"भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 36": अवतरणों में अंतर
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१०:५७, २२ सितम्बर २०१५ के समय का अवतरण
परन्तु जो लोग मनुष्य के रूप में अपने गौरव को अनुभव करते हैं, वे इस बेसुरेपन को तीव्रता से अनुभव करते हैं और समस्वरता और शान्ति के सिद्धान्त की खोज करते हैं।अर्जुन उस प्रकार की मानवीय आत्मा का प्रतिनिधि है, जो पूर्णता और शान्ति तक पहुँचने की खोज कर रही है। परन्तु प्रारम्भिक अनुभाग में हम देखते हैं कि उसका मन आच्छन्न है; उसके विश्वास अनिश्चित हैं और उसकी सम्पूर्ण चेतना परिभ्रन्तिग्रस्त है। जीवन की दुश्चिन्ताएं तीव्र चुभन के साथ उसे स्पर्श करती हैं। प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में कभी न कभी ऐसा समय आता है, (क्योंकि प्रकृति को किसी बात की जल्दी नहीं है) जबकि वह जो कुछ भी अपने लिए कर सकता है, वह सब विफल रहता है,; जब वह घोर अन्धकार के गर्त में डूबता जाता है; एक ऐसा समय, जबकि वह प्रकाश की झलक के लिए ब्रह्म के एक संकेत के लिए अपना सर्वस्व दे देने को तैयार हो जाए।
जब वह सन्देहों, निषेधों जीवन के विद्वेष और घनी निराशा द्वारा आक्रान्त होता है, तब वह उनसे केवल तभी मुक्ति पा सकता है, जब परमात्मा उस पर अपना हाथ रख दे। यदि उस दिव्य सत्य तक, जहां पहुँचने की सारी मानव-जाति को छूट है, केवल थोड़े-से ही लोग पहुँच पाते हैं, तो इससे यह प्रकट होता है कि केवल थोड़े-से लोग ही उसकी क़ीमत देने के लिए तैयार हैं। अपर्याप्तता, वन्ध्यता और क्षुद्रता की भावना उस पूर्णता की क्रिया के कारण है, उस रहस्य के कारण, जो सारी सृष्टि के हृदय में छिपा हुआ है। परमात्मा को खोजने की अदृश्य प्रेरणा एक इस प्रकार की व्यथा उत्पन्न करती है, जो वीरतापूर्ण आदर्शवाद और मानवीय परिपूर्णता को जगाती है। हमारे अन्दर विद्यमान परमात्मा की मूर्ति अपने-आप को आत्म -अनुभवातीतता की[१] असीम क्षमता के रूप में प्रकट करती है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ मानवीय मन में एक ऐसा तत्व रखा हुआ है, जो विशुद्ध हैः जिसके विभिन्न देशों और कालों में विभिन्न नाम रहे है; परन्तु यह विशुद्ध है और परमात्मा ने निकला है। यह गम्भीर है और आन्तरिक है। यह किसी धर्म के रूपों तक सीमित नहीं है और न धर्म के उन किन्हीं रूपों से निष्कासित ही है, जिनमें कि हृदय पूर्ण निष्ठा में स्थित रहता है। यह मूल तत्व जिस-जिनके भी हृदय में जड़ें जमा लेता है और बढ़ता जाता है, वे चाहे किसी भी राष्ट्र के क्यों न हों, सच्चे अर्थो में बन्धु बन जाते हैं।” –जॉन वूलमैन, अमेरिकन क्वेकर सन्त।