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इंद्रिय
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 1 |
पृष्ठ संख्या | 503 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | सुधाकर पाण्डेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1964 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | बलदेव उपाध्याय |
इंद्रिय के द्वारा हमें बाहरी विषयों-रूप, रस, गंध, स्पर्श एवं शब्द - का तथा आभ्यंतर विषयों -सु:ख दु:ख आदि-का ज्ञान प्राप्त होता है। इद्रियों के अभाव में हम विषयों का ज्ञान किसी प्रकार प्राप्त नहीं कर सकते। इसलिए तर्कभाषा के अनुसार इंद्रिय वह प्रमेय है जो शरीर से संयुक्त, अतींद्रिय (इंद्रियों से ग्रहीत न होने वाला) तथा ज्ञान का करण हो (शरीरसंयुक्तं ज्ञानं करणमतींद्रियम्)। न्याय के अनुसार इंद्रियाँ दो प्रकार की होती हैं : (1) बहिरिंद्रिय-्घ्रााण, रसना, चक्षु, त्वक् तथा श्रोत्र (पाँच) और (2) अंतरिंद्रिय-केवल मन (एक)। इनमें बाह्य इंद्रियाँ क्रमश: गंध, रस, रूप स्पर्श तथा शब्द की उपलब्धि मन के द्वारा होती हैं। सुख दु:ख आदि भीतरी विषय हैं। इनकी उपलब्धि मन के द्वारा होती है। मन हृदय के भीतर रहनेवाला तथा अणु परमाणु से युक्त माना जाता है। इंद्रियों की सत्ता का बोध प्रमाण, अनुमान से होता है, प्रत्यक्ष से नहीं सांख्य के अनुसार इंद्रियाँ संख्या में एकादश मानी जाती हैं जिनमें ज्ञानेंद्रियाँ तथा कर्मेंद्रियाँ पाँच पाँच मानी जाती हैं। ज्ञानेंद्रियाँ पूर्वोक्त पाँच हैं, कर्मेंद्रियाँ मुख, हाथ, पैर, मलद्वार तथा जननेंद्रिय हैं जो क्रमश: बोलने, ग्रहण करने, चलने, मल त्यागने तथा संतानोत्पादन का कार्य करती है। संकल्पविकल्पात्मक मन ग्यारहवीं इंद्रिय माना जाता है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ