"भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 85": अवतरणों में अंतर
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११:०१, २२ सितम्बर २०१५ के समय का अवतरण
सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास कृष्ण द्वारा अर्जुन की भत्र्सना और वीर बनने के लिए प्रोत्साहन
ये विरोधी वस्तुएं सीमित और सामयिक कारणों पर निर्भर हैं, जब कि ब्रह्म का आनन्द सार्वभौमिक, स्वतः विद्यमान, और विशिष्ट कारणों एवं वस्तुओं से निरपेक्ष है। यह अविभाज्य सत्ता उस अहंकारात्मक अस्तित्व के सुख और दुःख की घट-बढ़ का समर्थन करती है, जो इस बहुविध विश्व के सम्पर्क में आता है। सुख और दुःख की ये मनोवृत्तियाँ स्वभाव की शक्ति द्वारा निर्धारित होती हैं। ऐसा कोई बन्धन नहीं है कि सफलता पर प्रसन्न और विफसला पर दुःखी हुआ ही जाए। हम इन दोनों में पूर्णतया उदासीन रह सकते हैं। यह तब तक ऐसा करती रहेगी, जब तक कि यह जीवन और शरीर के उपयोग द्वारा बंधी हुई है और अपने ज्ञान और कर्म के लिए उन पर निर्भर है। परन्तु जब मन स्वतन्त्र और उदासीन हो जाता है और एक रहस्यपूर्ण शान्ति में मग्न हो जाता है, जब इसकी चेतना प्रबुद्ध हो जाती है, तब जो भी कुछ घटित होता है, उसे यह प्रसन्नता से स्वीकार कर लेता है, क्योंकि यह जानता है कि ये सब सम्पर्क तो आने-जाने वाले हैं। ये उनके अपने अंग नहीं है, भले ही ये उसके साथ घटित होते हैं।[१]
15.यं हि न व्यथन्येते पुरुषं पुरुषर्षभ।
समदुःखसुखं धीरं सोअमृतत्वाय कल्पते।।
हे मनुष्यों में श्रेष्ठ (अर्जुन), जिस को ये दुःखी नहीं करते, जो दुःख और सुख में समान रहता है, जो ज्ञानी है, वह अपने-आप को अमर जीवन के लिए उपयुक्त बनाता है। अमर जीवन मृत्यु के बचे रहने से भिन्न वस्तु है, जो प्रत्येक प्राणधारी को दिया गया है। यह जीवन और मरण से ऊपर उठ जाना है। शोक और दुःख के अधीन रहना, भौतिक घटनाओं से विक्षुब्ध हो उठना और उनके कारण अपने निश्चित कत्र्तव्य के पथ से, ’नियमं कर्म’ से, विचलित हो जाना इस बात को प्रकट करता है कि हम अब भी अविद्या या अज्ञान के शिकार हैं।
16.नासंतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।
उभयोरिप दृष्टोअन्तस्त्वनयोस्तत्वदर्शिभिः।।
जिसका आस्तित्व नहीं है, उसका अस्तित्व हो नहीं सकता; और जिसका अस्तित्व है, उसका अस्तित्व मिट नहीं सकता। इन दो बातों के विषय में सत्य के देखने वालों ने यह ठीक-ठीक निष्कर्ष निकाल लिया है। स्दाख्यं ब्रह्म। शंकराचार्य ने वास्तविक (सत्) की परिभाषा करते हुए कहा है कि यह वह वस्तु है, जिसके सम्बन्ध में हमारी चेतना कभी विफल नहीं होती; और अवास्तविक (असत्) वह वस्तु है, जिसके सम्बन्ध में हमारी चेतन विफल रहती है।1 पदार्थों के सम्बन्ध में हमारी चेतना बदलती रहती है, परन्तु अस्तित्व के सम्बन्ध में नहीं बदलती। अवास्तवकि ने, जो कि इस संसार का एक क्षणिक प्रदर्शन-मात्र है, अपरिवर्तनशील वास्तविकता को ढका हुआ है, जो नित्य प्रकट रहने वाली है। रामानुज के मतानुसार शरीर है और और वास्तविक आत्मा है। मध्य ने इस श्लोक के प्रथम चतुर्थांश की व्याख्या में कहा है कि यह द्वैत का प्रतिपादक है; विद्यते अभावः। अव्यक्त प्रकृति का विनाश नहीं हो सकता। सत् वैसे ही अविनश्वर है। यद्विषया बुद्धिर्न व्यभिचरति तत्सत् यद्विषया व्यभिचरति तदसत् ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ तुलना कीजिए, इमिटेशनः ’’इन्द्रियों की इच्छाएं हमें जहाँ-तहाँ भटकाती फिरती हैं, परन्तु जब उनका समय बीत जाता है, तब उनसे हमें आन्तरात्मा की ग्लानि और आत्मा के विक्षोभ के सिवा क्या मिलता है?’’