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अष्टमंगल
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 1 |
पृष्ठ संख्या | 296 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | सुधाकर पाण्डेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1964 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | डा० वासुदेवशरण अग्रवाल |
अष्टमंगल अष्टमांगालिक चिहों के समुदाय को अष्टमंगल कहा गया है। सांची के स्तूप के तोरणास्तंभ पर उत्कीर्ण शिल्प में मांगलिक चिहों से बनी हुई दो मालाएँ अंकित हैं। एक में 11 चिह्न हैं-सूर्य, चक्र, पद्यसर, अंकुश, वैजयंती, कमल, दर्पण, परशु, श्रीवत्स, मीनमिथुन और श्रीवृक्ष। दूसरी माला में कमल, अंकुश, कल्पवृक्ष, दर्पण, श्रीवत्स, वैजयंती, मीनयुगल, परशु पुष्पदाम, तालवृक्ष तथा श्रीवृक्ष हैं। इनसे ज्ञात होता है कि लोक में अनेक प्रकार के मांगालिक चिहों की मान्यता थी। विक्रम संवत् के आरंभ के लगभग मथुरा की जैन कला में अष्टमांगलिक चिहों की संख्या और स्वरूप निश्चित हो गए। कुषाणकालीन आयागपटों पर अंकित ये चिहृ इस प्रकार है: मीनमिथुन, देवविमानगृह, श्रीवत्स, वर्धमान या शराव, संपुट, त्रिरत्न, पुप्पदाम, इंद्रयष्टि या वैजयंती ओर पूर्णघट। इन आठ मांगलिक चिह्नों की आकृति के ठीकरों से बना आभूषण अष्टमांगलिक माला कहलाता था। कुषाणकालीन जैन ग्रंथ अंगाविज्जा, गुप्तकालीन बौद्धग्रंथ महाव्युत्पति ओर बाणकृत हर्षचरित में अष्टमांगलिक माला आभूषण का उल्लेख हुआ है। बाद के साहित्य और लोकजीवन में भी इन चिहों की मान्यता और पूजा सुरक्षित रही, किंतु इनके नामों में परिवर्तन भी देखा जाता है। शब्दकल्पद्रु में उद्धृत एक प्रमाण के अनुसार सिहं, वृषभ, गज, कलश, व्यजन, वैजयंती दीपक और दुंदुभी, ये अष्टमंगल थे।
टीका टिप्पणी और संदर्भ