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गोदान हिंदू धर्म में गाय की महिमा सर्वातिशायिनी है। गाय हिंदू संस्कृति की प्रतीक है। वह निर्बल, दीन हीन जीवों का प्रतिनिधान करने के अतिरिक्त स्वयं सरलता, शुद्धता और सात्विकता की मूर्ति है। हिंदुओं की पवित्र भावनाओं का संबंध गाय से साक्षात्‌ रूप से है। जिस समाज में बैठकर रसिकजन साहित्यचर्चा करते हैं और काव्यालाप से आनंद उठाते हैं, वह गाय के ही अभिधान पर 'गोष्ठी' कहलाता है। भगवान्‌ का सर्वोच्च नित्यलीलाधाम भी गो से संबद्ध होकर 'गोलोक' कहलाता है। इतना ही नहीं, जगत्‌ का रक्षक तथा त्रिभुवन को तीन डगों में मापनेवाला विष्णु भी गोपा के नाम से अभिहित किया जाता है- विष्णुगोंपा अदाभ्य:।
 
वैदिक काल में ऋत्विजों को यज्ञ की मूर्ति के अवसर पर दक्षिणा में गोदान देने का ही विधान था। यह विधान इतना लोकप्रिय तथा बहुश: प्रचलित था कि 'दक्षिणा' शब्द से गो का अभिधान सर्वत्र साहित्य में मान्य होने लगा। कठोपनिषद् के आरंभ में वृद्धा गायों को दक्षिणारूप से दिए जाने के अवसर पर नचिकेता के हृदय में श्रद्धा के प्रवेश का जहाँ उल्लेख मिलता है, वहाँ 'दक्षिणा' शब्द का ही प्रयोग हम पाते हैं (दक्षिणासु नीयमानासु श्रद्धा तमाविवेश)। शास्त्रार्थ में विजय पानेवाले विद्वान्‌ का सम्मान गोदान के ही द्वारा किया जाता था। बृहदारण्यक उपनिषद् में राजा जनक के द्वारा आहूत शास्त्रार्थ में विजयी को सैकड़ों स्वर्णमंडित सींगोंवाली गायों के दान का वर्णन उपलब्ध होता है। तथ्य तो यह है कि वैदिक युग में गाय ही व्यवहार में लेन-देन का, आदान-प्रदान का मुख्य माध्यम थी। इसका परिचय भाषाशास्त्र से पूर्णतया मिलता है। अंग्रेजी भाषा का धन सूचक 'पिकुनिअरी' शब्द लातीनी भाषा के 'पेकुस्‌' (Pecus) शब्द से निकला है जे संस्कृत के 'पशु' (पशु:, पशुम्‌) से सीधा संबंध रखता है। ध्यान देने की बात है कि 'पशु' गाय का वाचक शब्द है। फलत: मुद्रा का प्रचार होने से पहिले गाय ही इस कार्य का संपादन करती थी। इसलिये उस युग में गोदान का व्यावहारिक महत्व पर्याप्त रूप से था।
 
धीरे धीरे गोदान के साथ पुण्यसंभार तथा पुण्यसंचयन का पूर्णतया संबंध हो गया। कृषिजीवी समाज के लिये गाय नितांत आवश्यक उपादान तो थी ही, पवित्र पशु होने के हेतु उसका दान भी पुण्यदायक कार्य समझा जाने लगा। धर्मशास्त्रों के युग में इसीलिये गोदान की भूयसी महिमा उपलब्ध है। गाय का दान अत्यंत पुण्य साधन समझा जाने लगा। ऐसी कोई याज्ञिक विधि पूर्णत: सफल नहीं समझी जाती, जब तक उसमें गाय का दान न हो। दान के समय गाय की सींग को सोने से तथा उसके खुर को चाँदी से मढ़ते थे तथा उसकी देह पर बहुमूल्य रेशमी वस्त्र का आवरण डालते थे। बछड़े के साथ गाय (सवत्सा धेनु) के दान की विशेष महिमा धर्मसूत्रों, धर्मशास्त्रों तथा पुराणों में बतलाई गई है। सद्य:प्रसूता धेनु का दान तो और भी अधिक पुण्यदायक माना जाता था और आज भी यही विधि विधान जागरूक है। ग्रहण के अवसर पर गोदान अत्यंत आवश्यक विधि है। गृह्य विधान तथा श्रौत विधान की समग्रता गोदान के बिना पूर्णतया निर्वाहित नहीं होती। मृत्युशय्या पर पड़े हिंदू के लिये यमलोक की विषम वैतरणी को पार करने के निमित्त गाय का दान आज भी अनिवार्य रूप से आवश्यक अनुष्ठान है।
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
<references/>
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१२:०१, ६ अगस्त २०११ के समय का अवतरण

लेख सूचना
गोदान
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 4
पृष्ठ संख्या 21
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक फूलदेव सहाय वर्मा
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1964 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक बलदेव उपाध्याय

गोदान हिंदू धर्म में गाय की महिमा सर्वातिशायिनी है। गाय हिंदू संस्कृति की प्रतीक है। वह निर्बल, दीन हीन जीवों का प्रतिनिधान करने के अतिरिक्त स्वयं सरलता, शुद्धता और सात्विकता की मूर्ति है। हिंदुओं की पवित्र भावनाओं का संबंध गाय से साक्षात्‌ रूप से है। जिस समाज में बैठकर रसिकजन साहित्यचर्चा करते हैं और काव्यालाप से आनंद उठाते हैं, वह गाय के ही अभिधान पर 'गोष्ठी' कहलाता है। भगवान्‌ का सर्वोच्च नित्यलीलाधाम भी गो से संबद्ध होकर 'गोलोक' कहलाता है। इतना ही नहीं, जगत्‌ का रक्षक तथा त्रिभुवन को तीन डगों में मापनेवाला विष्णु भी गोपा के नाम से अभिहित किया जाता है- विष्णुगोंपा अदाभ्य:।

वैदिक काल में ऋत्विजों को यज्ञ की मूर्ति के अवसर पर दक्षिणा में गोदान देने का ही विधान था। यह विधान इतना लोकप्रिय तथा बहुश: प्रचलित था कि 'दक्षिणा' शब्द से गो का अभिधान सर्वत्र साहित्य में मान्य होने लगा। कठोपनिषद् के आरंभ में वृद्धा गायों को दक्षिणारूप से दिए जाने के अवसर पर नचिकेता के हृदय में श्रद्धा के प्रवेश का जहाँ उल्लेख मिलता है, वहाँ 'दक्षिणा' शब्द का ही प्रयोग हम पाते हैं (दक्षिणासु नीयमानासु श्रद्धा तमाविवेश)। शास्त्रार्थ में विजय पानेवाले विद्वान्‌ का सम्मान गोदान के ही द्वारा किया जाता था। बृहदारण्यक उपनिषद् में राजा जनक के द्वारा आहूत शास्त्रार्थ में विजयी को सैकड़ों स्वर्णमंडित सींगोंवाली गायों के दान का वर्णन उपलब्ध होता है। तथ्य तो यह है कि वैदिक युग में गाय ही व्यवहार में लेन-देन का, आदान-प्रदान का मुख्य माध्यम थी। इसका परिचय भाषाशास्त्र से पूर्णतया मिलता है। अंग्रेजी भाषा का धन सूचक 'पिकुनिअरी' शब्द लातीनी भाषा के 'पेकुस्‌' (Pecus) शब्द से निकला है जे संस्कृत के 'पशु' (पशु:, पशुम्‌) से सीधा संबंध रखता है। ध्यान देने की बात है कि 'पशु' गाय का वाचक शब्द है। फलत: मुद्रा का प्रचार होने से पहिले गाय ही इस कार्य का संपादन करती थी। इसलिये उस युग में गोदान का व्यावहारिक महत्व पर्याप्त रूप से था।

धीरे धीरे गोदान के साथ पुण्यसंभार तथा पुण्यसंचयन का पूर्णतया संबंध हो गया। कृषिजीवी समाज के लिये गाय नितांत आवश्यक उपादान तो थी ही, पवित्र पशु होने के हेतु उसका दान भी पुण्यदायक कार्य समझा जाने लगा। धर्मशास्त्रों के युग में इसीलिये गोदान की भूयसी महिमा उपलब्ध है। गाय का दान अत्यंत पुण्य साधन समझा जाने लगा। ऐसी कोई याज्ञिक विधि पूर्णत: सफल नहीं समझी जाती, जब तक उसमें गाय का दान न हो। दान के समय गाय की सींग को सोने से तथा उसके खुर को चाँदी से मढ़ते थे तथा उसकी देह पर बहुमूल्य रेशमी वस्त्र का आवरण डालते थे। बछड़े के साथ गाय (सवत्सा धेनु) के दान की विशेष महिमा धर्मसूत्रों, धर्मशास्त्रों तथा पुराणों में बतलाई गई है। सद्य:प्रसूता धेनु का दान तो और भी अधिक पुण्यदायक माना जाता था और आज भी यही विधि विधान जागरूक है। ग्रहण के अवसर पर गोदान अत्यंत आवश्यक विधि है। गृह्य विधान तथा श्रौत विधान की समग्रता गोदान के बिना पूर्णतया निर्वाहित नहीं होती। मृत्युशय्या पर पड़े हिंदू के लिये यमलोक की विषम वैतरणी को पार करने के निमित्त गाय का दान आज भी अनिवार्य रूप से आवश्यक अनुष्ठान है।

टीका टिप्पणी और संदर्भ