"भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 23": अवतरणों में अंतर

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
[अनिरीक्षित अवतरण][अनिरीक्षित अवतरण]
छो (Text replace - "भगवद्गीता -राधाकृष्णन भाग-" to "भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. ")
छो (भगवद्गीता -राधाकृष्णन भाग-23 का नाम बदलकर भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 23 कर दिया गया है: Text replace - "भगव...)
 
(कोई अंतर नहीं)

१०:५३, २२ सितम्बर २०१५ के समय का अवतरण

6.संसार की स्थिति और माया की धारणा

यदि ब्रह्म का मूल स्वरूप निर्गुण अर्थात् गुणहीन और अचिन्त्य (अर्थात् जिसके विषय में कुछ सोचा भी न जा सके) हो, तो संसार एक ऐसी व्यक्त वस्तु है, जिसका सम्बन्ध परब्रह्म से तर्कसंगत ढंग से नहीं जोड़ा जा सकता। ब्रह्म की अपरिवर्तनीय शाश्वतता में सब चल और विकसमान वस्तुएं आधारित हैं। उसके द्वारा ही उनका अस्तित्व है और भले ही वह किसी वस्तु का भी कारण नहीं है—कुछ नहीं करता, किसी बात का निर्धारण नहीं करता, फिर भी उसके बिना वे वस्तुएं रह नहीं सकती। यह संसार तो ब्रह्म पर निर्भर है, परन्तु ब्रह्म इस संसार पर निर्भर नहीं है। यह एकपक्षीय निर्भरता और परम वास्तविकता तथा संसार के मध्य सम्बन्ध की तर्कपूर्ण अचिन्तनीयता ‘माया’ शब्द से सामने आ जाती है। यह संसार ब्रह्म की भाँति कोई मूल अस्तित्व (सत्) नहीं है और न यह केवल अनस्तित्व (असत्) ही है। इसकी परिभाषा सत् या असत्, दोनों में से किसी के भी द्वारा नहीं की जा सकती।[१] धार्मिक अनुभूतियों द्वारा आत्मा की परम वास्तविकता के आकस्मिक आविर्भाव के कारण हम बहुत बार संसार को अशुद्ध ज्ञान या मिथ्यार्थ ग्रहण के बजाय भ्रम (माया) समझने लगते हैं।
यह एक परिसीमन है, जो अमापित और अमाप्य से पृथक् वस्तु है। परन्तु यह परिसीमन किस लिए है? इस प्रश्न का उत्तर तब तक नहीं दिया जा सकता, जब तक हम अनुभूतिमूलक स्तर पर हैं। प्रत्येक धर्म में परम वास्तविकता की कल्पना इस रूप में की गई है कि वह हमारी काल-व्यवस्था से, जिसका आदि और अन्त है, जिसमें गति और उतार-चढ़ाव हैं, असीम रूप से ऊपर है। ईसाई धर्म में परमात्मा को इस रूप में प्रदर्शित किया गया है। कि उसमें परिवर्तनशीलता नहीं है या अदल-बदल की छाया तक नहीं है। वह आदि से अन्त तक देखता हुआ शाश्वत वर्तमान में निवास करता है। यदि वही बात होती, तो दिव्य जीवन और इस विविध-रूप संसार में एक ऐसा पक्का भेद हो जाता, जिसके कारण इन दोनों में किसी भी प्रकार का सम्मिलन असम्भव हो जाता। यदि परम वास्तविकता एकाकी, निष्क्रिय और अविचल हो तो काल, गति और इतिहास के लिए कोई अवकाश ही न होगा; काल अपनी परिवर्तन और अनुक्रमिकता की प्रक्रियाओं के साथ केवल एक आभास-मात्र बन जाएगा। परन्तु परमात्मा एक सप्राण मूल तत्त्व है, एक व्यापक अग्नि। यह प्रश्न किसी ऐसी प्रबल सत्ता का नहीं है, जिसके साथ विविध-रूपता का आभास जुड़ा हुआ है या किसी ऐसे सप्राण परमात्मा का, जो इस बहुविध विश्व में कार्य कर रहा है। ब्रह्म यह भी है और वह भी। शाश्वतता का अर्थ काल या इतिहास का निषेध नहीं है। यह समय का रूपान्तरण है। काल शाश्वतता से निकलता है और उसी में पूर्णता को प्राप्त होता है। भगवद्गीता में शाश्वतता और काल में कोई विरोधिता नहीं है। कृष्ण के अंकन द्वारा शाश्वत और ऐतिहासिक के मध्य एकता द्योतित की गई है।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सदसद्भ्‍याम अनिर्वचनीयम्।

संबंधित लेख

साँचा:भगवद्गीता -राधाकृष्णन