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लेख सूचना
आर्य पुद्गल
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 1
पृष्ठ संख्या 440
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक सुधाकर पाण्डेय
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1964 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक डॉ. भिक्षु जगदीश काश्यप

आर्य पुद्गल प्रधानत: चार होते हैं: (1) श्रोतापन्न, अर्थात्‌ वह मुमुक्षु योगी जो इस अवस्था को प्राप्त हो चुका है, जिसका मुक्त होना निश्चित है और जिसका च्युत होना असंभव है। अधिक से अधिक वह सात जन्म ग्रहण करता है। इसी के भीतर वह निर्वाण प्राप्त कर लेता है, (2) सकृदागामी, जो मरणोपरांत इस लोक में एक बार और जन्म ग्रहण कर मुक्ति का लाभ करता है, (3) अनागामी, वह जो मरणोपरांत किसी ऊँचे लोक में पैदा होता है और बिना इस लोक में जन्म ग्रहण किए वही अर्हत्‌ हो जाता है और (4) अर्हत्‌ जिसने अविद्या अंत कर परममुक्ति का लाभ कर लिया है। इन चार आर्य पुद्गलों के दो-दो भेद होते हैं-एक उस अवस्था के जब उन्हें उन पदों की प्राप्ति का ज्ञान हो जाता है। पहले उस अवस्था के जब उन्हें उस पद की प्राप्ति का ज्ञान हो जाता है। पहले को 'मार्गस्थ' और दूसरे को 'फलस्थ' कहते हैं। इस प्रकार आर्य पुद्गल के आठ भेद हुए।


टीका टिप्पणी और संदर्भ