"महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 162 श्लोक 1-13": अवतरणों में अंतर

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==द्विषष्ट्यधिकशततम (162) अध्याय: अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)==
==द्विषष्ट्यधिकशततम (162) अध्याय: अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)==


<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: अनुशासनपर्व: द्विचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद </div>
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: अनुशासनपर्व: द्विषष्ट्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद </div>


;धर्म के विषय में आगम-प्रमाण की श्रेष्ठता, धर्माधर्म के फल, साधु-असाधु के लक्षण तथा शिष्टाचार का निरूपण
;धर्म के विषय में आगम-प्रमाण की श्रेष्ठता, धर्माधर्म के फल, साधु-असाधु के लक्षण तथा शिष्टाचार का निरूपण
वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय। देवकीनन्दन भगवान श्रीकृष्ण के इस प्रकार उपदेश देने पर युधिष्ठिर ने शान्तनुनन्दन भीष्म से पुन: प्रश्न किया। ‘सम्पूर्ण धर्मज्ञों में श्रेष्ठ महाबुद्धिमान पितामाह! धार्मिक विषय का निर्णय करने के लिये प्रत्यक्ष प्रमाण का आश्रय लेना चाहिये या आगमका। इन दोनों में से कौन-सा प्रमाण सिद्धान्त-निर्णय में मुख्य कारण होता है? भीष्मजीने कहा-बुद्धिमान नरेश! तुमने ठीक प्रश्न किया है। इसका उत्तर देता हूँ सुनो। मेरा तो ऐसा विचार है कि इस विषय में कहीं कोई संशय है ही नहीं। धार्मिक विषयों में संदेह उपस्थितकरना सुगम है, किंतु उसका निर्णय करना बहुत कठिन होता है। प्रत्यक्ष और आगम दोनों का ही काई अन्त नहीं है। दोनों में ही संदेह खड़े होते है। अपने को बुद्धिमान माननेवाले हेतुवादी तार्किक प्रत्यक्ष कारणकी ओर ही दृष्टि रखकर परोक्षवस्‍तुका अभाव मानते हैं। सत्य होने पर भी उनके अस्तित्व में संदेह करते हैं। किंतु वे बालक हैं। अहंकारवश अपने को पण्डित मानते हैं। अत: वे जो पूर्वोक्त निश्चय करते हैं, वह असंगत है। (आकाश में नीलिमा प्रत्यक्ष दिखायी देने पर ही वह मिथ्‍याही है, अत: केवल प्रत्यक्ष के ल से सत्य का निर्णय नहीं किया जा सकता। धर्म, ईश्वर और परलोक आदि में विषय में शास्त्र-प्रमाण ही श्रेष्ठ है क्योंकि अन्य प्रमाणों की वहाँ तक पहुँच नहीं हो सकती है) यदि कहो कि एकमात्र ब्रह्म जगत का कारण कैसे हो सकता है तो इसका उत्तर यह है कि मनुष्य आलस्य छोड़कर दीर्घकालतक योगका अभ्यास करें और तत्तका साक्षात्कार करने के लिये निरन्तर प्रयत्नशील बना रहे है। अपने जीवन का अनेक उसाय से निर्वाह करे। इस तरह सदा यत्नशील रहनेवाला पुरूष ही इस तत्व का दर्शन कर सकता है, दूसरा कोई नहीं । जब सारे तर्क समाप्त हो जाते हैं तभी उत्तम ज्ञान की प्राप्ति होती है। वह ज्ञान ही सम्पूर्ण जगत के लिये उत्तम ज्योति है। राजन! कोरे तर्क से जो ज्ञान होता है, वह वास्तव में ज्ञान नहीं है, अत: उसका प्रामाणिक नहीं मानना चाहिये। जिसका वेदक के द्वारा प्रतिपादन नहीं किया हो, उस ज्ञान का परित्याग कर देना ही उचित है। युधिष्ठिरने पूछा- पितामह! प्रत्यक्ष प्रमाण, जो लोक में प्रसिद्ध है, अनुमान, आगम और भाँति-भाँति के शिष्टाचार ये बहुत-से प्रमाण उपलब्ध होते है। इनमें कौन-सा प्रबल है, यह बताने की कृपा कीजिये। भीष्मजीने कहा- बेटा! जब बर्वानपुरूष दुराचारी होकर धर्मको हानि पहुँचाने लगते है, तब साधारण मनुष्यों द्वारा यत्नपूर्वक की हुई रक्षा की व्‍यवस्‍थाभी कुछ समय में भंग जा जाती है। फिर तो घास-फूस से ढके हुए कुँए की भाँति अधर्म ही धर्मका चोला पहनकर सामने आता है। युधिष्ठिर! उस अवस्था में वे दुराचारी मनुष्य शिष्टाचार की मर्यादा तोड़ डालते हैं। तुम इस विषय को ध्यान देकर सुनो ।जो आधारहीन है, वेद-शास्त्रों कात्‍याग करने वाले हैं, वे धर्मद्रोही मन्दौबुद्धि मानव सज्जनों द्वारा सुस्‍थापितधर्म और आचार की मर्यादा भंग कर देते हैं। इस प्रकार प्रत्यक्ष, अनुमान और शिष्टाचार- इन तीनों में संदेह बॄाया गया है (अत: वे अविश्वसनीय है) ।
वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय। देवकीनन्दन भगवान श्रीकृष्ण के इस प्रकार उपदेश देने पर युधिष्ठिर ने शान्तनुनन्दन भीष्म से पुन: प्रश्न किया। ‘सम्पूर्ण धर्मज्ञों में श्रेष्ठ महाबुद्धिमान पितामाह! धार्मिक विषय का निर्णय करने के लिये प्रत्यक्ष प्रमाण का आश्रय लेना चाहिये या आगमका। इन दोनों में से कौन-सा प्रमाण सिद्धान्त-निर्णय में मुख्य कारण होता है? भीष्मजीने कहा-बुद्धिमान नरेश! तुमने ठीक प्रश्न किया है। इसका उत्तर देता हूँ सुनो। मेरा तो ऐसा विचार है कि इस विषय में कहीं कोई संशय है ही नहीं। धार्मिक विषयों में संदेह उपस्थितकरना सुगम है, किंतु उसका निर्णय करना बहुत कठिन होता है। प्रत्यक्ष और आगम दोनों का ही काई अन्त नहीं है। दोनों में ही संदेह खड़े होते है। अपने को बुद्धिमान माननेवाले हेतुवादी तार्किक प्रत्यक्ष कारणकी ओर ही दृष्टि रखकर परोक्षवस्‍तुका अभाव मानते हैं। सत्य होने पर भी उनके अस्तित्व में संदेह करते हैं। किंतु वे बालक हैं। अहंकारवश अपने को पण्डित मानते हैं। अत: वे जो पूर्वोक्त निश्चय करते हैं, वह असंगत है। (आकाश में नीलिमा प्रत्यक्ष दिखायी देने पर ही वह मिथ्‍याही है, अत: केवल प्रत्यक्ष के ल से सत्य का निर्णय नहीं किया जा सकता। धर्म, ईश्वर और परलोक आदि में विषय में शास्त्र-प्रमाण ही श्रेष्ठ है क्योंकि अन्य प्रमाणों की वहाँ तक पहुँच नहीं हो सकती है) यदि कहो कि एकमात्र ब्रह्म जगत का कारण कैसे हो सकता है तो इसका उत्तर यह है कि मनुष्य आलस्य छोड़कर दीर्घकालतक योगका अभ्यास करें और तत्तका साक्षात्कार करने के लिये निरन्तर प्रयत्नशील बना रहे है। अपने जीवन का अनेक उसाय से निर्वाह करे। इस तरह सदा यत्नशील रहनेवाला पुरूष ही इस तत्व का दर्शन कर सकता है, दूसरा कोई नहीं । जब सारे तर्क समाप्त हो जाते हैं तभी उत्तम ज्ञान की प्राप्ति होती है। वह ज्ञान ही सम्पूर्ण जगत के लिये उत्तम ज्योति है। राजन! कोरे तर्क से जो ज्ञान होता है, वह वास्तव में ज्ञान नहीं है, अत: उसका प्रामाणिक नहीं मानना चाहिये। जिसका वेदक के द्वारा प्रतिपादन नहीं किया हो, उस ज्ञान का परित्याग कर देना ही उचित है। युधिष्ठिरने पूछा- पितामह! प्रत्यक्ष प्रमाण, जो लोक में प्रसिद्ध है, अनुमान, आगम और भाँति-भाँति के शिष्टाचार ये बहुत-से प्रमाण उपलब्ध होते है। इनमें कौन-सा प्रबल है, यह बताने की कृपा कीजिये। भीष्मजीने कहा- बेटा! जब बर्वानपुरूष दुराचारी होकर धर्मको हानि पहुँचाने लगते है, तब साधारण मनुष्यों द्वारा यत्नपूर्वक की हुई रक्षा की व्‍यवस्‍थाभी कुछ समय में भंग जा जाती है। फिर तो घास-फूस से ढके हुए कुँए की भाँति अधर्म ही धर्मका चोला पहनकर सामने आता है। युधिष्ठिर! उस अवस्था में वे दुराचारी मनुष्य शिष्टाचार की मर्यादा तोड़ डालते हैं। तुम इस विषय को ध्यान देकर सुनो ।जो आधारहीन है, वेद-शास्त्रों कात्‍याग करने वाले हैं, वे धर्मद्रोही मन्दौबुद्धि मानव सज्जनों द्वारा सुस्‍थापितधर्म और आचार की मर्यादा भंग कर देते हैं। इस प्रकार प्रत्यक्ष, अनुमान और शिष्टाचार- इन तीनों में संदेह बॄाया गया है (अत: वे अविश्वसनीय है) ।


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०५:४२, २४ सितम्बर २०१५ के समय का अवतरण

द्विषष्ट्यधिकशततम (162) अध्याय: अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासनपर्व: द्विषष्ट्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद
धर्म के विषय में आगम-प्रमाण की श्रेष्ठता, धर्माधर्म के फल, साधु-असाधु के लक्षण तथा शिष्टाचार का निरूपण

वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय। देवकीनन्दन भगवान श्रीकृष्ण के इस प्रकार उपदेश देने पर युधिष्ठिर ने शान्तनुनन्दन भीष्म से पुन: प्रश्न किया। ‘सम्पूर्ण धर्मज्ञों में श्रेष्ठ महाबुद्धिमान पितामाह! धार्मिक विषय का निर्णय करने के लिये प्रत्यक्ष प्रमाण का आश्रय लेना चाहिये या आगमका। इन दोनों में से कौन-सा प्रमाण सिद्धान्त-निर्णय में मुख्य कारण होता है? भीष्मजीने कहा-बुद्धिमान नरेश! तुमने ठीक प्रश्न किया है। इसका उत्तर देता हूँ सुनो। मेरा तो ऐसा विचार है कि इस विषय में कहीं कोई संशय है ही नहीं। धार्मिक विषयों में संदेह उपस्थितकरना सुगम है, किंतु उसका निर्णय करना बहुत कठिन होता है। प्रत्यक्ष और आगम दोनों का ही काई अन्त नहीं है। दोनों में ही संदेह खड़े होते है। अपने को बुद्धिमान माननेवाले हेतुवादी तार्किक प्रत्यक्ष कारणकी ओर ही दृष्टि रखकर परोक्षवस्‍तुका अभाव मानते हैं। सत्य होने पर भी उनके अस्तित्व में संदेह करते हैं। किंतु वे बालक हैं। अहंकारवश अपने को पण्डित मानते हैं। अत: वे जो पूर्वोक्त निश्चय करते हैं, वह असंगत है। (आकाश में नीलिमा प्रत्यक्ष दिखायी देने पर ही वह मिथ्‍याही है, अत: केवल प्रत्यक्ष के ल से सत्य का निर्णय नहीं किया जा सकता। धर्म, ईश्वर और परलोक आदि में विषय में शास्त्र-प्रमाण ही श्रेष्ठ है क्योंकि अन्य प्रमाणों की वहाँ तक पहुँच नहीं हो सकती है) यदि कहो कि एकमात्र ब्रह्म जगत का कारण कैसे हो सकता है तो इसका उत्तर यह है कि मनुष्य आलस्य छोड़कर दीर्घकालतक योगका अभ्यास करें और तत्तका साक्षात्कार करने के लिये निरन्तर प्रयत्नशील बना रहे है। अपने जीवन का अनेक उसाय से निर्वाह करे। इस तरह सदा यत्नशील रहनेवाला पुरूष ही इस तत्व का दर्शन कर सकता है, दूसरा कोई नहीं । जब सारे तर्क समाप्त हो जाते हैं तभी उत्तम ज्ञान की प्राप्ति होती है। वह ज्ञान ही सम्पूर्ण जगत के लिये उत्तम ज्योति है। राजन! कोरे तर्क से जो ज्ञान होता है, वह वास्तव में ज्ञान नहीं है, अत: उसका प्रामाणिक नहीं मानना चाहिये। जिसका वेदक के द्वारा प्रतिपादन नहीं किया हो, उस ज्ञान का परित्याग कर देना ही उचित है। युधिष्ठिरने पूछा- पितामह! प्रत्यक्ष प्रमाण, जो लोक में प्रसिद्ध है, अनुमान, आगम और भाँति-भाँति के शिष्टाचार ये बहुत-से प्रमाण उपलब्ध होते है। इनमें कौन-सा प्रबल है, यह बताने की कृपा कीजिये। भीष्मजीने कहा- बेटा! जब बर्वानपुरूष दुराचारी होकर धर्मको हानि पहुँचाने लगते है, तब साधारण मनुष्यों द्वारा यत्नपूर्वक की हुई रक्षा की व्‍यवस्‍थाभी कुछ समय में भंग जा जाती है। फिर तो घास-फूस से ढके हुए कुँए की भाँति अधर्म ही धर्मका चोला पहनकर सामने आता है। युधिष्ठिर! उस अवस्था में वे दुराचारी मनुष्य शिष्टाचार की मर्यादा तोड़ डालते हैं। तुम इस विषय को ध्यान देकर सुनो ।जो आधारहीन है, वेद-शास्त्रों कात्‍याग करने वाले हैं, वे धर्मद्रोही मन्दौबुद्धि मानव सज्जनों द्वारा सुस्‍थापितधर्म और आचार की मर्यादा भंग कर देते हैं। इस प्रकार प्रत्यक्ष, अनुमान और शिष्टाचार- इन तीनों में संदेह बॄाया गया है (अत: वे अविश्वसनीय है) ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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