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०५:३२, २६ मई २०१८ के समय का अवतरण
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अनुर्वरता
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 1 |
पृष्ठ संख्या | 126 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | सुधाकर पाण्डेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1964 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | डॉ. मुकुंदस्वरूप वर्मा |
अनुर्वरता संतानोत्पत्ति की असमर्थता की अनुर्वरता कहा जाता है। दूसरे शब्दों में, उस अवस्था को अनुर्वरता कहते है जिसमें पुरुष के शुक्राणु और स्त्री के डिंब का संयोग नहीं हो पाता, जिससे उत्पत्तिक्रम प्रारंभ नहीं होता। यह दशा स्त्री और पुरुष दोनों के या किसी एक के दोष से उत्पन्न हो सकती है। संतानोत्पत्ति के लिए आवश्यक है कि स्वस्थ शुक्राणु अंडग्रंथि में उत्पन्न होकर मूत्रमार्ग में होते हुए मैथुन क्रिया द्वारा योनि में गर्भाशय के मुख के पास पहुँच जाए और वहाँ से स्वस्थ गर्भाशय की ग्रीवा में होता हुआ डिंबवाहनी में पहुँचकर स्वस्थ डिंब का, जो डिंबग्रंथि से निकलकर वाहनी के झालरदार मुख में आ गया है, संसेचन करे। इसी के पश्चात् उत्पत्तिक्रम प्रारंभ होता है। यदि स्वस्थ शुक्राणु और डिंब की उत्पत्ति नहीं होती, या उनके निर्दिष्ट स्थान तक पहुँचने में कोई बाधा उपस्थित होती है, डिंब और शुक्राणु का संयोग नहीं हो पाएगा और उसका परिणाम अनुर्वता होगा। मानसिक दशा भी कभी-कभी इसका कारण हो जाती है। यह अनुमान किया गया है प्राय: दस प्रतिशत विवाह अनुर्वर होते हैं।
कारण-पुरुष में अनुर्वरता के दो प्रकार के कारण हो सकते हैं:
- अंडग्रंथि में बनकर शुक्राणु के निकलने पर योनि तक पहुँचने के मार्ग में काई रुकावट।
- अंडग्रंथियों की शुक्राणुओं को उत्पन्न करन में असमर्थता।
रुकावट के मुख्य स्थान मूत्रमार्ग जहाँ गोनोमेह (सूजाक, गनोरिया) रोग के कारण ऐसा संकोच (स्टेनोसिस) उत्पन्न हो जाता है कि वीर्य उसके द्वारा प्रवाहनलिका की यात्रा पूरी नहीं कर पाता। स्खलननलिका, शुक्रवाहिनी-नलिका, अथवा उपांड या शुक्राशय की नलिकाओं में भी ऐसा ही उपांड आक्रांत हुए रहते हैं उनमें से ३० प्रतिशत अनुर्वर पाए जाते हैं। अन्य संक्रमणों से भी यही परिणाम हो सकता है, किंतु ऐसा अधिकतर गोनोमेह से ही होता है। अंडग्रंथियों में शुक्राणु उत्पत्ति पर एक्स-रे का बहुत हानिकारक प्रभाव पड़ता है, यद्यपि ग्रंथियों में अन्य स्राव पूर्ववत् ही बने रहते हैं। इसी प्रकार अन्य संक्रामक रोगों में भी, जैसे न्यूमोनिया, टाइफाइड आदि में, शुक्राणु उत्पत्ति रुक जाती है। अंडग्रंथि में शोध या पूयोत्पादन होने से (जिसका कारण प्राय: गोनोमेह होता है) शुक्राणु उत्पत्ति सदा के लिए नष्ट हो जा सकती है। अन्य अंत:स्रावी ग्रंथियों से भी, विशेषकर पिट्यूटरी के अग्रभाग से, इस क्रिया का बहुत संबंध है। आहार पर भी कुछ सीमा तक शुक्राणु उत्पत्ति निर्भर रहती है। विटामिन ई इसके लिए आवश्यक माना जाता है।
पुरुषों की भाँति स्त्रियों में भी एक्स-रे और संक्रमण से डिंबग्रंथि की डिंबोत्पादन क्रिया कम या नष्ट हो सकती है। गोनोमेह के परिणाम स्त्रियों में पुरुषों की अपेक्षा भयंकर होते हैं। डिंब के मार्ग में वाहनी के मुख पर, या उसके भीतर शोथ के परिणामस्वरूप संकोच बनकर अवरोध उत्पन्न कर देते हैं। गर्भाशय की अंतर्कला में शोथ होकर और उसके पश्चात् सौत्रिक ऊतक बनकर कला को गर्भधारण के अयोग्य बना देते हैं। गर्भाशय की ग्रीवा तथा योनि की कला में शोथ होने से शुक्राणु का गर्भाशय में प्रवेश करना कठिन होता है। कुछ रोगियों में डिंबग्रंथि तथा गर्भाशय अविकसित दशा में रह जाते हैं। जब डिंबग्रंथि डिंब उत्पन्न नहीं कर पाती और गर्भाशय गर्भ धारण नहीं करता। दशा के कारणों का अन्वेषण करके उन्हीं के अनुसार चिकित्सा की जाती है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ