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आर्मीनी भाषा
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 1 |
पृष्ठ संख्या | 437 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | सुधाकर पाण्डेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1964 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | डॉ. बाबू राम सक्सेना |
आर्मीनी भाषा भारत-यूरोपीय-परिवार की यह भाषा मेसोपोटैमिया तथा काकेशस पर्वत की मध्यवर्ती घाटियों और काले सागर के दक्षिणी पूर्वी प्रदेश में बोली जाती है। यह प्रदेश आर्मीनी सोवियट जार्जिया तथा सोवियट अज़रबैजान (उत्तर पश्चिमी ईरान) में पड़ता है। इसके बोलनेवालों की संख्या लगभग 34 लाख है। आर्मीनी भाषा को पूर्वी और पश्चिमी भागों में विभाजित करते हैं। गठन की दृष्टि से इसकी स्थिति ग्रीक और हिंद-ईरानी के बीच की है। पुराने समय में आर्मीनिया का ईरान से घनिष्ठ संबंध रहा है और ईरानी के प्राय: दो हजार शब्द आर्मीनी भाषा में मिलते हैं। इन्हीं कारणों से बहुत दिनों तक आर्मीनी को ईरानी की केवल एक शाखा मात्र समझा जाता था। पर अब इसकी स्वतंत्र सत्ता मान्य हो गई है।
आर्मीनी भाषा में पाँचवीं शताब्दी ई. के पूर्व का कोई ग्रंथ नहीं मिलता। इस भाषा का व्यंजनसमूह मूल रूप से भारतीय और काकेशी समूह की जार्जी भाषा से मिलता जुलता है। प् त् क् व्यंजनों का ब् द् ग् से परस्पर व्यत्यय हो गया है। उदाहरणार्थ, संस्कृत वश के लिए आर्मीनी में तस्न शब्द है। संस्कृत पितृ के लिए आर्मीनी में ह्यर है। आदिम भारोपीय भाषा से यह भाषा काफी दूर जा पड़ी है। संस्कृत द्वि और त्रि के लिए आर्मीनी में एर्कु और एरेख शब्द हैं। इसी से दूरी का अनुमान हो सकता है। व्याकरणात्मक लिंग प्राचीन आर्मीनी में भी नहीं मिलता। संस्कृत गौ के लिए आर्मीनी में केव् है। ऐसे शब्दों से ही आदि आदिम आर्यभाषा से इसकी व्युत्पत्ति सिद्ध होती है। आर्मीनी अधिकतर बोलचाल की भाषा रही है। ईरानी शब्दों के अतिरिक्त इसमें ग्रीक, अरबों और काकेशी के भी शब्द हैं।
आर्मीनी का जो भी प्राचीन साहित्य था उसे ईसाई पादरियों ने चौथी और पाँचवीं ई. शताब्दियों में नष्ट कर दिया। कुछ ही समय पूर्व अशोक का एक अभिलेख आर्मीनी भाषा में प्राप्त हुआ है जो संभवत: आर्मीनी का सबसे पुराना नमूना है। आर्मीनी की एक लिपि पांचवी ईसवी शताब्दी में गढ़ी गई जिसमें इंजील का अनुवाद और अन्य ईसाई धर्मप्रचारक ग्रंथ लिखे गए। पांचवीं शताब्दी में ही ग्रीक के भी कुछ ग्रथों का अनुवाद हुआ। इसी शताब्दी में लिखा हुआ फाउसतुस नामक एक ग्रंथ चौथी शताब्दी की आर्मीनी परिस्थिति का सुंदर चित्रण करता है। इसमें आर्मीनिया के छोटे-छोटे नरेशों के दरबारों, राजनीतिक संगठन, जातियों के परस्पर युद्ध और ईसाई धर्म के स्थापित होने का इतिहास अंकित है। ऐलिसएउस वर्दपैत ने वर्दन का एक इतिहास लिखा जिसमें आर्मीनयों ने सासानियों से जो धर्मयुद्ध किया था उसका वर्णन है। खौरैन के मोज़ेज़ ने आर्मीनिया का एक इतिहास लिखा जिसमें 450 ईसवी तक का वर्णन है। यह ग्रंथ संभवत: सातवीं शताब्दी में लिखा गया। आठवीं शताब्दी से बराबर आर्मीनिया के ग्रंथ मिलते हैं। इनमें से अधिकांश इतिहास और धम्र से संबंध रखते हैं।
19वीं शताब्दी के मध्यभाग में आर्मीनिया के रूसी और तुर्की जिलों में एक नई साहित्यिक प्रेरणा निकली। इस साहित्य की भाषा प्राचीन भाषा से व्याकरण में यथेष्ट भिन्न है, यद्यपि शब्दावली प्राय: पुरानी है। इस नवीन प्रेरणा के द्वारा आर्मीनी साहित्य में काव्य, उपन्यास, नाटक, प्रहसन आदि यथेष्ट मात्रा में पाए जाते हैं। आर्मीनी में पत्र-पत्रिकाएँ भी पर्याप्त संख्या में निकली हैं। सोवयिट संघ में प्रवेश कर इस प्रदेश की भाषा और साहित्य ने बड़ी तेजी से उन्नति की है।[१]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सं.ग्रं.-मेइए ले लाँग दु माँद (पेरिस); बाबूराम सक्सेना: सामान्य भाषाविज्ञान (प्रयाग)।