"कठिनी": अवतरणों में अंतर

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
[अनिरीक्षित अवतरण][अनिरीक्षित अवतरण]
छो (Text replace - "१" to "1")
No edit summary
 
(इसी सदस्य द्वारा किए गए बीच के २ अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति १: पंक्ति १:
{{भारतकोश पर बने लेख}}
{{लेख सूचना
{{लेख सूचना
|पुस्तक नाम=हिन्दी विश्वकोश खण्ड 2
|पुस्तक नाम=हिन्दी विश्वकोश खण्ड 2
पंक्ति ६२: पंक्ति ६३:
कठिनी की मुख्य उत्सर्जन इंद्रियाँ श्रृंगिका संबंधी (ऐंटेनैल, antennal) तथा उपभंज संबंधी (मैक्सीलरी, maxillary) दो जोड़ी ग्रंथियाँ हैं जो इन्हीं नामों के अंगों के आस्थानों पर खुलती हैं। दोनों ग्रंथियों का पूर्ण विकास कभी भी किसी जाति की एक अवस्था में एक साथ नहीं मिलता, अतएव जीवन के इतिहास में भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में एक के पश्चात्‌ दूसरी ग्रंथि कार्यशील होती है। उदाहरणार्थ, झींगे तथा दूसरे दशपादों (डेकापोडा, Decapoda) की वयस्क अवस्था में श्रृंगिका संबंधी ग्रंथि कार्यशील होती है और इनके डिंभ (लार्वा) में उपजंभ संबंधी। परंतु अधिकतर कठिनियों में इसके विपरीत दशा होती है। इनमें इन दोनों ग्रंथियों की रचना एक समान होती है।
कठिनी की मुख्य उत्सर्जन इंद्रियाँ श्रृंगिका संबंधी (ऐंटेनैल, antennal) तथा उपभंज संबंधी (मैक्सीलरी, maxillary) दो जोड़ी ग्रंथियाँ हैं जो इन्हीं नामों के अंगों के आस्थानों पर खुलती हैं। दोनों ग्रंथियों का पूर्ण विकास कभी भी किसी जाति की एक अवस्था में एक साथ नहीं मिलता, अतएव जीवन के इतिहास में भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में एक के पश्चात्‌ दूसरी ग्रंथि कार्यशील होती है। उदाहरणार्थ, झींगे तथा दूसरे दशपादों (डेकापोडा, Decapoda) की वयस्क अवस्था में श्रृंगिका संबंधी ग्रंथि कार्यशील होती है और इनके डिंभ (लार्वा) में उपजंभ संबंधी। परंतु अधिकतर कठिनियों में इसके विपरीत दशा होती है। इनमें इन दोनों ग्रंथियों की रचना एक समान होती है।


प्रत्येक ग्रंथि में तीन मुख्य भाग होते हैं : 1. अंतस्यून (ऐंड सैक, end sac), जो देहगुहा (सीलोम, Coelome) का अवशेष तथा क्षीण भीतवाला भीतरी भाग है, . उत्सर्गी नलिका (Excretory duct) तथा . परिवर्तित बहिर्गमन प्रणाली (Ureter), जो अंतस्यून से जुड़ी रहती है और जिसका एक भाग ग्रंथमान भीतवाली (Glandular plexus) उत्सर्गी नलिका है। उत्सर्गी नलिका का अधर भाग तथा बहिर्गमन प्रणाली दोनों बड़ी होकर संग्राही मूत्राशय (Renal sac) बनाती हैं।
प्रत्येक ग्रंथि में तीन मुख्य भाग होते हैं : 1. अंतस्यून (ऐंड सैक, end sac), जो देहगुहा (सीलोम, Coelome) का अवशेष तथा क्षीण भीतवाला भीतरी भाग है, 2. उत्सर्गी नलिका (Excretory duct) तथा 3. परिवर्तित बहिर्गमन प्रणाली (Ureter), जो अंतस्यून से जुड़ी रहती है और जिसका एक भाग ग्रंथमान भीतवाली (Glandular plexus) उत्सर्गी नलिका है। उत्सर्गी नलिका का अधर भाग तथा बहिर्गमन प्रणाली दोनों बड़ी होकर संग्राही मूत्राशय (Renal sac) बनाती हैं।


==तंत्रिका तंत्र==
==तंत्रिका तंत्र==

०५:३४, २१ जुलाई २०१८ के समय का अवतरण

चित्र:Tranfer-icon.png यह लेख परिष्कृत रूप में भारतकोश पर बनाया जा चुका है। भारतकोश पर देखने के लिए यहाँ क्लिक करें
लेख सूचना
कठिनी
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 2
पृष्ठ संख्या 370-376
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक सुधाकर पांडेय
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1975 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक रामकृष्ण मेहरा

कठिनी (क्रस्टेशिया) जीवजगत्‌ में संधिपाद जीवों (फ़ाइलम) का एक मुख्य विभाग है, जिसमें बड़े केकड़ (Crabs), झींगे (Prawns), चिंगट (श्रृंप, Shrimp), प्रचिंगट (क्रे-फ़िश, cray-fish), महाचिंगट (लॉब्स्टर, lobster), खंडावर (बार्नेकिल, barnacle), काष्ठ यूका (वुड लाउस, wood louse) तथा जलपिंशु (वाटर फ़्ली, water flea) इत्यादि हैं, परंतु इसके सबसे छोटे जीवों को देखने के लिए अणुवीक्षण यंत्र का सहारा लेना पड़ता है। कठिनी की भिन्न-भिन्न जातियों के आकर प्रकार में बहुत ही अंतर होता है जिस कारण इसकी संक्षिप्त परिभाषा देना अत्यंत कठिन है। कठिनी का प्रत्येक लक्षण, विशेषकर इसके पराश्रयी तथा उच्च विशेष जीवों में तो, पूर्ण रूप से किसी न किसी प्रकार बदल जाता है।

क्रस्टेशिया शब्द का उपयोग प्रारंभ में उन जीवों के लिए किया जाता रहा है जिनका कवच कठोर तथा नम्य हो। इसके विपरीत दूसरे जीव वे हैं जिनका कवच तथा भंगुर होता है, जैसे सीप तथा घोंघे इत्यादि। परंतु अब यह ज्ञात है कि सब संधिपाद जीवों का बहि:कंकाल (Fxoskeleton) कठोर तथा नम्य होता है। इस कारण अब कठिनी को अन्य लक्षणों के पृथक किया जाता है। इस वर्ग के जीव प्राय: जलनिवासी होते हैं और संसार में कोई भी ऐसा जलाशय नहीं है जहाँ इनकी कोई न कोई जाति न पाई जाती हो। इस कारण कठिनी वर्ग के जीव प्राय: जलश्वसनिका (गिलस, gills) अथवा त्वचा से श्वास लेते हैं। इनमें दो जोड़ी श्रृंगिका (Antennae) जैसे अवयव मुख के सामने और तीन जोड़ी हनु (mandibles) मुख के पीछे होते हैं।

कठिनी वर्ग के मुख्य परिचित जीव तो झींगें और केकड़े हैं जिनका उपयोग मानव अपने खाद्य रूप में करता है, परंतु इनसे कहीं अधिक आर्थिक महत्व के इसके निम्न जीव ऐंफ़िपाड्ज़, (Amphipods), आइसोपाइड्ज़, (Isopods) इत्यादि, हैं जो उथले जलाशयों में समूहों में रहते हुए सम्मार्जक का काम करते हैं। इन निम्न जीवों का भोजन दूसरे जीव तथा वनस्पतियों की त्यक्त वस्तुएँ हैं और साथ ही यह स्वयं उच्च प्राणियों, जैसे मत्स्य इत्यादि, का भोजन बनते हैं। इसके कई तलप्लावी सूक्ष्म जीव ऐसे भी हैं जिनके समूह मीलों तक सागर के रंग को बदल देते हैं, जिससे मछुओं को उचित मत्स्यस्थानों का ज्ञान हो जाता है। इस प्रकार यह मत्स्य का भोजन बनकर और साथ ही मछुओं की सहायता करके आर्थिक लाभ पहुँचाते हैं।

बाह्य रचना

इस वर्ग के जीवों का कवच दूसरे संधिपाद जीवों के समान ही खंडों के समूहों में विभाजित रहता है, परंतु इनमें से प्राय: कुछ खंड एकीभंजित भी हाते हैं। प्रत्येक खंड कवच अँगूठी के समान होता है, जो अपने अगले तथा पिछले खंड के साथ नम्य इंटेगुमंट (Integument) से जुड़ा रहता है। प्रत्येक खंड का चाप सदृश पृष्ठीय (borsal) पट्ट, स्टर्नम्‌ (Sternum) कहलाता है और टर्गम के दोनों पार्श्व भाग, जो पट्टों के रूप में रहते हैं, प्लूरा (Pleura) कहलाते हैं। प्रत्येक खंड के स्टर्नम के साथ एक जोड़ी अंग जुड़े रहते हैं। शरीर का अंतिम खंड, जिसपर गुदा होती है, अंगहीन रहता है और टेल्सन) कहलाता है। आधुनिक कठिनी में कोई भी ऐसा जीव नहीं मिलता जिसमें प्रत्येक खंड एक दूसरे से स्पष्टतया पृथक हो। उदाहरणार्थ, झींगे के शरीर के अग्रभाग का कवच अविभाजित तथा नालाकार होता है और कैरापेस (Carapace) कहलाता है। इसके खंडों की संख्या का अनुमान इस भाग के साथ जुड़े अवयवों की संख्या से लगाया जाता है। इस भाग में संयुक्त खंडों की संख्या कम से कम छह मानी गई है जिसमें नैत्रिक खंड भी सम्मिलित हैं। इस भाग को सिर कहते हैं। जब इस भाग में इससे अधिक खंड सम्मिलित रहते हैं तब इसके बादवाले खंडों के अवयव अगले अवयवों से पूर्णत: पृथक होते हैं। सिर के पीछे के खंडों को शरीर के दो भागों, वक्ष (Thorax) तथा उदर (Abdomen) में बाँटा गया है, जिनको उनके विभिन्न अवयव एक दूसरे से पृथक करते हैं। परंतु उच्च कठिनी मैलाकाँस्ट्राका (Malacostraca) इत्यादि में वक्ष के खंड सिर में सम्मिलित हो जाते हैं। तब इस संयुक्त भाग को शीर्शोवक्ष (Cephalothorax) के नाम से अभिहित करते हैं। इस प्रकार कैरापेस का रूप भी भिन्न-भिन्न कठिनी जीवों में अनेक प्रकार पाया जाता है। यह ब्रैंकिओपोडा (Branchiopoda) और ऑस्ट्राकोडा (Ostracoda) में बाइवाल्व कवच के रूप में शरीर तथा अंगों को पूर्णतया ढके रहता है, सिरीपीडिया (Cirripedia) में यह मांसल प्रावार के आकार का होता है और इसे पुष्ट करने के लिए कैल्सियमयुक्त (Calcified) पट्ट भी स्थित रहते हैं। ये तो इसके कुछ विशेष रूप हैं, परंतु साधारण नालाकार रूप के कैरापेस में वक्ष के एक से लेकर सारे खंड सिर में सम्मिलित हो सकते हैं। कैरापेस विभिन्न कठिनियों में से प्राय: सभी में पाया जाता है। केवल एनोस्ट्राका (Anostraca) ही जीव हैं जिनमें कैरापेस नहीं होता।

कठिनी के शरीर की संपरिवर्तित चरम सीमा इसके पराश्रयी तथा स्थगित जीवों में पाई जाती है। खंडावर अपनी प्रौढ़ावास्था में अपने सिर से मूलबद्ध रहते हैं और साथ ही उनमें रेडियल सममिति की ओर प्रवृत्ति होती है जिसका कारण इनका स्थगित जीवन है। पराश्रयी जीवों में शरीरखंड लुप्त हो गए हैं और शरीर का आकार भी पूर्ण रूप से परिवर्तित हो गया है। इसका उदाहरण राइज़ोसेफ़ाला (Rhyzocephala) है, जिसमें कठिनी के लक्षण तो क्या, संधिपाद जीवों का भी कोई लक्षण प्रौढावस्था में नहीं दिखाई देता।

अवयव

कठिनी जीव मुख्यत: जलनिवासी हैं। इस कारण अनुमान किया जाता है कि इस वर्ग के पूर्वज का शरीर समान खंडों में विभाजित था और प्रत्येक खंड पर एक जोड़ी अंग जुड़े थे। इनका प्रत्येक अवयव प्रचलन, भोजनप्राप्ति, श्वसन तथा ज्ञानग्रहण आदि सब कार्य साथ-साथ करता था। ट्राइलोबाइटा (Trilobita) में अवयवों की ऐसी ही व्यवस्था मानी गई है, परंतु यह उपवर्ग लुप्त हो गया है। अभी तक अधुनिक कठिनी में किसी भी ऐसे जीव का पता नहीं चला जिसके अवयवों में ये चारों कार्य साथ होते हों। इसके सिर के अंग तो भिन्न-भिन्न विशेष कार्यों के लिए उपयुक्त होते हैं, परंतु ब्रैंकिओपोडा के धड़ के अवयव एक समान होते हैं और कुछ सीमा तक माना जा सकता है कि इनसे चारों कार्य होते हैं। अन्यथा अंगों की विशेषता कठिनी में कई उपायों से उन्नति कर गई है, क्योंकि यह विदित है कि जो अंग कुछ कठिनियों में एक कार्य करते हैं वे ही किसी दूसरी कठिनी में उसके विपरीत कोई अन्य कार्य करते हैं। कठिनी के भीतर का विकास मुख्यत: इन अंगों के ही कर्तव्य में नियंत्रण पर आधारित है।

चाहे कठिनी के अवयव किसी भी कार्य के लिए उपयोजित हों और उनके आकार में चाहे कितनी विभिन्नता क्यों न हो, इनकी बनावट मुख्यत: द्विशाखी (Biramus) होती है। प्रत्येक अवयव का आधारित वृत्त द्विखंडी होता है और इसे सिंपॉड या प्रोटोपोडाइट (protopodite) कहते हैं और इसके ऊपरी खंड से दो शाखाएँ एंडोपोडाइट (Endopodite) और एक्सोपोटाइड (Exopodite) निकलती हैं। इस प्रकार के मूल आधारित अवयव को स्टीनोपोडियम (Stenopodium) कहते हैं। ऐसे साधारण द्विशाखी अवयव कोपीपॉड (Copepod) के प्लवन पद, मैलाकॉस्ट्राका के उदर अंग इत्यादि हैं और ऐसे ही अंग पूर्वज डिंभ (लार्वा) में भी, जिसे नॉप्लिअस (Nauplius) कहते हैं, पाए जाते हैं। इसी प्रकार के अवयव दूसरे कठिनी जीवों में विशेष कार्यों के लिए विभिन्न रूप धारण कर लेते हैं।

सिर के अवयव

कठिनी के नेत्र दो प्रकार के होते हैं मध्यम (median) तथा संयुक्त (compound) नेत्र। अति सरल मध्यम नेत्र नॉप्लिअस और अनेक वयस्क कठिनियों में रहते हैं, परंतु मैलाकॉस्ट्राका में ये लुप्त हो जाते हैं और इनमें संयुक्त नेत्र ही कार्यशील नेत्र होते हैं। संयुक्त नेत्र प्राय: एक जोड़ी होते हैं, जो कुछ जीवों के अवृंत (sessile) और कई एक में वृंतयुक्त (stalked) रहते हैं। नेत्रवृंत (Eye-stalk) को सिर का अवयव माना गया है, परंतु यह संदेहात्मक है। कारण, परिवर्धन में यह दूसरे अंगों में बहुत पश्चात्‌ उदित होते हैं।

प्रथम श्रृंगिकाएँ (ऐंटेन्यूल्ज़, Antennules), जो मुख के सामने रहती है, दूसरे खंड के अवयव मानी गई हैं। यह नॉप्लिअस तथा सब उपजातियों के जीवों में, केवल मैलाकॉस्ट्राका के अतिरिक्त, एकशाखी होती हैं। इनका मुख्य कार्य संवेदक है, परंतु अनेक डिंभों और वयस्क कठिनियों में ये प्लवन के कार्य में भी आती हैं और अनेक नर श्रृंगिका से मादा को पकड़ते भी हैं। सिरोपीडिया में सीमेंट ग्रंथियों (Cement-glands) के छिद्र इन्हीं अवयवों पर होते हैं, जिनकी सहायता से इनके वयस्क स्थगित होते हैं। यद्यपि द्वितीय श्रृंगिका (ऐंटेना) मुख के आगे स्थित रहती है, तथापि वास्तव में इसका स्थान मुख के पीछे था। नॉप्लिअस में इसका स्थान मुख के पार्श्व में रहता है और यह भोजन को मुख की ओर लाने में सहायता देती है। इसके शेष कार्य प्रथम श्रृंगिका के समान होते हैं। मेलाकॉस्ट्राका में इसकी एक शाखा बहुसंधिमान कशांग (फ़्लैजेलम, Flagellum) के आकार की होती है और इसका कार्य केवल संवेदन ग्रहण है, परंतू दूसरी शाखा का आकार चपटे पट्ट के समान होता है और यह प्लवन में संतोलन का कार्य भी करती है।

नॉप्लिअस तथा वयस्का कोपीपोडा, आइसोपोडा (Isopoda) इत्यादि में अधोहनु (मैंडिबल, Mandible) भी द्विशाखी होते हैं और भोजनप्राप्ति में सहायता करते हैं, परंतु बहुतेरे कठिनियों में अधोहनु शक्तिमान हनु का रूप धारण कर लेते हैं और इनकी सतह दाँत और कंडों (Spines) से सुसज्जित होती है। पराश्रयी कठिनी के अधोहनु बेधन के लिए नलाकार शुंड (proboscis) के सदृश होते हैं। उपभंजक (मैक्सिलूला, Maxillula) तथा उपजंभ (मैक्सिला, Maxilla), या प्रथम और द्वितीय मैक्सिला, सदा पत्तियों के समान चपटे होते हैं और इनके वृंतोपांग (प्रोटोपोडाइट, Protopodite) पर हनु की शाखिकाएँ स्थित रहती हैं। ये तीनों मुख के पिछली हनु हैं।

अन्य अवयव

सिर के पीछेवाले अंगों में ब्रैंकिओपोडा, कोपीपोडा इत्यादि में आपस में कोई विशेष भिन्नता नहीं होती और ये अंग मुख्यत: एक समान होते हैं। इनका आकार मेलाकॉस्ट्राका के उपजंभक (मैक्सिलूला) और उपजंभ (मैक्सिला) में मिलता-जुलता होता है। इस प्रकार के अवयवों को फ़िल्लोपोडिया (Phyllopodea) कहते हैं। परंतु मेलाकॉस्ट्राका के धड़ के अंगों को दो भागों में विभाजित किया जाता है-आठ जोड़ी वक्ष के अवयव (thoracic appendages) तथा छह जोड़ी उदर के अवयव (Abdominal appendages)। ये एक दूसरे से पूर्णतया भिन्न होते हैं। वक्ष के अवयव मुख्यत: गति करने के काम में आते हैं और इसी कारण इनके एंडोपोडाइड (Endopodite), जो इस कार्य में प्रमुख भाग लेते हैं, उसी प्रकार परिविर्तत हो जाते हैं, परंतु इनके एक्सोपोडाइड (Exopodite), जो प्लवन में उपयोगी होते हैं, इनमें लुप्त हो गए हैं। वक्ष के पूर्व एक अथवा दो जोड़ी अवयव प्राय: पदहनु (Foot-jaws) आकार के होते हैं जिस कारण इन्हें अनुपाद नाम दिया गया है। उदर के अंग सदा द्विशाखी और प्लवन में उपयोगी हैं। अंतिम उदरांग (टेल्सन) के सहयोग से पूँछ मीनपक्ष (tail-fin) का आकार धारण करके जीव को विशेष प्रकार से उलटने में सहायता देती है।

श्वसन

अधिकतर निम्न कठिनी शरीतल से साँस लेते हैं, परंतु जिन जीवों का बहि:कंकाल (Exoskeleton) अधिक कठोर हो गया है वे श्वसन कार्य अपने उन शरीरस्थानों से करते हैं जहाँ का तल क्षीण रह गया है, जैसे कैरापेस (Carapace) का अस्तर; अथवा यह काम विशेष इंद्रियों द्वारा होता है, जिनको जलश्वसनिका (गिल्ज़) कहते हैं। जलश्वसनिका वक्ष (Thorax) या उसके अंगों पर स्थित शाखिकाएँ (branchlets) हैं जिनका आकार चपटा होता है और जिनकी सूक्ष्म भीतों के भीतर रुधिर प्रवाहित होता रहता है। डेकापोडा (Decapoda) में जलश्वनिकाएँ अपनी स्थिति के आधार पर तीन श्रेणियों में रखी गई हैं-वक्षांगमूल की शाखिकाएँ (Prodobranch), वक्षांगों के समीप की शाखिकाएँ (Arthrobranch) तथा ब्रैंकियल मंडल (pleurobranch) भीतरी भाग जो केरापेस से ढके रहते हैं। थलनिवासी कठिनी, जैसे केकड़े इत्यादि, वायुश्वसन के लिए अनुकूलित होते हैं-इनके ब्रैकियल मंडल के अस्तर का तल फेफड़ों का कार्य करता है। अन्य जीवों में, जैसे आइसोपोडा (Isopoda), काष्ठयूका (wood-lice) इत्यादि में, उदरांगों में शाखाविन्यस्त वायु भरी नलिकाएँ पाई जाती हैं, जो कीट तथा अन्य स्थलजीवों की श्वासनलियों (trachea) के समान होती हैं।

आहारतंत्र

कठिनियों में आहारनली (Alimentary canal) प्रतिपृष्ठ मुख से लेकर अंत तक पूर्ण शरीर में सदैव सीधी रहती है। परंतु इस वर्ग के कुछ ऐसे जीव भी हैं जिनमें यह न्युदेष्टित (Twisted) अथवा कुंडलित भी पाई जाती है। अन्य संधिपाद जीवों के समान यह भी तीन भागों में विभाजित रहती है। अग्रांत्र (स्टोमोडियम, Stomodaeum) तथा पश्चांत्र (प्रॉक्टोडियम, Procctodaeum), जिनके छिद्र मुख तथा गुदा हैं और जिनका आंतरिक तल काइटिन (chitin) से, जो बाह्य शरीर के काइटिन के साथ संलग्न रहता है, आच्छादित रहते हैं। तीसरा भाग मध्यांत्र (mesenteron, midgut) है, जो इन दोनों के मध्य में रहता है। अग्रांत्र की पेशियाँ प्रबल होती हैं और इनके अंतरीय तल पर बाल, काँटे तथा दाँत इत्यादि विकसित रहते हैं। मेलाकॉस्ट्राका में यह भाग आमाशय बनाता है, जिसमें जठर, पेषणी तथा छानन उपकरण खाद्य रसों को कणों से अलग करने के लिए विशेष साधन रहते हैं। परंतु पेषणी तथा छाननी प्राय: हृदीय (कार्डियक, cardiac) तथा निजठरीय (पाइलोरिक, Pyloric) विभागों में पृथक रहते हैं। मध्यांत्र के अगले सिरे पर एक जोड़ी या अधिक यकृत (hepatic) उंडुक (सीकम, द्र) रहते हैं जिनका कार्य अवशोषण तथा स्राव हैं और जिनमें से शाखा निकलकर यकृत भी बना सकती है। डेकापोडा में यकृत ग्रंथि (Hepam-pancreas) प्राय: सारे आवश्यक एंज़ाइम (enzyme) बनाती है और साथ अपनी गुहा से वंचित पदार्थों का शोषण भी करती हैं। इसी में भोजन ग्लाइकोजन (Glycogen) के रूप में संचित होता है। कुछ डेकापोडा में मध्यांत्र बहुत छोटी होती है जिसके कारण आहारनली केवल अग्र तथा पश्च आंत्र की बनी विदित होती है। पराश्रयी कठिनी जीवों में आहारनली या तो नाममात्र की होती है अथवा उसका बिलकुल अभाव होता है।

रुधिरवाही तंत्र

अन्य संधिपाद जीवों की भाँति कठिनियों में भी रुधिर शरीरगुहा (Haemocoele) तथा गंतिकाओं (Sinuses) में प्रवाहित होता है। हृदय भी अन्य संधिपादों की भाँति आहारनली के पृष्ठी हृदयावरण (pericardium) के भीतर स्थित रहता है। ब्रैंकिओपोडा, आस्ट्राकाडा (Ostracoda) तथा कुछ मेलाकॉस्ट्राका में हृदय प्राय: शरीर की पूरी लंबाई के बराबर होता है और शरीर के अंतिम भाग खंड के अतिरिक्त प्रत्येक खंड में इसमें एक जोड़ी कपाटयुत अंध्र (valvular ostia) होता है, जो हृदयावरण से जा मिलता है। अन्य कठिनियों में हृदय की लंबाई प्राय: कम होती है। धमनियाँ हृदय से निकलकर रुधिरस्थानों में खुलती हैं, जहाँ से रुधिर शरीर के प्रत्येक भाग तथा अंग से होता हुआ हृदयावरण में आता है। रुधिर को आक्सीजनयुक्त करने के लिए जलश्वसनिका इसी भाग में स्थित रहती है। अनेक कठिनी ऐसे भी हैं जिनमें हृदय नहीं होता, जैसे सिरीपीडिया (Cirripedia), कोपीपोडा इत्यादि और इनमें रुधिरवहन शरीर तथा आहरनली के संचालन की सहायता से होता है।

कठिनियों का रुधिर हलका तरल पदार्थ होता है जिसमें ल्यूकोसाइट (Leucoyte) मिला रहता है और ऐंटोमेस्ट्राका में हीमोग्लोबिन (hemoglobin) भी उपस्थित रहता है।

उत्सर्जन तंत्र

कठिनी की मुख्य उत्सर्जन इंद्रियाँ श्रृंगिका संबंधी (ऐंटेनैल, antennal) तथा उपभंज संबंधी (मैक्सीलरी, maxillary) दो जोड़ी ग्रंथियाँ हैं जो इन्हीं नामों के अंगों के आस्थानों पर खुलती हैं। दोनों ग्रंथियों का पूर्ण विकास कभी भी किसी जाति की एक अवस्था में एक साथ नहीं मिलता, अतएव जीवन के इतिहास में भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में एक के पश्चात्‌ दूसरी ग्रंथि कार्यशील होती है। उदाहरणार्थ, झींगे तथा दूसरे दशपादों (डेकापोडा, Decapoda) की वयस्क अवस्था में श्रृंगिका संबंधी ग्रंथि कार्यशील होती है और इनके डिंभ (लार्वा) में उपजंभ संबंधी। परंतु अधिकतर कठिनियों में इसके विपरीत दशा होती है। इनमें इन दोनों ग्रंथियों की रचना एक समान होती है।

प्रत्येक ग्रंथि में तीन मुख्य भाग होते हैं : 1. अंतस्यून (ऐंड सैक, end sac), जो देहगुहा (सीलोम, Coelome) का अवशेष तथा क्षीण भीतवाला भीतरी भाग है, 2. उत्सर्गी नलिका (Excretory duct) तथा 3. परिवर्तित बहिर्गमन प्रणाली (Ureter), जो अंतस्यून से जुड़ी रहती है और जिसका एक भाग ग्रंथमान भीतवाली (Glandular plexus) उत्सर्गी नलिका है। उत्सर्गी नलिका का अधर भाग तथा बहिर्गमन प्रणाली दोनों बड़ी होकर संग्राही मूत्राशय (Renal sac) बनाती हैं।

तंत्रिका तंत्र

केंद्रीय तंत्रिकातंत्र का सामान्य रूप भी अन्य संधिपाद जीवों की भाँति होता है। मस्तिष्क का संयोग प्रतिपृष्ठीय तंत्रिकारज्जु के साथ परिग्रसिका संयोजक (Oesophageal connective) के द्वारा रहता है। प्रतिपृष्ठीय तंत्रिका रज्जु गुच्छिकाओं (गैंग्लिया, Ganglia) की एक दोहरी श्रृंखला है जिनका आपास में योग संयोजकों (Connectives) तथा समामिलों (कमिशुर्स, Commissures) से होता है। प्राय: चार जोड़ी भ्रूणीय गुच्छिकाएँ (Embryonic ganglia) आपस में मिलकर मस्तिष्क बनाती हैं और नेत्र गुच्छिका (Optic ganglia) भी इसी में सम्मिलित है।

कठिनी में तंत्रिका तंत्र की अवस्था में संधिपादों की आदर्श दशा से लेकर अत्यंत संक्रेदीय दशा तक की पूर्ण श्रेणी मिलती है। आदिम ब्रैंकिओपोडा में प्रतिपृष्ठ गुच्छिकाओं की श्रृंखला (Ventral Ganglionic chain) सीढ़ियों के आकार की होती है जैसी कुछ ऐनीलिड्ज़ (Annelids) में पाई जाती है और जिसमें श्रृंखला के दोनों भाग एक दूसरे से पृथक रहते हैं। अन्य कठिनी समूहों में प्राय: श्रृंखला के दोनों भागों का आपस में संरोहण हो जाता है, साथ ही, गुच्छिकाएँ भी एक दूसरे के समीप आकर सायुज्जित हो जाती हैं। इस श्रेणी की अंतिम दशा में, जो केकड़ों में पाई जाती है, केवल गुच्छिकाओं का एक समूह ही दिखाई देता है।

जननतंत्र

स्वतंत्र तथा कर्मण्य जीवों के समान बहुधा कठिनी में भी लिंग पृथक होते हैं, परंतु सिरीपीडिआ तथा अनेक पराश्रयी आइसोपोडा के जीव द्विलिंगी भी होते हैं। ये पूर्वपुंपक्व (प्रोटैड्रस, protandrous) होते हैं जिनमें पुल्लिंग अंगों का परिवर्धन (development) स्त्रीलिंग अंगों से पहले होता है। सिरीपीडिया में सूक्ष्म संपूरक नर भी परजीवियों के समान इस जाति के साधारण अथवा द्विलिंगी जीवों के साथ प्राय: चिपके रहते हैं, क्योंकि इनके पुल्लिंग अंग पूर्णरूप से गर्भाधान (निषेचन क्रिया) नहीं कर सकते। अनेक ब्रैंकिओपोडा तथा आस्ट्रेकोडा में अनिषेक जनन (पारथेनोजेनेसिस, parthenogenesis) भी होता है। लैंगिक द्विरूपता (sexual demorphism) भी इनमें सामान्यत: पाई जाती है। नर में मादा को पकड़ने के लिए विशेष अंग भी रहते हैं, जो शरीर के किसी भाग से संपरिवर्तित होकर इस कार्य के लिए उपयोगी हो जाते हैं। उच्च दशपादों में नर प्राय: स्त्री से बड़े होते हैं, परंतु अन्य समूहों में व्यवस्था इसके विपरीत होती है।

दोनों लिंगों के जननपिंड (Gonads) सदा एक जोड़ी नाल इंद्रियाँ होती हैं, जो आहारनली के पृष्ठ पर (dorsal) एक दूसरे से जुड़ी रहती हैं। ये साधारण अथवा शाखायुक्त भी हो सकती हैं और इनसे नलिकाएँ उत्पन्न होकर शरीर के प्राय: मध्य से बाहर की ओर खुलती हैं। सिरीपीडिया में और कुछ क्लैडोसिरा (Cladocera) के नर में यह छिद्र शरीर की सीमा पर रहते हैं, परंतु इनकी मादा में यह छिद्र वक्ष के प्रथम खंड पर स्थित रहते हैं और मेलाकॉस्ट्राका में भी दोनों लिंगों में छिद्र इसी स्थान पर रहते हैं।

भ्रूण तत्व

कठिनी के अंडजनन से जो डिंभ (लार्वा) बहुलसंख्या में उपलब्ध होते हैं वे वयस्क से पूर्णत: भिन्न होते हैं। वयस्क अवस्था धारण करने के पूर्व जीव को विभिन्न डिंभों की एक श्रेणी पार करनी पड़ती हैं जिसमें प्रथम डिंभ नॉप्लअस लार्वा कहलाता है। प्रत्येक कठिनी इस अवस्था को अवश्य पार करता है चाहे वह स्वच्छंद प्लावित (free swimming) अवस्था में उत्पन्न हो अथवा भ्रूणित (embryonic) में। प्रारूपिक अवस्था में यह डिंभ अखंडित (unsegmented) अंडाकार होता है, जिसमें तीन जोड़ी अवयव रहते हैं और जो वयस्क के ऐंटेन्यूल्ज़ (antennules), ऐंटेनी (antennae) और मैडिबल्ज़ (mandibles) बन जाते हैं। इसके प्रथम जोड़ी द्विशाखी (biramu) होते हैं, और ये सब नॉप्लिअस को प्लवन में सहायता देते हैं। द्विशाखी अवयव भोजन को मुख में पहुँचाने का कार्य भी करते हैं। इसके मुख के सामने एक बड़ा सा उदोष्ठ (लेब्रम, Labrum) रहता है। डिंभ के आंत्र के तीनों भाग अग्रांत्र (Fore-gut), मध्यांत्र (Midgut) तथा पश्चांत्र (Hindgut) रहते हैं। आस्ट्राकोडा में नॉप्लिअस अंडजनन (hatching) के समय संपरिवर्तित होता है, क्योंकि इसमें बाइवाल्व (Bivalved) कैरोपेस परिवर्धित रहती है।

निम्न जाति के कठिनियों में नॉप्लिअस का परिवर्तन क्रमश: होता है, जिसमें खंड एक-एक करके, पीछे से आगे, अंतिम खंड (टेल्सन) में जुड़ते जाते हैं। तब इन खंडों में अवयव उत्पन्न होने लगते हैं। इस प्रकार इसकी अवस्था अन्य रूपों में परविर्तित हो जाती है जिमें मेटानॉप्लिअस (Metanauplius), साइप्रिस (Cypris), ज़ोइया (Zoea), फ़िल्लोसोमा (Phyllosoma), मेगालोपा (Megalopa) इत्यादि उल्लेखनीय हैं। अधिकतर ये सारी अवस्थाएँ स्वच्छंद तलप्लावी होती हैं। केवल अलवण जल (Fresh water) के प्रचिंगट (Crayfish) तथा नदियों के झींगे ही ऐसे जीव हैं जिनके परिवर्धन में विशेष रूपांतर नहीं होता।

वर्गीकरण

इस वर्ग के जीवों की रचना में दूसरे वर्गों से कहीं अधिक अनेकरूपता पाई जाती है। इस कारण इनका वर्गीकरण, जिसमें आपस की समानताओं पर विशेष ध्यान रखा जाता है, अति जटिल है। इस वर्ग को निम्नलिखित उपवर्गों में विभाजित किया गया है जिनके साथ उनके मुख्य गणों (आर्डर्स) के नाम भी अंकित हैं :

उपवर्ग : ब्रैंकिओपोडा-(Branchiopoda)

गण : ऐनोस्ट्राका (Anostraca), नोटोस्ट्राका (Notostraca), कौंकोस्ट्राका (Conchostraca) तथा क्लैडोसिरा (Cladocera)।

उपवर्ग : औस्ट्राकोडा-(Ostracoda)

गण : माइओडोकोपा (Myodocopa) तथा पोडाकोपा (Podacopa)

उपवर्ग : कापीपोडा-(Copepoda)

गण : साइक्लोपाइडिआ (Cyclopidea), लरनीओपोडाइडिया (Lernaeopodidea), केलिगाइडा (Caligiida), केलेनाइडा (Calaniida) इत्यादि।

उपवर्ग : ब्रैंक्यूरा-(Branchiura)

गण : आर्गुलाइडिया (Argulidea)।

उपवर्ग : सिरीपीडिया-(Cirripedia)

गण : थोरैसिका (Thoracica), ऐक्रोथोरैसिका (Acrothoracica), ऐस्कोथोरैसिका (Ascothoracica), एपोडा (Apoda)तथा रोइज़ोसेफ़ाला (Rhizocephala)।

उपवर्ग : मेलाकॉस्ट्राका-(Malacostraca)

विभाग : फ़िल्लोकेरीडा (Phyllocarida)-गण : निबेंलिएशि (Nebaliacea)

विभाग : सिंकेरिडा (Syncarida)-गण : ऐनैसपिडेशिया (Anaspidacea)

विभाग : पेराकैरिडा (Peracarida)-गण : माइसिडेशिया (Mysidacea), कुमेसिया (Cumacea), टैनाइडेशिया (Tanaidacea), आइसोपोडा (Isopoda) तथा ऐंफ़िपोडा (Amphipoda)।

विभाग : यूकेरीडा (Eucarida)-गण : युफ़ॉसिएशिया (Euphausiacea) तथा डेकापोडा (Decapoda)।

विभाग : हॉप्लोकेरीडा (Hoplocarida)-गण : स्टोमैटोपोडा (Stomatopoda)।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

“खण्ड 2”, हिन्दी विश्वकोश, 1975 (हिन्दी), भारतडिस्कवरी पुस्तकालय: नागरी प्रचारिणी सभा वाराणसी, 370-376।