीता कहती है कि “मैं (ईश्वर) प्रत्येक मनुष्य के हृदय में स्थित हूं और मुझसे ही ज्ञान निःसृत होता है।“ शास्त्र उस आंतर वेद के , उस स्वयंप्रकाश सदवस्तु के केवल बाड्मय रूप हैं, ये शब्द - ब्रह्म हैं । वेद कहते हैं , मंत्र हृदय से निकला है , उस गुह्म स्थान से जो सत्य का धाम है, वेदों का यह मूल ही उनका प्रामाण्य है; फिर भी वह अनंत सत्य अपने शब्द की अपेक्षा कहीं अधिक महान् है। किसी भी सद्ग्रंथ के विषय में यह नहीं कहा जा सकता कि जो कुछ है बस यही है, इसके सिवाय और कोई सत्य ग्राह्म नहीं हो सकता, जैसा कि वेदो के विषय में वेदवादी कहते थे, यह बात बड़ी रक्षा करने वाली है , और संसार के सभी सदग्रंथों के विषय में कही जा सकती है। बइबल , कुरान , चीन के धर्मग्रंथ, वेद, उपनिषद, पुराण, तंत्र, शास्त्र और स्वयं गीता आदि सभी सद्गंग्रंथ , जो आज हैं, या कभी रहे हों , उन सबमें जो सत्य है उसे तथा जितने तत्ववेता , साधु - संत , ईश्वरदूत और अवतारों की वाणियां हैं, उन सबको एकत्र कर लें तो भी आप यह न कह सकेगें कि जो कुछ है बस यही है ,इसके अलावा कुछ है ही नहीं यह जिस सत्य को अपकी बुद्धि इनके अंदर नहीं देख पाती वह सत्य ही नहीं, क्योंकि वह इनके अंदर नहीं है। यह तो सांप्रदायिकों की संकीर्ण बुद्धि हुई या फिर सब धर्मो से अच्छी- अच्छी बात चुनने वाले धार्मिक मनुष्य की मिश्रित बुद्धि हुई, स्वतंत्र और प्रकाशमान मन का और ईश्वरानुभवप्राप्त जीव का अव्याहत सत्यान्वेषण नहीं। श्रुत या अश्रुत , वह सदा सत्य ही है। जिसको मनुष्य अपने हृदय की ज्योतिमर्य गंभीर गुहा में देखता या अखिल ज्ञान के स्वामी सनातन वेददविद् सर्वज्ञ परमेश्वर से अपने हृदेश में श्रवण करता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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