"पक्षी": अवतरणों में अंतर
[अनिरीक्षित अवतरण] | [अनिरीक्षित अवतरण] |
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) छो (Adding category Category:प्राणि विज्ञान (को हटा दिया गया हैं।)) |
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) No edit summary |
||
(इसी सदस्य द्वारा किया गया बीच का एक अवतरण नहीं दर्शाया गया) | |||
पंक्ति १: | पंक्ति १: | ||
{{भारतकोश पर बने लेख}} | |||
{{लेख सूचना | {{लेख सूचना | ||
|पुस्तक नाम=हिन्दी विश्वकोश खण्ड 7 | |पुस्तक नाम=हिन्दी विश्वकोश खण्ड 7 | ||
पंक्ति १८१: | पंक्ति १८२: | ||
[[Category:पक्षी]] | [[Category:पक्षी]] | ||
[[Category:प्राणि विज्ञान]] | [[Category:प्राणि विज्ञान]] | ||
[[Category:हिन्दी विश्वकोश]] | |||
__INDEX__ | __INDEX__ |
११:०२, २६ अक्टूबर २०१४ के समय का अवतरण
चित्र:Tranfer-icon.png | यह लेख परिष्कृत रूप में भारतकोश पर बनाया जा चुका है। भारतकोश पर देखने के लिए यहाँ क्लिक करें |
पक्षी
| |
पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 7 |
पृष्ठ संख्या | 41-49 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | शशिधर सिंह |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
पक्षी रीढ़धारी जंतुओं का एक वर्ग है, जिसमें एक हजार प्रजातियाँ पाई जाती हैं। पक्षियों की शारीरिक रचना उड़ने के लिए विशेष रूप से उपयुक्त होती है। पक्षी को संक्षेप में 'परयुक्त द्विपाद' कहते हैं। पक्षियों का शरीर कोमल परों से ढका रहता है, लेकिन यह असंवाही होते हैं और शरीर की गर्मी को बाहर नहीं निकलने देते। पक्षियों की आगे की टाँगें पंखों में परिवर्तित होकर पक्षियों को उड़ने में मदद करती हैं। इस कारण इन्हें दो टाँगवाले, अर्थात् द्विपाद जंतु कहते हैं। इनकी पिछली टाँगों में से प्रत्येक में चार नखरयुक्त पदांगुलियाँ होती हैं। इनकी टाँगें शल्कों से ढकी रहती हैं और विभिन्न प्रकार के पक्षियों में परिवर्तित होकर चलने, दौड़ने, फुदकने, डालों पर बैठने तथा पानी में तैरने के लिए उपयुक्त होती हैं।
पक्षियों के शरीर पर ताप स्थिर रहता है और इस पर वातावरण के ताप का कोई असर नहीं पड़ता, अर्थात ये उष्णरक्तीय अथवा अल्पतापजीवी जंतु हैं। इनके शरीर का ताप (38° से 44° सेंटीग्रेड तक) अन्य सभी जंतुओं के ताप की अपेक्षा अधिक होता है। इनका सिर गोल, गर्दन लंबी और पूँछ छोटी होती है। जबड़े दंतविहीन और चोंच के रूप में रहते हैं, जो शल्की छाद से ढँके रहते हैं। चोंच से ये सभी काम करते हैं। ये अंडज होते हैं।
पक्षियों की उड़ान
पक्षियों में उड़ने की शक्ति इनकी सबसे बड़ी विशेषता है। शुतुरमुर्ग, एमू, कीवी, रीह आदि दौड़नेवाले पक्षी हैं। ये उड़ नहीं सकते। पेंग्विन पानी में तैरने वाले पक्षी हैं। ये अपनी उड़ने की शक्ति खो चुके हैं। इन पक्षियों के पंख छोटे होते हैं और दौड़ते या तैरते समय केवल शरीर का संतुलन कायम रखते हैं। इनके अतिरिक्त अन्य सभी पक्षी उड़ सकते हैं।
उड़ने वाली चिड़ियों की शारीरिक रचना उड़ने के लिए विशेष रूप से उपयुक्त होती है। इनका शरीर नौकाकार होता है, जिससे हवा में उड़ते समय रुकावट कम हो। इनके पंख शक्तिशाली, लचीले तथा हलके होते हैं। पंख के वक्ष के ऊपरी भाग से जुड़े रहने, फेफड़े तथा वायुस्यूनिकाओं आदि हलके अंगों का शरीर के ऊपरी भाग में स्थित होने और मांसपेशियों, उरोस्थि तथा आहारनाल आदि भारी अंगों के शरीर के निचले भाग में स्थित होने से शरीर का गुरुत्वाकर्षण केंद्र मध्य में रहता है। इससे शरीर का संतुलन कायम रहता है और शरीर उलटने नहीं पाता। उड़ने वाली चिड़ियों में उड़ान पेशियाँ, विशेष रूप से अंस पेशियाँ बहुत बड़ी होती हैं। अंसपेशियाँ एक ओर उरोस्थि के पठाण से और दूसरी ओर पंख से जुड़ी रहती हैं। इन पेशियों से पंख में गति होती है और चिड़ियों को उड़ने के लिए शक्ति मिलती हैं। इन पेशियों के अति विकसित होने के कारण ही चिड़ियाँ उड़ने में थकतीं नहीं हैं।
उड़ान का प्रक्रम
पक्षी पंखों के बलशाली न्याघात के कारण उड़ता है। न्याघात में जब पंख ऊपर से नीचे की ओर आता है तो हवा पर दबाव बढ़ जाता है। इस बढ़े हुए दबाव के कारण पक्षी ऊपर उठ जाता है। यह इसलिए संभव होता है कि न्याघात के समय पंख के सभी पर आपस में मिलकर एक ऐसी अविरत सतह बनाते हैं जो वायुरुद्ध होती है। उदाधात के समय पंख के पर एक दूसरे से अलग हो जाते हैं, जिससे हवा इनके बीच से ऊपर की ओर निकल जाती है। इस कारण उदाघात के समय चिड़ियों के शरीर पर नीचे की ओर कोई दबाव नहीं पड़ता। उड़ते समय चिड़ियाँ पंख को सीधे ऊपर नीचे नहीं मारतीं, वरन क्रम से आगे, नीचे तथा पीछे (न्याघात) और ऊपर की ओर (उदाघात) उसी प्रकार गोलाकार घुमाती हैं जैसे कोई तैराक तैरने के समय पानी में अपने हाथ को घुमाता है। इसी कारण चिड़ियाँ हवा में ऊपर उड़ती हैं और आगे बढ़ती हैं। पक्षी की दुम उड़ने में पतवार तथा ब्रेक का काम करती है। स्टियरिंग के समय पक्षी एक पंख को दूसरे की अपेक्षा अधिक चलाता है। पंखों का न्याघात तथा उदाघात अंसपेशियों के कारण होता है, जो बहुत ही बड़ी और विकसित होती हैं।
विसर्पण
साधारण उड़ान के अतिरिक्त पक्षी विसर्पण भी करता है। जब पक्षियों के उड़ान में पर्याप्त गति आ जाती है, तब वे कुछ देर के लिए पंख का फड़फड़ाना बंद कर सिर्फ उन्हें फैलाकर उड़ते रहते हैं, या जब ये काफ़ी ऊँचाई पर पहुँच जाते हैं तो जमीन पर उतरने के लिए पंख बिलकुल नहीं चलाते। पंख को बिना फड़फड़ाए उड़ने की क्रिया को विसर्पण कहते हैं। चील तथा कुछ अन्य चिड़ियाँ आकाश में काफ़ी ऊँचाई पर पंख को सिर्फ फैलाकर (बिना फड़फड़ाए) बड़े वृत्ताकार पथ पर चक्कर काटती हैं और प्रत्येक चक्कर के साथ ऊपर उठती जाती हैं। ऐसी उड़ान को मँडराना कहते हैं।
उड़ान का वेग
पक्षियों के उड़ानवेग में काफ़ी अंतर होता है। विमानों के द्वारा पक्षियों की चाल का ठीक-ठीक अनुमान है, कि छोटी गाने वाली चिड़ियाँ 20 से 36 मील प्रति घंटे की गति से उड़ती हैं, कौआ 31 से 45 मील, बत्तख 44 से 59 मील, टिटिभा औसत 50 मील और टिट्टिभ 40 से 51 मील प्रति घंटे की गति से उड़ते हैं। विशेष परिस्थिति में बत्तख 90 मील प्रति घंटे तक उड़ सकती है। ऊँचाई से जमीन पर एकाएक उतरने में बाज की गति 165 से 180 मील प्रति घंटे की होती है। कुछ पक्षियों में विशेष परिस्थितियों में 200 मील प्रति घंटे तक की गति देखी गई है। गौरैया आदि पक्षियों की उड़ान की रफ्तार अपेक्षाकृत बहुत कम होती है।
उड़ान का उपयोगिता
उड़ने की शक्ति से पक्षियों को बहुत लाभ है। इससे वे अपनी रक्षा आसानी से कर लेते हैं। वे अपना घोंसला सुरक्षित स्थानों पर बनाते हैं, जहाँ शत्रुओं की पहुँच नहीं हो सकती। ये अपने भोजन और जल की खोज में दूर-दूर तक आसानी से आ जा सकते हैं। इसलिए मनचाहे सुविधाजनक स्थानों में रह सकते हैं। जाड़े से बचने के लिए ये जाड़ा आने पर प्रवाजन कर गमर देशों में चले जाते हैं, जिससे इनके लिए वर्ष में दो ग्रीष्म ऋतुएँ होती हैं और इनके दो घर हो जाते हैं। इस प्रकार पक्षी रातोंरात अपने लिए ऋतुपरिवर्तन कर लेते हैं। उत्तम भोजन से पूर्ण स्थानों तथा अभिजनन क्षेत्रों का चुनाव करने में पक्षियों को कोई नष्ट नहीं होता।
उड़ान का उद्भव
उड़ान के उद्भव का प्रश्न पक्षियों की उत्पत्ति से संबंधित है। पक्षियों की उत्पत्ति सरीसृपों से मानी जाती है। ऐसा अनुमान किया जाता है कि सरीसृपों को दुश्मनों से बचने के लिए मज़बूर होकर दो टाँगों पर भागना पड़ा होगा, ठीक उसी तरह जिस तरह आस्ट्रेलिया की एक जाति की छिपकली जल्दी के कारण पिछली दोनों टाँगों पर खड़ी होकर भागती है। भागने में वे अपनी बाहों को भी तेजी से चलाते रहें होंगे। इस प्रक्रिया में धीरे-धीरे उनकी अगली टाँगों ने पंखों का रूप धारण कर लिया होगा और उनके पंख तथा शरीर पर स्थित शल्क परों में परिवर्तित हो गए होंगे। इस अनुमान के कई आधार हैं। 'आरकिऑप्टेरिक्स' एक लुप्त पक्षी है, जिसमें छिपकली की तरह लंबी पूँछ तथा जबड़ों में दाँत, पक्षियों की तरह दो पंख होते थे और शरीर परों से ढका था। आधुनिक सरीसृपों और पक्षियों की संरचनाओं में भी बहुत कुछ समानता है और इनके विकास भी एक तरह से ही होते हैं। इस क्रमिक विकास में हज़ारों वर्ष में लग गए होंगे।
पर
पक्षियों का सारा शरीर परों से ढँका रहता है। पर सिर्फ पक्षियों में पाए जाते हैं, अन्य किसी प्राणी में नहीं। सरीसृपों के शल्क तथा पर का विकास एक सदृश होता है। वर्तमान प्राप्त तथ्यों के आधार पर यह अनुमान किया जाता है कि सरीसृप के शल्कों के क्रमिक विकास से ही परों का निर्माण हुआ, किंतु दोनों रचनाओं के बीच की संयोजक कड़ियाँ नहीं मिलतीं। इसके अतिरिक्ति सरीसृप के त्वचानिर्मोचन से सिर्फ बाह्य त्वचा का सबसे बाहरी मृत स्तर गिरता है, जबकि पक्षियों के परनिर्मोचन में संपूर्ण 'पर' ही गिर पड़ता है। इस प्रकार 'पर' एक अपूर्व रचना है, जिसका विकास अस्पष्ट है।
परों की संरचना
पक्षियों में चार तरह के पर मिलते हैं
- छादनपिच्छ
- कोमलपिच्छ
- रोमपिच्छ
- शूकापिच्छ
- छादनपिच्छ
छादनपिच्छ समूचे शरीर, गर्दन तथा पंखों को ढँके रहते हैं और पक्षियों के शरीर की रूपरेखा बनाते हैं। ये प्राय: भड़कीले रंग के होते हैं और पंखों तथा पूँछ की बाह्य रेखा पर विशेष रूप से बड़े होते हैं। छादनपिच्छ के तीन भाग होते हैं :
- समीपस्थ खोखला वृंत- जिसे कैलामस या क्विल कहते हैं।
- दूरस्थ चादर जैसी चपटी रचना- जिसे पिछच्फलक या ध्वजक कहते हैं।
- पिच्छफलक का ठोस तथा कठोर केंद्रीय अक्ष- जिसे पिच्छाक्ष या रेचिस कहते हैं।
कैलामस खोखला वृंत है, जिसका आधार त्वचा में धँसा रहता है। कैलामस के आधार पर एक छोटा छिद्र होता है, जिसे अधर पिच्छछिद्र कहते हैं। इस छिद्र में त्वचा का एक उभार, पर का पैपिला घुसा रहता है। रक्तवाहिनियाँ तथा तंत्रिकातंतु इस छिद्र से होकर कैलामस में प्रवेश करते हैं, जिनसे पोषण मिलने पर ये बढ़ते हैं। कैलामस के ऊपरी सिरे के पास अधरतल पर एक अत्यंत ही छोटा छिद्र होता है, जिसे ऊर्ध्व पिच्छछिद्र कहते हैं। इस छिद्र का कोई महत्व नहीं होता, सिवा इसके कि इससे होकर कभी-कभी परजीवी अंदर घुस जाते हैं। इस छिद्र के पास ही केश सदृश बाह्य वर्धन का एक गुच्छा होता है, जिसे पश्च पिच्छाक्ष या गौण पिच्छाक्ष कहते हैं। एमू तथा कसोवरी में प्रश्च पिच्छाक्ष फलक सदृश तथा इतने लंबे हो जाते हैं कि प्रत्येक छादनपिच्छ दो पिच्छफलक का बना प्रतीत होता है। पिच्छाक्ष कैलामस का ही दूरस्थ विस्तर हैं, जो पिच्छफलक का ठोस तथा कठोर केंद्रीय अक्ष बनाता है। यह धीरे-धीरे दूरस्थ छोर की ओर पतला होता जाता है। प्राय: इसके अधरतल पर एक खाई होती है। पिच्छाक्ष के प्रत्येक पार्श्व से डोरे के आकार के समांतर पिच्छदंडों की कतार निकलती है। प्रत्येक पिच्छदंड से आगे और पीछे की ओर लघु पिच्छदंडिकाएँ जुड़ी रहती हैं, जिनमें छोटे-छोटे काँटे होते हैं। एक पिच्छदंड के अगले पिच्छदंडिका के काँटे दूसरे पिच्छ की पिछली पुच्छदंडिक के काँटों से फँसे रहते हैं। इस तरह सभी पुच्छदंडिकाएँ काँटों के सहारे जुड़कर वायुरुद्ध पिच्छफलक का निर्माण करती हैं।
- कोमलपिच्छ
कोमलपिच्छ छादनपिच्छ से बहुत छोटे होते हैं और उन्हीं से ढँके रहते हैं। ये त्वचा के पास ही फैले रहते हैं। इस पर में एक छोटा तथा बहुत ही कोमल पिच्छाक्ष होता है, जिससे बहुत से पिच्छदंड निकलते हैं। पिच्छदंडों में छोटी-छोटी पिच्छदंडिकाएँ होती हैं, जिनमें काँटे नहीं होते। अत: पिच्छफलक का निर्माण नहीं होता। शिशु पक्षियों का शरीर कोमलपिच्छ से ही ढँका रहता है। ये शरीर की गर्मी को बाहर न निकलने देने में छादनपिच्छों की सहायता करते हैं।
- रोमपिच्छ
रोमपिच्छ केश सदृश होते हैं और छादनपिच्छ के आधार के पास त्वचा से निकलते हैं। प्रत्येक में एक लंबा सूत्राकार तथा कोमल पिच्छाक्ष होता है, जिसके शिखर पर कुछ दुर्बल पिच्छदंड तथा पिच्छदंडिकाएँ होती हैं। इसका कार्य अज्ञात है।
- शूकापिच्छ
कुछ पक्षियों में कुछ केश सदृश पर मिलते हैं, जिन्हें शूकापिच्छ कहते हैं। यह 'पर' का रूपांतरित रूप है। प्रत्येक में एक छोटा कैलामस तथा एक लंबा पिच्छाक्ष होता है। पिच्छाक्ष के आधार पर कुछ छोटे-छोटे पिच्छदंड होते हैं। ये ह्विप्पूर विल्स तथा पतिरंग पक्षियों के चोंच के आधार के पास मिलते हैं।
- पिच्छक्षेत्र और अपिच्छक्षेत्र
'पर' शरीर के निश्चित क्षेत्रों में ही सजे रहते हैं, जिन्हें पिच्छक्षेत्र कहते हैं। पिच्छक्षेत्र के बीच-बीच की खाली सतहों को अपिच्छक्षेत्र कहते हैं।
प्रीन या तैलग्रंथि
पक्षियों में त्वचीय ग्रंथियों का अभाव होता है सिवाय एक तैलग्रंथि के, जो पूँछ के उद्भव स्थान के समीप पृष्ठतल पर स्थित रहती है। इस ग्रंथि से तेल की तरह का एक स्राव निकलता है, जिससे चोंच मुलायम रहती है। पक्षी इस स्राव को चोंच से परों में लगाकर उन्हें चिकना तथा जलाभेद्य रखते हैं। शुतुरमुर्ग, कुछ तोतों तथा बैस्टार्ड में तैलग्रंथि नहीं पाई जाती।
परों का विकास
परों का विकास त्वचीय अंकुरक से शुरु होता है। इस अंकुरन की बाहरी सतह बांह्य त्वचा, या एपिडर्मिस की बनी होती है और इसके नीचे चर्मकोशिकाओं का एक समूह होता है। इस अंकुरन को परकलिका कहते हैं। इस अंकुरन के चारों तरफ की त्वचा धँसकर खाई बना लेती है जो परविकास के साथ साथ गहरी होकर परपुटक बनाती है। परपुटक के पर के कैलामस धँसे रहते हैं। परकलिका की बाह्य त्वचा में दो स्तर होते हैं :
- बाहरी शल्कस्तर
- भीतरी मेलपीगीय स्तर
- शल्कस्तर
शल्कस्तर बढ़ते हुए 'पर' के ऊपर एक खोल बनाकर उसकी रक्षा करता है।
- मैलपीगीय स्तर
मैलपीगीय स्तर की कोशिकाएँ बहुत शीघ्रता से विभाजित होकर पर के सभी भागों का निर्माण करती हैं। ये कोशिकाएँ विभाजित होकर सर्वप्रथम कोशिकाओं का एक स्तंभ बनाती हैं। इस स्तंभ के ऊपरी भाग में कई कटक बन जाते हैं, जो एक दूसरे से अलग होकर पिच्छदंड बनाते हैं। बीच के दो पिच्छदंड जुड़कर पिच्छाक्ष बनाते हैं। अन्य सभी पिच्छदंडों में पिच्छदंडिक तथा पिच्छकाप्रवर्ध का निर्माण हो जाता है, जिससे फलक बन जाता है। त्वचीय अंकुरक का चर्म भाग, जिसमें रक्तवाहिनियाँ भी रहती हैं, बाह्य त्वचा की विभाजित होनेवाली कोशिकाओं को सिर्फ पोषण प्रदान करता है और 'पर' की पूर्ण वृद्धि होने पर सूख जाता है। इस प्रकार 'पर' का निर्माण सिर्फ बाह्य त्वचा से होता है। 'पर' के विकासकाल में त्वचीय कोशिकाओं में रंगकणिकाओं के जमा होने से 'पर' के भिन्न भिन्न रंग होते हैं। विकास पूर्ण हो जाने पर बाह्य त्वचीय खोल फट जाता है और पूर्ण रूप से फैल जाता है।
परनिर्मोचन
पक्षियों में प्रत्येक वर्ष या कुछ कम या अधिक समय में पुराने 'पर' गिर पड़ते हैं और नए 'पर' उग आते हैं। 'पर' के गिरने की क्रिया को निर्मोचन कहते हैं। इस निर्मोचन की तुलना सरीसृपों के शल्कनिर्मोचन और स्तनियों के बालों के निर्मोचन से की जाती है। परनिर्मोचन साधारणत: ग्रीष्म ऋतु में होता है, क्योंकि वसंत ऋतु में, जो पक्षियों की प्रजनन ऋतु है, परों पर बहुत आघात होता है। किंतु कुछ पक्षियों में परनिर्मोचन जाड़े में भी होता है। सतह पर होने के कारण परों पर बहुत आघात होता है। इसलिए आवर्ती निर्मोचन बहुत ही लाभदायक है, विशेषकर उस समय जब चिड़ियाँ अपनी लंबी उड़ान के लिए तैयार होती हैं। प्राय: सभी पर एक साथ ही नहीं गिरते, अर्थात् उनका आंशिक निर्मोचन होता है, विशेषकर उड्डयन परों का, जिससे पक्षियों को उड़ने में कोई कठिनाई न हो। किंतु हंस, बत्तख आदि में निर्मोचन पूर्ण होता है। बहुत से पक्षियों के नर मादा को रिझाने के लिए संभोग ऋतु के पहले आंशिक या पूर्ण निर्मोचन कर सुंदर पर धारण कर लेते हैं। टारमिगन, जो तीतर की तरह का एक पक्षी है, वर्ष में तीन बार परनिर्मोचन करता है। इसके पर जनन ऋतु के बाद धूंसर रंग के होते हैं, ठीक पत्थर की तरह, जिनके बीच यह रहता है, शीत ऋतु में श्वेत अर्थात् बर्फीले रंग के, क्योंकि इसके ईद गिर्द तब रहती है और संभोग ऋतु में सुंदर चित्तीदार भूरे रंग के हो जाते हैं।
परों का महत्व
- पर समूचे शरीर पर असंवाहक आवरण बनाता है जिससे शरीर की गर्मी बाहर नहीं जा सकती।
- पर जलाभेद्य होता है, जिससे शरीर पर जल टिकने नहीं पाता।
- डैने तथा पूँछ के पर उड़ने तथा दिशानियंत्रण में मदद करते हैं।
- अनुकूल रंग के पर पक्षी अपने वातावरण में छिपा लेता है, जिससे यह शत्रु तथा शिकार को धोखा दे सकता है।
- कुछ दुर्बल पक्षी परों की मदद से किसी सबल पक्षी का अनुहरण कर अपने को शत्रु से बचाते हैं।
- बत्तख आदि कुछ पक्षी पर का व्यवहार घोंसला बनाने में करते हैं।
- परों की मदद से पक्षी अपने सगे संबंधियों को पहचानता है।
- पर अपने नीचे गरम हवा को घेरे रहते हैं, जो गर्मी के कुचालक होने के साथ साथ उत्प्लावन भी होती है। इससे पक्षी का शरीर कुछ हलका हो जाता है और इस प्रकार उड़ने में कुछ सहायता मिल जाती है।
कंकालीय अनुकूलन
पक्षियों के कंकाल में बहुत सी विशेषताएँ मिलती हैं। ये विशेषताएँ मुख्यत: इनकी उड़ने की आदत, द्विपादीय संचलन और कैल्सियमी कवच से ढके बड़े-बड़े अंडों के बाहर निकलने से संबंधित हैं। ये विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
अस्थियों का हलकापन
पक्षियों में उड़ने के लिए हड्डियाँ हलकी होती हैं, जिनके अग्रलिखित कारण हैं-
- लंबी हड्डियों की मज्जक या मज्जा गुहाएँ बड़ी होती हैं और प्रौढ़ावस्था में उनमें प्राय: मज्जा नहीं रहती
- अधिकतर हड्डियों में वायुगुहाएँ होती हैं। खोपड़ी की हड्डियों की वायुगुहाएँ नासागुहा तथा श्रवणमार्ग से जुड़ी रहती हैं और शेष हड्डियों की वायुगुहाएँ फेफड़े से जुड़ी रहती हैं।
- हड्डियाँ ठोस तथा कठोर अंतस्त्वचिका से घिरी रहती हैं, किंतु अंतस्त्वचिका के नीचे स्पंज की तरह स्पंजी अस्थि ऊतक से बनी होती हैं खाली जगहों में हवा भरी रहती है। इस प्रकार हड्डियाँ 'खोखली मेखला सिद्धांत' पर बनी होती हैं, जिससे ये हलकी होने के साथ-साथ दृढ़ भी होती हैं और मांसपेशियों को जुड़ने के लिए अपेक्षाकृत अधिक सतह प्रदान करती हैं।
अस्थियों का संयोजन
पक्षियों में बनने के समय ही निकटवर्ती अस्थियों की आपस में जुड़ने की प्रवृत्ति होती है। इस तरह प्रौढ़ पक्षी में बहुत सी हड्डियाँ आपस में जुड़ी पाई जाती हैं।
- दौड़ने वाले पक्षियों को छोड़कर अन्य सभी पक्षियों में खोपड़ी की हड्डियाँ एक दूसरी से जुड़ी रहती हैं, जिससे हलके किंतु दृड़ अस्थिकोश का निर्माण होता है। इससे काठफोड़वा को काठ छेदने और गिद्ध, चील, उल्लू, बाज, शिकारा आदि शिकारी पक्षियों को शिकार को चीरने फाड़ने में मदद मिलती है।
- उड़ने वाले पक्षियों में वक्षीय कशेरुक आपस में जुड़कर डैनों के न्याघात के लिए दृढ़ आधार प्रदान करते हैं। दौड़नेवाले पक्षियों में ये अलग अलग रहते हैं।
- अंतिम वक्षीय कशेरुक, सभी (सात या आठ) कटि कशेरुक, दो सेक्रमी कशेरुक तथा अगले पाँच या छह पुच्छ कशेरुक जुड़कर एक ठोस तथा कार्यक्षम रचना बनाते हैं, जिसे संत्रिक कशेरुक कहते हैं। संत्रिक कशेरुक श्रोणी मेखला को सँभाले रहती है, जिससे पिछली टाँगें लगी रहती हैं। इस प्रबंध के कारण समूचे शरीर का भार पिछली टाँगें पर संतुलित रहता है। यह द्विपादीय संचलन के लिए आवश्यक है।
- उड़ने वाले पक्षियों में अंतिम चार या कुछ अधिक पुच्छकशेरुक जुड़कर फार जैसी अस्थि का निर्माण करते हैं, जिसे पाइगोस्टाइल कहते हैं। पाइगोस्टाइल पुच्छ परों के जुड़ने के लिए आधार प्रदान करते हैं।
- डैनों में दूरस्थ मणिबंधिकाएँ पहली, दूसरी तथा तीसरी करभिकाओं से जुड़कर मणिबंध करभिका नामक संयुक्त अस्थि का निर्माण करती हैं। पिछली टाँगों की हड्डियों के जुड़ने के संबंध में आगे वर्णन किया जायगा।
- दौड़नेवाले पक्षियों में अंसतुंड तथा स्कंधास्थि जुड़ी रहती हैं।
उड़ने के लिए अन्य अनुकूलताएँ
- उड़ने वाले सभी पक्षियों में उरोस्थि के अधरतल पर एक लंबा उर:कूट या कील होती है। इससे अंसीय पेशियाँ जुड़ी रहती हैं जो डैनों में न्याघात तथा उदाघात गति करने में मदद करती हैं। कीवी, एमू, आदि दौड़ने वाले पक्षियों में जिनमें पंख ह्रासित होते हैं और मांसपेशियाँ अल्प विकसित होती हैं, कील नहीं होती। उड़नेवाली चिड़ियों में आँत आदि अंगों को सहारा देने के लिए उरोस्थि बहुत पीछे तक फैली रहती है।
- अंसीय मेखला बड़ी और मज़बूत होती है, जिससे उडुयन पेशियों को जुड़ने के लिए पर्याप्त स्थान मिल जाता है। स्कंधास्थि खंगवत होती है और पसलियों तथा कशेरुक दंड से स्नायुओं द्वारा जुड़ी रहती है। अंसतुंड सुदृढ़ होता है और उरोस्थि के अगले सिरे पर उपस्ति खाई से जुड़ा रहता है। दोनों ओर के जत्रुक अधरतल पर एक दूसरे से मिलकर V के आकर की रचना बनाते हैं जिसे द्विशूल या फरकुला अथवा मेरी थॉट अस्थि कहते हैं। प्रत्येक पसली में पीछे की ओर मुड़ा हुआ एक अंकुशी प्रवर्ध होता है, जो पिछली पसली से स्नायु के जरिए जुड़ा रहता है। इस प्रकार वक्ष प्रदेश में कशेरुक दंड, उरोस्थित, पसलियों तथा अंस मेखला के द्वारा एक संयक्त लचीली रचना का निर्मण होता है, जिस पर पंख परम निपुणता में गति कर सकें। इसी रचना के कारण पंख की गति के समय हृदय पर कोई आघात नहीं पहुँचता और फेफड़े द्वारा श्वसन क्रिया के लिए वक्षगुहा घटती और बढ़ती रहती है।
- अन्य रीढ़धारी जंतुओं के विपरीत पक्षियों में पंख का उदाधात या ऊपर उठना अधर स्थित लघु अंसपेशी के कारण होता है। यह पेशी एक ओर उरोस्थि के कील से जुड़ी रहती है और दूसरी ओर प्रगंडिका के सिर के पृष्ठतल से एक लंबे कंडरा के सहारे जुड़ी रहती है। यह कंडरा अंसफलक, अंस तुंड तथा जत्रुक द्वारा बने हुए ट्राओसियम रध्रं से गुजरती है। यह रध्रं घिरनी के छिद्र की तरह काम करता है और जब लघु अंसपेशी सिकुड़ती है तो पंख ऊपर उठ जाता है।
- डैने की हडुियों के बीच बहुत कम गति होती है, जिससे वे हडुियाँ जिनपर पर लगे रहते हैं, संयुक्त रचना की तरह हवा के विरुद्ध काम करती हैं। इस तरह बहि:प्रकोष्ठिका (radius) अंत:प्रकोष्ठिका (ulna) के ऊपर गति नहीं करती और कलाई में सिर्फ दो स्वतंत्र मणिबंधिका हड्डियाँ मिलती हैं। दूरस्थ मणिबंधिका तथा करभिका जुड़कर एक ही हड्डी, मणिबंध करभिका बनाती है। चिड़ियाँ अपने डैनों को उड़ते समय संयुक्त रचना की तरह हवा के विरुद्ध काम में लाती हैं, किंतु आराम के वक्त उसे z की शक्ल में मोड़ लेत हैं जिससे उन्हें पानी में तैरने या घने घास पात से होकर गुजरने में आसानी होती है।
- खोपड़ी में सिर्फ एक अनुकपालमुंडिका (occipital condyle) होती है, जो प्रथम कशेरुक शीर्षधर (atlas) के साथ कंदुक-उलूखलसंधि (ball and socket joint) बनाती है। एक मुंडिका के कारण सिर को हिलने डुलने की अधिक स्वतंत्रता रहती है।
- भारी दंतयुक्त जबड़ों की जगह पक्षियों में हलकी दंतरहित शृंगी (horny) चोंच मिलती है।
- नेत्रकोटर (orbits) बहुत ही बड़े होते हैं जिनमें बड़ी आँखें स्थित रहती हैं।
- ग्रीवा (cervical) कशेरुकों की संख्या कभी 9 से कम नहीं होती और उनके सेंट्रा (centra) जीन के आकार के होते हैं। ग्रीवाकशेरुकों के बीच जीन सदृश संधियों के कारण उनके हिलने डुलने में काफी स्वतंत्रता रहती है। इस तरह पक्षी अपनी गर्दन को आसानी से सभी दिशाओं में घुमा सकता है, जिससे चोंच शरीर के सभी भागें तक पहुँच सकती है।
- पुच्छ कशेरुकाएँ संख्या में कम होती हैं, जिससे पूँछ छोटी होती है। छोटी पूँछ उड़ने में बाधा नहीं पहुँचाती।
द्विपादीय संचलन के लिए अनुकूलन
- संत्रिक कशेरुक के संबंध में पहले ही बताया जा चुका है। यह श्रोणिक मेखला को सँभाले रहता है, जिससे पिछली टाँगें समूचे शरीर के भार को सँभालती हैं।
- श्रोणिक मेखला लंबी होती है और इसकी हडुियाँ आपस में जुड़ी रहती हैं। श्रोणिउलूखल (acetabulum) निचली सतह पर होता है, जिसके फलस्वरूप पिछली टाँगें शरीर के गुरुत्वकेंद्र के ठीक नीचे आ जाती हैं। इस व्यवस्था से खड़े होते समय शरीर का संतुलन बना रहता है।
- पिछली टाँगे दौड़ने, तैरने, जमीन पर दबाव देकर ऊपर उठने, या एकाएक जमीन पर उतरने के लिए यथेष्ट विकसित होती हैं। इनकी हडुियाँ लंबी होती हैं। गुल्फ (tarsus) की हडुियाँ स्वतंत्र रूप से नहीं मिलती। समीपस्थ गुल्फ हडुियाँ टिबिया (tibia) से मिलकर टिबिया गुल्फ (tibio-tarsus) बनात हैं, जो लंबा तथा सीधा होता है। दूरस्थ (distal) गुल्फ हडुियाँ दूसरी, तीसरी तथा चौथी अनुगुल्फिकाओं (mesotarsals) से जुड़कर लंबी तथा सीधी हडुी का निर्माण करती हैं, जिसे गुल्फ प्रपदिका (Tarso-metatarsus) कहते हैं। इस तरह गुल्फ संधि (ankle-joint) समीपस्थ तथा दूरस्थ प्रगंडिका के बीच होती है। प्राय: प्रथम पादांगुलि पीछे की ओर झुकी रहती है और दूसरी, तीसरी तथा चौथी पादांगुलियाँ आगे की ओर, जिससे टहनियों को पकड़ने में मदद मिलती है। आरोही पक्षियों (climbing birds) में प्रथम तथा चौथी पादांगुलियाँ पीछे की ओर झुकी रहती हैं। पक्षियों में दोनों जघनास्थियाँ (pubis) एक दूसरे से अलग तथा दूर स्थित रहती हैं जिससे कैल्सियमी कवच से ढँके बड़े बड़े अंडे अंडवाहिनी (oviduct) से होकर आसानी से बाहर निकल सकें। इस प्रकार हम देखते हैं कि पक्षियों के कंकाल में बहुत ही अनुकूलताएँ मिलती हैं।
पेशीतंत्र
पक्षियों की मांसपेशियाँ भिन्न भिन्न कार्य करने के लिए अत्यधिक अनुकूल होती हैं। इनमें अनेक त्वचीय ग्रंथियाँ (cutaneous glands) होती हैं, जो परों को खड़ा करने तथा उन्हें फड़फड़ाने में सहायता करती हैं। गर्दन, पूँछ, डैंनों और टाँगों की पेशियाँ विशेष रूप से अधिक विकसित होती हैं।
उड़नेवाले पक्षियों में उडुयन पेशियाँ, विशेषत: अंसपेशियाँ बहुत बड़ी होती हैं। बृहत् अंस पेशी (pectoralis major) सबसे बड़ी मांस पेशी है। यह सारे वक्षस्थल पर फैली रहती है और समूचे शरीर के भार का भाग इसी का है। यह पेशी एक ओर उरोस्थि और उसके उर:कूट (keel) से जुड़ी रहती है और दूसरी ओर चौड़ी तथा चिपटी कंडरा प्रगंडिका (humerus) के अधरतल से जुड़ी रहती है। यह पेशी सिकुड़कर पंख को आगे, नीचे तथा पीछे की ओर ले जाती है, जिससे पक्षी ऊपर तथा आगे की ओर बढ़ता है। लघु अंसपेशी दूसरी पेशी है, जो पंख को ऊपर उठाती है। यह बृहत् अंसपेशी के नीचे स्थित होती है और उरोस्थि तथा उर:कूट के पार्श्व से लगी रहती है। यह बृहत् अंसपेशी से छोटी, किंतु लंबी, पेशी है। इसकी कंडरा लंबी होती है और ट्रायोसियम (triosseum) रध्रं होकर प्रगंडिका के पृष्ठतल से जुड़ी रहती है। यह रध्रं घिरनी की तरह काम करता है, जिससे लघु अंसपेशी के सिकुड़ने पर पंख ऊपर उठ जाता है।
पक्षिसाद सावन
बहुत सी चिड़ियाँ वृक्ष की टहनियों पर न सिर्फ विश्राम करती हैं, बल्कि बसेरा भी लेती हैं। पिछली टाँगों की पेशियों से कंडरा का विन्यास इस प्रकार होता है कि टहनियों पर बैठते ही पादांगुलियाँ टहनियों को दृढ़तापूर्वक जकड़ लेती हैं, जिससे सो जाने पर भी चिड़ियाँ गिरती नहीं। पिछली टाँगों के ऊपरी भाग में स्थित पेशियों से जुड़े हुए कंडरा अनुगुल्फिका संधि के पीछे से गुजरते हैं और आगे विभाजित होकर चारों पादांगुलियों के अवरतल से जुड़ जाते हैं। पक्षी के बैठने पर जब अनुगुल्फिका संधि पीछे की ओर झुक जाती है तब कंडराओं पर तनाव बढ़ जाता है, जिससे पादांगुलियाँ मुड़ जाती हैं और डाल को दृढ़तापूर्वक जकड़ लेती हैं। ऐसी हालत में चिड़ियाँ सो जाती हैं और गिरतीं नहीं। शरीर का भार ही कंडराओं पर तनाव कायम रखने के लिए पर्याप्त है। यह व्यवस्था तथा शरीरसंतुलन संबंधी अनुकूल पक्षियों को डाल से नीचे नहीं गिरने देता।
खाद्य
अन्य जीवों की तरह पक्षियों में भी उनका स्वभाव और संरचना बहुत कुछ उनके खाद्य पर निर्भर करते हैं। पक्षियों के आहार में बहुत विभिन्नता पाई जाती है और बहुधा ऋतुओं के अनुसार उनका आहार भी बदलता रहता है। कुछ चिड़ियाँ केवल अनाज के दाने खाती हैं। गौरैया (house sparrow) आदि कुछ चिड़ियाँ मुख्यतया अनाज के दाने खाती हैं, पर इनके सिवाय कोमल कलियाँ और कभी कभी पंतगें भी खा लेती हैं। अबाबील (swallow), पतरींगा (bee eater) आदि चिड़ियाँ केवल कीड़े पतिंगें खाती हैं। कीटभक्षी पक्षियों से मनुष्य को बहुत लाभ है। कुछ शाकाहारी चिड़ियाँ केतल कोमल हरे शाक खाती हैं। फुलचुही (flower pecker), शकरखोरा (honey sucker) आदि चिड़ियाँ फूलों का रस चूसती हैं। इनसे पर निषेचन (cross fertilization) में सहायता मिलती हैं। तोते, हारिल आदि फल खानेवाले पक्षी हैं, जो बीजप्रसार के अच्छे साधन हैं। किलकिला (kingfisher), बगुला, जलकाग (cormorant), आदि मछली खानेवाली चिड़ियाँ हैं। मांसभक्षी चिड़ियों में गिद्ध, चील, बाज, शिकारा, बहरी, बगुला, उल्लू आदि प्रसिद्ध हैं। गिद्ध जाति के पक्षी मुर्दाखोर होते हैं। बाज और कौआ भी मुर्दा खाते हैं। बगुला मेढक, मछली, केकड़ा, कृमि आदि खाता है। शिकरा, बाज, चील, उल्लू आदि पक्षी चूहों, साँपों, छिपकलियों और छोटी छोटी चिड़ियों को खाते हैं। कौआ आदि कुछ सर्वभक्षी पक्षी हैं, जिनको किसी चीज से परहेज नहीं होता।
चोंच
पक्षियों में भोजन के अनुरूप चोंच परिवर्तित रूपों में पाई जाती है। आदर्श चोंच नुकीली, दृढ़ तथा अनुप्रस्थ काट में तिकोनी होती है, जैसी कौओं में मिलती है। दाना खानेवाले पक्षियों (कबूतर, गौरैया आदि) में चोंच मोटी और दृढ़ होती है। कीड़े पतिंगे खानेवाले चिड़ियों की चोंच पतली और नुकीली होती है। अबाबील और पतरींगा आदि पक्षियों में जो उड़ते समय कीड़े पतिंगे पकड़ते हैं मुँह बहुत चौड़े होते हैं। फुलचुही तथा शकरखोरा जात की चिड़ियों में चोंच पैनी, लंबी तथा नुकीली होती है, जिससे ये फूलों का रस चूसती हैं। फलाहारी तोते की चोंच नुकीली और दृढ़ होती है और इसमें रेत के समान दाँत होते हैं, जो कड़े बीजों को रेतने और फलों को कुतरने में सहायक होते हैं। इनमें अग्रजभिका (premaxillace) खोपड़ी के अगले भाग से एक चल कब्जेदार संधि द्वारा जुड़ी रहती हैं जिससे ऊपरी जबड़ा खोपड़ी के बिना हिले हुए ही हिल डुल सकता है। बतख में चोंच चौड़ी होती हैं और उसके किनारे दाँतेदार होते हैं। यह चोंच कीचड़ में उपस्थित भोजन के टुकड़े को ढूँढ़ने के काम आती है। पक्षी कीचड़ को मुँह में लेकर चोंच को दबाता है, जिससे कीचड़ की मिट्टी बाहर निकल जाती है, किंतु भोजन के टुकड़े मुँह में रुक जाते हैं। किलकिला, बगुला, जलकाग आदि मछली खानेवाले पक्षियों में चोंच या तो लंबी तथा नुकीली, (किलकिला तथा बगुला), या आगे की ओर मुड़ी हुई (जलकाग) होती है, जिससे एक बार पकड़ी जाने के बाद मछली फिसलकर भाग नहीं सकती। ये पक्षी नदी के किनारे डाल पर बैठे रहते है और नदी में मछली दिखाई देने पर बड़ी तेजी से गोता लगाकर उसे पकड़ लेते हैं। उल्लू, गिद्ध, चील, बाज, शिकारा आदि शिकारी पक्षियों में चोंच मोटी और बड़ी पैनी होती है। इससे वे अपने शिकार को मारकर त्वचा फाड़ देते हैं और फिर नोच नोचकर उसका मांस खाते हैं। कुछ शिकारी चिड़ियों में चोंच नीचे की ओर मुड़ी रहती है (चित्रों के लिए देखें फलक)।
जीभ
भोजन प्राप्त करने के लिए चोंच की तरह जीभ ही रचना में भी पर्याप्त अंतर मिलता है। मछली खानेवाली चिड़ियों में, जो अपना शिकार पूरा पूरा निगल जाती हैं, जीभ बहुत छोटी होती है। अनाज के दाने निगलनेवाले पक्षियों में यह लंबी तथा नुकली होती है। फुलचुही की जीभ लंबी तथा नली की तरह होती है और सिर पर बुरुश की तरह की दो रचनाएँ बनाती है। इससे फूलों के रस चूसने और छोटे कीड़ों को पकड़ने में सहायता मिलती है। कठफोड़वा की जीभ लंबी और चिपचिपी होती है। यह अपनी चोंच से वृक्ष की छाल को ठोकता है, जिससे इसके नीचेवाले कीड़े मकोड़े बाहर निकल आते हैं। इन कीड़े मकोड़ों को कठफोड़वा अपनी चिपचिपी जीभ से पकड़कर खा जाता है। कश्मीर के छिछले तालाबों में रहनेवाले राजहंस (flamingo) की जीभ बहुत बड़ी तथा चौड़ी होती है और मुखगुहा के अधिकांश में फैली रहती है। इसके दोनों ऊपरी किनारों पर अनेकानेक कोमल काँटे होते हैं। कीचड़ के मुँह भर जाने पर यह अपनी चोंच बंद करता है, जिससे इसकी झल्लरी जीभ (fringed tongue) एक प्रकार की चलनी का काम करती है। कीड़े मकोड़े मुँह में रह जाते हैं और कीचड़ बाहर निकल जाता है।
टाँगें
पक्षियों में आम तौर से चार पादांगुलियाँ (toes) होती हैं, जिनमें तीन आगे की ओर और एक पीछे की ओर मुड़ी होती है। टहनियों पर बसेरा लेनेवाले, अर्थात् पेड़ों पर विश्राम करनेवाले पक्षियों में पादांगुलियाँ पकड़ने और जकड़ने के लिए उपयुक्त होती हैं। खासकर पिछला अंगूठा बहुत मजबूत होता हैं, जिससे टहनियों पर जाने पर भी वे जमीन पर नहीं गिरते। शिकारी पक्षियों (गिद्ध, चील, उल्लू आदि) में भी पादांगुलियाँ इसी प्रकार सजी रहती हैं (तीन आगे की ओर और एक पीछे की ओर मुड़ी हुई)। इनमें नर (claw) विशेष रूप से विकसित होते हैं जिससे ये शिकार को आसानी से पकड़ लेते हैं। नखर इतने मजबूत होते हैं कि शिकारी पक्षी झपड़ा मारकर अपने से भी भारी शिकार को ऊपर उठा ले जाते हैं। बगुला, सारस आदि पानी के किनारे रहनेवाले पक्षियों में टाँगें और पादांगुलियाँ लंबी होती हैं, जिससे ये कीचड़ में आसानी से घूम सकें। बतख, राजहंस आदि पानी में तैरनेवाले पक्षियों में पदांगुलियाँ आपस में जाल (web) द्वारा जुड़ी रहती हैं। जालयुक्त पैर से तैरने मदद मिलती है (चित्रों के लिए देखें फलक)।
आहारनाल
भोजन के अनुसार आहारनाल में भी अनुकूलन होता है। अनाज खानेवाले पक्षियों में अन्नपुट (crop) बहुत बड़ा तथा पेषणी (gizzard) बहुत दृढ़ होती है। फल खानेवाले पक्षियों में अन्नपुट साधारणत: छोर और पेषणी बहुत कम मांसल होती है। कीटभक्षी तथा मांसभक्षी पक्षियों में अन्नपुट या तो छोटा होता या बिलकुल होता ही नहीं और पेषणी की अपेक्षा ग्रंथिल आमाशय अधिक उन्नत होता है। शाकाहारी पक्षियों में आँतें लंबी होती हैं।
पाचक तंत्र
चिड़ियों को दाँत नहीं होते। अतएव मुखगुहा में भोजन की चर्वण क्रिया नहीं होती और भोजन निगल लिया जाता है। भोजन के अनुरूप इनकी चोंच तथा जीभ की रचनाएँ भिन्न भिन्न प्रकार की होती हैं। मुखगुहा में बहुत सी लारग्रंथियाँ (salivary glands) खुलती हैं, किंतु उनके स्रावित लार भोजन को केवल निगलने में सहायक होती हैं, पचाने में नहीं।मुखगुहा के पीछे ग्रासनली (oesophagus) होती है, जो गर्दन तथा वक्षप्रदेश से गुजरती हुई देहगुहा में स्थित आमाशय (stomach) में खुल जाती है। गर्दन के आधार के पास ग्रासनली चौड़ी होकर एक थैली जैसी रचना बनाती है, जिसे अन्नपुट अथवा क्रॉप (crop) कहते हैं। अनाज खानेवाले पक्षी में अन्नपुट बहुत बड़ा होता है, किंतु कीटभक्षी तथा मांसभक्षी पक्षियों में यह या तो छोटा होता है, या बिलकुल होता ही नहीं। इसकी सरंचना ग्रासनली की तरह ही होती है। इसमें अनाज के दाने कुछ समय के लिये एकत्र होते हैं और लार के पानी में भींगकर फूल जाते तथा मुलायम हो जाते हैं। अन्नपुट की दीवारें ग्रंथित नहीं होतीं। जनन ऋतु में कबूतर के अन्नपुट की भीतरी सतह की कोशिकाएँ अवनत हाकर पनीर के समान एक पोषक द्रव का निर्माण करती है, जिसे कबूतर का दूध (Pigeons milk) कहते हैं। नर और मादा दोनों के अन्नपुट में यह द्रव तैयार होता है और वे इसे अपने बच्चे को खिलाते हैं।
आमाशय
पक्षियों में आमाशय दो भागों में बँटा रहता है : (१) ग्रंथिल जठर अथवा प्रोवेंट्रिकुलस (proventriculus), जिसकी दीवारें मोटी तथा ग्रंथिल होती हैं और आमाशय रस (gastric juice) स्त्रावित करती हैं तथा (२) गिज़ार्ड या पेषणी जिसकी दीवारें मोटी तथा मांसल होती हैं। इसकी भीतरी सतह कठोर, श्रृंगी (horny) उपकला ऊतक (epithelial tissue) से ढँकी रहती हैं। गिज़ार्ड में भोजन की पिसई हाती है। गिज़ार्ड में मौजूद पत्थर के छोटे छोटे टुकड़े, जो पक्षी कभी कभी निगल लेता है, भोज़न को पीसने मे मदद करते हैं। अनाज खानेवाले पक्षियों में गिज़ार्ड अधिक विकसित होता है, किंतु माँसभक्षी पक्षियों में सामान्य आमाशय की तरह होता है।
ग्रहणी (duodenum) तथा आँत अन्य कशेरुकियों (vertebrates) की तरह होती हैं। शाकाहारी पक्षियों में आँत लंबी होती है। पित्त और अग्न्याशय वाहिनियाँ (bile and pancreatic ducts) पक्वाशय के दूरस्थ सिरे के पास खुलती हैं। मलाशय (rectum) बहुत छोटा होता है (१ इंच से अधिक नहीं), जिससे मल जल्दी बाहर निकल जाता है। आँत और मलाशय के संगम पर दो अंधनाल (caeca) होते हैं। कबूतर में अंधनाल बहुत छोटे होते हैं, किंतु मुर्गे, बतख, शुतुरमुर्ग आदि में ये बहुत बड़े होते हैं। विकिसत अवस्था में संभवत: ये पचे हुए भोजन तथा पानी का अवशोषण करते हैं। मलाशय अवस्कर (cloaca) में खुलता है, जो तीन भागों में बँटा रहता है: पूर्व अवस्कर (coprodaeum), यूरोडियम (urodaeum) तथा गुद-पथ (proctodaeum)। मूत्राशय में मूत्रवाहिनियाँ (ureters) तथा जनन नलिकाएँ (genital ducts) खुलती हैं। पूर्व-अवस्कर के पृष्ठतल पर एक ग्रंथिल थैली, वर्सा फैब्रिशिआइ (bursa fabricii) खुलती है, जिसका कार्य अज्ञात है। यह पक्षी की बाल्यावस्था में अधिक विकसित होती है, किंतु प्रौढ़वस्था में प्राय: लुप्त हो जाती है। पहले यह रक्तनिर्माण का कार्य करती है, किंतु बाद में सौत्रिक संयोजी ऊतक (fibrous connective tissue) के पिंड के रूप में रह जाती है।
श्वसनतंत्र
बाह्य नासिकाछिद्र (nostrils) चोंच के आधार के पास होते हैं। ये संवेदनशील त्वचा, सियर (cere), से घिरे रहते हैं। ये छिद्र अंत: नासिका छिद्र (internal nares) के द्वारा मुखगुहा में खुलते हैं। मुखगुहा के पिछले भाग में स्थित-श्वासनली द्वार या घाँटीद्वारा (glottis) कंठ (larynx) में खुलता है, जो एक लंबे, मांसल, मध्यवर्ती श्वासप्रणाल (trachea) के अग्रिम सिरे पर स्थित रहता है। अन्य रीढ़धारी जंतुओं में कंठ स्वरयंत्र का काम करता है, किंतु पक्षियों में यह स्वरयंत्र का काम नहीं करता। श्वासप्रणाल ग्रासनली (gullet) के अधर तल पर स्थित होता है और वक्षगुहा (द्यण्दृद्धaड़त्ड़ ड़aध्त्द्यन्र्) में जाकर दाएँ और बाएँ श्वासप्रणालों अथवा ब्रॉङ्िक (bronchi) में बँट जाता है। श्वासपथ को सहारा देने के लिये इसको घेरे हुए अनेक अस्थिमय (डदृदन्र्) अनुप्रस्थ वलय (transverse rings) होते हैं। ब्रॉङ्िक के प्रथम वलय भी अस्थिमय होते हैं, किंतु शेष उपास्थियुक्त (cartilaginous) होते हैं। श्वासप्रणाल के वलय पूर्ण और ब्राँङ्िक के वलय पृष्ठतल की ओर अपूर्ण हाते हैं। ये वलय श्वासप्रणाल तथा ब्राँङ्िक को हवा से खाली रहने पर भी चिपकने नहीं देते।
पक्षियों में श्वासप्रणाल और ब्राँङ्िक के संगम पर एक विलक्षण स्वर अवयव, सिरिंक्स (syrinx) होता है, जो अन्य रीढ़धारी जंतुओं में नहीं पाया जाता। यह श्वासप्रणाल के आधार के फैलने से बनता है। इसके अंदर अर्धवृत्ताकार कला (semicircular membrane) होती है, जिसके कंपन से स्वर निकलता है।
प्रत्येक श्वसनी (bronchus) अपनी ओर के फेफड़े में घुसती है। फेफड़े छोटे, ठोस तथा स्पंज के समान होते हैं और स्तनियों की अपेक्षा बहुत कम फूल सकते हैं। ये वक्षगुहा की पृष्ठदीवार से सटे रहते हैं और केवल अपने अधस्तल पर पेरिटोनियम से ढंके रहते हैं। श्वसनी फेफड़ों में घुसने के बाद, बार बार विभाजित होकर, शाखाओं प्रशाखाओं का एक जाल बनाती है, जो आपस में पतली शाखाओं से जुड़े हुए तथा फेफड़ों के चारों तरफ सजे हुए नौ वायुकोश (air sacs) होते हैं, जो श्वसनी की श्लेष्मिक कला के थैले के रूप में फूल जाने से बने हैं। ये हैं: आँत के बीच स्थित उदर वायुकोश, पृष्ठदेहभित्ति से लगे हुए पश्चवक्षीय तथा अग्रवक्षीय वायुकोश, गर्दन के आधार पर स्थितग्रीव वायुकोश तथा अंतराजत्रुक (interclaricular) वायुकोश। इसमें प्रथम चार जोड़े में होते हैं और अंतिम अकेला होता है। अंतराजत्रुक वायुकोश दोनों फेफड़ों के आगे मध्य में स्थित होता है और दोनों फेफड़ों से जुड़ा रहता है और बाहर की ओर अंतराजत्रुक तथा अतिरिक्त अंतराजत्रुक कोशों से जुड़ा रहता है। वायुकोशों में से कुछ हड्ड़ियों के अंदर उपस्थित वायुकोशों से जुड़े रहते हैं। अंत: श्वसन (inspiration) के समय हवा श्वसनी में से होकर उदर तथा पश्चवक्षीय वायुकोशों में जाती है, इसलिये इन्हें अंत:श्वसन वायुकोश कहते हैं। उछवास (expiration) के समय पिछले वायुकोशों से हवा आवर्तक श्वसन (recurrent bronchi) में होकर अग्रवक्षीय ग्रीवा तथा अंतराजत्रुक वायुकोशों में चली जाती है और इस हेतु इन्हें उच्छवास वायुकोश कहते है। इन कोशों से हवा बाहर निकल जाता है।
वायुकोश बहुत उपयोगी अंग है और इनके कई कार्य होते हैं: (१) इनकी दीवार में रक्तनलिकाएँ तथा रक्तकेशिकाएँ नहीं होती, इसलिये ये गैसों के आदान प्रदान में भाग नहीं लेते। तथा हवा के भंडार के रूप में हैं, (२) ये इस प्रकार सजे रहते हैं कि उड़ान के समय शरीर का एक निश्चित गुरुत्वकेंद्र बना रहता है, (३) उड़ने के समय ये माँसपेशियों को घर्षण से बचाते हैं, (४) ये पसीना निकालकर शरीर के ताप का नियमन करते हैं तथा (५) ये शरीर के घनत्व को घटाते हैं, जिससे उड़ने में सहायता मिलती है।
श्वसनविधि प्रक्रम
विश्राम के समय उदर (abdominal) तथा पर्शुकांतर (intercastal) पेशियों के सिकुड़ने से उरोस्थि नीचे झुक जाती है और पसलियाँ पार्श्व में मुड़ जाती हैं, जिससे फेफड़े फैल जाते हैं और हवा इनके अंदर आ जाती है। उपर्युक्त पेशियों के फैलने पर स्थिति पूर्वत: हो जाती है और हवा बाहर निकल जाती है। उड़ती हुई अवस्था में उरोस्थि अचल हो जाती है। इस स्थिति में रीढ़ ही ऊपर नीचे होती हे, जिससे श्वसन क्रिया होती है। उड़ते समय श्वसनक्रिया विश्रामावस्था से कई गुनी बढ़ जाती है। उदाहरण स्वरूप कबूतर विश्रामावस्था में २९ बार प्रति मिनट, चलने के सय १८० बार प्रति मिनट और उड़ने के सय ४५० बार प्रति मिनट साँस लेता है। इस प्रकार सुविकसित श्वसनतंत्र के कारण ही पक्षियों में सक्रिय चयापचय संभव है और शरीर का ताप ३८रू से ४५रू सें. तक रहता है।
परिवहन तंत्र
पक्षियों में हृदय का आकार बड़ा होता है। यह चार कक्षों (chambers) का बना होता है: दायाँ तथा बायाँ अलिंद (auricles) और दायाँ तथा बायाँ निलय (ventricles)। इनके हृदय में शिरा कोटर (sinus venosus) और धमनी कांड (truncus arteriosus) नहीं होते। इस हेतु अग्र महाशिराएँ (precavals) तथा पश्च महाशिरा (postcaval) सीधे दाएँ अलिंद में अशुद्ध रक्त लाती हैं। दायाँ अलिंद दाएँ निलय में दाएँ अलिंद-निलय-छिद्र के जरिए खुलता है। इस छिद्र पर मांसल कपाट रहता है, जो रक्त को दाएँ अलिंद से दाएँ निलय में तो जाने देता हे, किंतु उलटी दिशा में नहीं बहने देता। दाएँ निलय से रक्त फुफ्फुसीय धमनी के द्वारा फेफड़े में शुद्ध होने के लिये चला जाता है। फेफड़े से शुद्ध रक्त फुफ्फुसीय शिराओं के द्वारा बाएँ अलिंद में आता है। बायाँ अलिंद बाएँ निलय में बाएँ अलिंद-निलय-छिद्र द्वारा खुलता है। इस छिद्र पर झिल्लीदार कपाट होता है, जो रक्त को बाएँ अलिंद से बाएँ निलय में जाने देता है, किंतु उलटी दिशा में नहीं बहने देता। दाएँ और बाँऐं अलिंद तथा दाएँ और बाँऐं निलय के बीच कोई संबंध नहीं होता ओर इसलिये हृदय के अंदर शुद्ध और अशुद्ध रक्त एक दूसरे से बिलकुल अलग रहते हैं। बाएँ निलय से एक महाधमनी चाप (aortic arch) निकलता है, जो शरीर के दाहिनी ओर मुड़ जाता है और समूचे शरीर में रक्त बाँटता है, अर्थात् पक्षियों में सिर्फ दायाँ महाधमनी चाप होता है। फुफ्फुस धमनी तथा धमनी चाप में से प्रत्येक के उद्गम स्थान पर तीन अर्धचंद्राकार कपाट (semilunar valves) होते हैं। पक्षियों में वृक्क निवाहिका उपतंत्र (renal portal system) या तो अवश्ष्टि रूप में रहता है या होता ही नहीं। लाल रक्तकण अंडाकार और नाभिकीय (nucleated) होता है। पक्षी उष्णरक्तीय प्राणी हैं और इनके रक्त का ताप ३८रू से ४५रू सें. तक रहता है।
उत्सर्जन तंत्र
वक्क (kidney) गहरे लाल रंग का त्रिपिंडीय (three lobed) अंग हैं, जो पृष्ठ-देह-भित्ति से लगा रहता है। मूत्र वाहिनियाँ वृक्क से निकलकर अवस्कर के मध्य भाग, अर्थात् यूरोडियम (urodaeum), में खुलती हैं। पक्षियों में मूत्राउत्सर्जन यूरिया के रूप में न होकर यूरिक अम्ल के रूप में होता है। इसलिये मूत्र में युरिक अम्ल के लवण मिलते हैं। यूरोडियम में मूत्र का और पानी सोख लिया जाता है, जिससे यूरिक अम्ल सफेद रूप में अलग हो जाता है, जो मल के साथ बाहर निकल जाता है।
अंत:स्त्रावी ग्रंथियों
गर्दन के आधार पर एक जोड़ा अवटु ग्रंथि, (thyroid) वृक्क के अगले भाग पर स्थित अधिवृक्क (suprarenal) ग्रंथियाँ, मस्तिष्क के आधारतल पर स्थित पीयूष काय (pituitary body) तथा जनन ग्रंथियाँ अंत:स्त्रावी ग्रंथियों के उदाहरण हैं।
तंत्रिकातंत्र
पक्षियों में मस्तिष्क छोटा तथा चौड़ा होता है। इसमें प्रमस्तिष्क गोलार्ध (cerebral hemispheres) तथा अनुमस्तिष्क (cerebellum) अपेक्षाकृत बहुत बड़े होते हैं। ये बीच में मिल जाते हैं, जिससे दृष्टिपालि (optic lobes) पार्श्व स्थिति में उपस्थित रहते हैं। दृष्टिपालि भी काफी विकसित होते हैं। फलस्वरूप पक्षी में दृष्टिशक्ति बहुत ही तीव्र होती है। ्घ्रााणपालि (olfactory lobes) छोटे होते हैं, जिससे इनमें ्घ्रााण शक्ति कम होती है।
ज्ञानेंद्रियाँ
ऊपरी चोंच के आधार पर बाह्य नासिका को घेरे हुए कोमल त्वचा का फूला हुआ भाग होता है, जिसे सियर कहते हैं। यह स्पर्शेंद्रिय (tactile organ) है। जीभ के पार्श्व तथा मुखगुहा की छत में अनेक स्वाद कलियाँ (taste buds) होती हैं, जिनसे भोजन का थोड़ा बहुत स्वाद जाना जाता है। ्घ्रााणेंद्रियाँ ्ह्रासित होती हैं, जिनसे इनमें ्घ्रााणशक्ति कम होती है।
आँखें
पक्षियों में आँखें अपेक्षाकृत बहुत बड़ी बड़ी होती हैं। इससे इनकी दृष्टि बड़ी तीव्र होती है। कर्निया को सहारा देने के लिये १२-२० अक्षिपट (sclerotic plates) होते हैं। अंध बिंदु (blind spot) से काचाभ द्रव कक्ष (vitreous chamber) में निकली हुई एक रक्तवाहिनीयुक्त रंजित चुन्नटदार (plaited) झिल्ली होती है, जिसे कंकतांग (pecten) कहते हैं। संभवत: कंकतांग एक संवेदनशील इंद्रिय है जिसका संबंध दृष्टि के स्वत: संमजन (accomodation) से है। पक्षियों में दृष्टि स्वत: समंजन क्षमता बहुत अधिक होती है। इनमें रंग-विभेदन की क्षमता भी बहुत होती है।
कर्णनलिका
पक्षियों में श्रवणशक्ति भी काफी तीव्र होती है। इनमें कर्णपटह (tympanum) बाह्य कर्णनलिका की भीतरी सतह से कुछ दूर पर स्थित है। यह नलिका उस कर्णछिद्र के द्वारा बाहर खुलती है, जो आँख के पीछे स्थित है और परों से ढंका रहता है। कर्णावर्त (cochlea) लंबा और टेढ़ा होता है, किंतु स्तनियों की तरह बहुत लंबा और कुंडलित नहीं होता।
जनन तंत्र
पक्षियों में नर और मादा बाहर से एक ही तरह के दीखते हैं, किंतु कुछ पक्षियों में उनकी पहचान आसानी से की जा सकती है, जैसे मुर्गा तथा मुर्गी ओर मोर तथा मोरनी। नर में वृक्क के अगले सिरे के पास एक जोड़ा वृषण (testes) होता है। प्रत्येक वृषण से एक शुक्रवाहिनी (vas deferens) निकलती है, जो यूरोडियम में खुलती है। शुक्रवाहिनी का दूरस्थ सिरा फैलकर पतली दीवारवाला शुक्राशय (seminal vesicle) के समय शुक्राणु मादा के यूरोडियम में चला जाता है। अधिकतर उड़नेवाले पक्षियों में कोई मैथुन अंग नहीं होता, किंतु बतख तथा राजहंस में अवस्कर की अधरभित्ति से जुड़ा हुआ एक टेढ़ा शिश्न होता है।
प्रौढ़ मादा में सिर्फ देहगुहा की बाईं तरफ अंडाशय (ovary) होता है। अंडाशय के बाहरी किनारे से जुड़ा हुआ अंडवाहिनी (oviduct) का कीप (funnel) रहता है। अंडवाहिनी कुंडलित नली है, जो यूरोडियम में खुलती है। अंडाशय में अंडक (oocytes) अडंपुटक (egg follicles) के अंदर मौजूद रहते हैं। अंडपुटक के फटने पर पूर्व अंडक (primary oocyte) बाहर निकलता है। आगे का क्रम वर्धन अंडवाहिनी के अंदर ही होता है। अंडे अंडपीत (न्र्दृथ्त्त्) के कारण काफी बड़े होते हैं। अंडों का निषेचन अंडवाहिनी के ऊपरी भाग में ही होता है। अंडा अंडवाहिनी के निचले भाग की ओर लुढ़कते हुए बढ़ता है। अंडवाहिनी की दीवार ग्रंथिल होती है, जिससे अंडों के ऊपर क्रमश: गाढ़ा ऐल्वूमेन, पतला एल्बूमिन, दो कवच कलाओं (shell membranes) तथा रध्रीं कवच (porous shell) का निर्माण हो जाता है।
अनुरंजन
संभोग से पहले अधिकतर पक्षियों में अनुरंजन होता है, जिसमें नर पक्षी अपना नाच, गाना, तरह तरह के करतब तथा सुंदर परों को दिखाकर मादा पक्षी को रिझाते हैं, तब कहीं मादा संभोग के लिये तैयार होती है। इस क्रिया में अधिक सुंदर पर तथा अधिक मधुर स्वरवाले नर इच्छित मादाओं को पाने में समर्थ होते हैं। इस कार्य के लिये नर प्राय: भड़कीले पर वाले होते हैं। मोर तथा स्वर्गपक्षी अपने सुंदर पर फैलाकर इसलिये नाचते हैं कि उनके नाच और सुंदर पर को देखकर मादा संभोग के लिये तैयार हो जाय, किंतु अन्य पक्षी भी, जिनके बदन में जरा भी रंगीन या सुंदर पर होते हैं उन्हें मादा को दिखाने से नहीं चूकते। वे कभी दुम हिलाते हैं तो कभी आसमान में कलाबाजी दिखाते हैं, ताकि उनकी ओर मादा आकर्षित होकर जोड़ा बाँध ले। कबूतर का ढंग और अजीब है। मादा दाना चुगती रहती है। नर एकाएक उसके पास गला फुलाकर नाचने लगता है, कुछ आगे बढ़ता है और फिर पीछे लौट आता है और इस प्रकार उसे रिझाने की कोशिश करता है। नर बतख नाच नहीं सकता किंतु वह मादा को खुश करने के लिये पैरों से पानी उछालता है और चोंच से पानी का फौबारा ऊपर की ओर फेंकता है, जो देखने में बहुत ही सुंदर लगता है। कभी कभी तो मादा को प्राप्त करने के लिये नर पक्षियों में लड़ाई हो जाती है, जिसमें हारनेवाला तो भाग जाता है और जीतनेवाले से मादा जोड़ा बाँध लेती है।
घोंसला, अंडरोपण डिंवौषण तथा भ्रूणविकास
संभोग के बाद ओर अंडरोपण के पहले सभी प्रकार के पक्षी किसी न किसी प्रकार का घोंसला बनाते हैं। घोंसला अंडे तथा बच्चों को गरम तथा रक्षित रखने के लिये और जनकों (parents) को आराम देने के लिये होता है। ज्यादातर नर और मादा मिलकर घोंसला बनाते हैं पर कोई कोई नर इसमें बिलकुल हाथ नहीं बँटाते। पक्षियों में घोंसला बनाने के ढंग भी अलग अलग होते हैं। बया (weaver bird) का घोंसला कारीगरी का सुंदर नमूना है। मादा बया असंख्य तिनकों को बुनकर बबूल आदि की डालों से लटके हुए तुंबी के आकार का लंबा घोंसला बनाती है, जिसमें प्रवेशद्वार नीचे होता है। अबावील (swallow) और बतासी (swift) के घोंसले भी कम सुंदर नहीं होते। कौए अपना घोंसला नहीं बनाते, बल्कि दूसरे पक्षियों के पुराने घोंसलों से काम चला लेते हैं। कोयल और पपीहे तो और भी अधिक चतुर होते हैं। वे सेने के लिये दूसरे पक्षी के घोंसलों में चोरी से अंडे देते हैं, जिससे उन्हें न तो घोंसला बनाना पड़ता है और न अंडा ही सेना पड़ता है। मांसाहारी पक्षी (चील, बाज, गिद्ध, उल्लू, आदि) अपना घोंसला ऊँचे पेड़ों पर सूखी डालों और पत्तियों से बनाते हैं। (चित्रों के लिये देखें फलक)
पक्षी उष्णतापी जंतु है। इसलिये उसे अपने अंडे को सेना, अर्थात् डिंबौषण करना पड़ता है। अगर अंडे को सर्दी लग जाती है तो उसमें भ्रूण (embryo) का विकास नहीं होता। पूर्ण वृद्धि होने पर अंडे को फोड़कर बच्चा बाहर निकल आता है। बच्चे का शरीर पर रहित होता है और उसके भरण पोषण का भार नर तथा मादा दोनों पर होता है। गोरैया दाना खानेवाला पक्षी है, किंतु यह अपने बच्चों को कीड़े मकोड़े खिलाता है। कबूतर अपने अन्नपुट (crop) में बना एक श्वेत पोषक द्रव, कपोतदुग्ध (pigeon's milk) अपने बच्चे को खिलाता है। कुछ समय के बाद बच्चे अपना भोजन स्वयं प्राप्त करने लगते हैं।
पक्षियों का आर्थिक महत्व
पक्षियों से हमें लाभ और हानि दोनों होते हैं। इनका संक्षिप्त विवरण नीचे दिया जाता है: (१) कीटभक्षी पक्षी हानिकारक कीटों को खाकर और मांसभक्षी पक्षी चूहे, गिलहरी तथा खरहे आदि को खाकर हमारी फसलों को नष्ट होने से बचाते हैं। (२) कुछ पक्षी (गिद्ध, कौआ, चील आदि) मरे हुए जंतुओं को खाकर गंदगी दूर करते हैं। (३) मुर्गा, जंगली बतख, बगेरी, चाहा आदि पक्षियों का मांस खाया जाता है। मुर्गी और बतख से हमें खाने के लिये अंडे मिलते हैं। (४) सुग्गा, मैना, कोयल आदि पक्षी अपने सुंदर स्वरूप तथा मीठे गाने के कारण हमारे मनबहलाव के साधन हैं। मनुष्य इस हेतु इन्हें पालते हैं। (५) मोर, शुतुरमुर्ग आदि के सुंदर पर श्रृंगार सामग्री की तरह व्यवहृत किए जाते हें। (६) पक्षियों की विष्टा अच्छी खाद है। (७) अनाज तथा फल खानेवाले पक्षी हमारे अनाज तथा फल को खाकर हमें नुकसान पहुँचाते हैं। (८) चील, वाज, उल्लू, आदि मांसाहारी पक्षी फँसी हुई मछलियों और पालतू पक्षियों को खाकर हमें हानि पहुँचाते हैं।
टीका टिप्पणी और संदर्भ