"भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 86": अवतरणों में अंतर

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न हन्यते हन्यमाने शरीर ।।
न हन्यते हन्यमाने शरीर ।।


वह कभी जन्म नहीं लेता और न कभी वह मरता ही है। एक बार अस्तित्व में आ जाने के बाद उनका अस्तित्व फिर कभी समाप्त नहीं होगा। वह अजन्मा, शाश्वत्, नित्य और प्राचीन है। शरीर के मारे जाने पर भी वह नहीं मरता।  
वह कभी जन्म नहीं लेता और न कभी वह मरता ही है। एक बार अस्तित्व में आ जाने के बाद उनका अस्तित्व फिर कभी समाप्त नहीं होगा। वह अजन्मा, शाश्वत्, नित्य और प्राचीन है। शरीर के मारे जाने पर भी वह नहीं मरता। देखिए कठोपनिषद्, 2,181 तुलना कीजिए, न वधेनास्य हन्यते। छान्दोस्य उपनिषद्, 8,1,5 । यहां आत्मा का वर्णन इस रूप में किया गया है कि वह ’अस्तित्व में आई है। दिव्य रूप में यह सदा रहने वाली है और इसे अपना अस्तित्व परमात्मा से प्राप्त होता है। शंकराचार्य ने इस वाक्यांश  का इस प्रकार सन्धिविच्छेद किया है भूत्वाअभविता।
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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११:०१, २२ सितम्बर २०१५ के समय का अवतरण

अध्याय-2
सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास कृष्ण द्वारा अर्जुन की भत्र्सना और वीर बनने के लिए प्रोत्साहन

                      
17.अविनाशि तु तद्धिद्धि येन सर्वमिदं ततम् ।
थ्वनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति ।।

इस बात को समझ लो कि जिससे यह सब व्याप्त है, वह अविनश्वर है। इस अपरिवर्तनीय अस्तित्व का विनाश कोई भी नहीं कर सकता। ततम्: छाया हुआ, व्याप्त। साथ ही देखिए, 8,22,46,9,4,11,38 और महाभारत 12,240,201 शंकराचार्य ने ’व्याप्तम्’ शब्द का प्रयोग किया है। ईश्वर, सर्वोच्च भगवान्, भी अपना विनाश नहीं कर सकता।[१] यह सत्य स्वतः सिद्ध है। यह बात किसी को भी अज्ञात नहीं है।[२] धर्मग्रन्थ परमात्मा पर विजातीय गुणों के थोपे जाने या अध्यारोपण को हटाते में सहायता देते हैं, बिलकुल अज्ञात बस्तु को प्रकट करने में नहीं। आत्मतत्व से रामानुज का अभिप्राय संख्या-संम्बन्धी अनेकता के बीच गुणात्मक एकता और समानता से है।

18. अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः ।
अनाशिनोअप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत ।।

यह कहा गया है कि शाश्वत आत्मा के, जो अविनाशी और अज्ञेय है, ये शरीर तो नष्ट होने वाले हैं। इसलिए हे अर्जुन , तू युद्ध कर। यहां शरीर शब्द व्यक्ति के सच्चे आत्म की ओर संकेत करता है, जैसा कि शारीरिक मीमांसा[३] वाक्यांश में किया गया है, जो व्यक्ति के आत्म की प्रकृति के सम्बन्ध में एक अनुसन्धान है। यह अज्ञेय है, क्यों कि इसे ज्ञान के सामान्य साधनों से जाना नहीं जा सकता।

19.य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम् ।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते ।।

जो यह सोचता है कि वह मारता है, और जो यह सोचता है कि वह माना जाना है, वे दोनों ही सत्य को नहीं जानते। यह आत्मा न तो मारता है और न मारा जाता है। यहां लेखक आत्म और अनात्म में, सांख्य के पुरूष और प्रकृति में भेद कर रहा है।[४]

20.न जायते प्रियते वा कदाचि
न्यायं भूत्वा भविता वा न भूयः ।
अजो नित्यः शाश्वतोअयं पुराणो
न हन्यते हन्यमाने शरीर ।।

वह कभी जन्म नहीं लेता और न कभी वह मरता ही है। एक बार अस्तित्व में आ जाने के बाद उनका अस्तित्व फिर कभी समाप्त नहीं होगा। वह अजन्मा, शाश्वत्, नित्य और प्राचीन है। शरीर के मारे जाने पर भी वह नहीं मरता। देखिए कठोपनिषद्, 2,181 तुलना कीजिए, न वधेनास्य हन्यते। छान्दोस्य उपनिषद्, 8,1,5 । यहां आत्मा का वर्णन इस रूप में किया गया है कि वह ’अस्तित्व में आई है। दिव्य रूप में यह सदा रहने वाली है और इसे अपना अस्तित्व परमात्मा से प्राप्त होता है। शंकराचार्य ने इस वाक्यांश का इस प्रकार सन्धिविच्छेद किया है भूत्वाअभविता।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. न कश्चिदात्मांन विनाशयितुं शक्तोतीश्वरोपि। कराचार्य।
  2. न ह्यात्मा नाम कस्यचिदप्रसिद्धो भवति। गीता पर शंकराचार्य की टीका 2,18
  3. बृहदारण्यक उपनिषद् से तुलना कीजिए: यत् साक्षादपरोक्षात् ब्रह्म य आत्मा सर्वान्तरः। 3,4,1
  4. इमर्सन के ब्रह्म से तुलना कीजिएः ’’यदि लाल हत्यारा समझता है कि वह मारता है, या मारा जाने वाला यह समझता है कि वह मारा जाता है, तो वे सूक्ष्म बात को भली-भाँति नहीं जानते, मैं बना रहता हूँ, चला जाता हूँ और फिर वापस लौट आता हूँ ।’’

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