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अंतश्चेतना
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 1 |
पृष्ठ संख्या | 52 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | सुधाकर पाण्डेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1973 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | डॉ.प्रभाकर बलवंत माचवे। |
अंतश्चेतना' शब्द अंग्रेजी के इनर कांशसनेस का पर्यायवाची है। कभी-कभी यह सहज ज्ञान या प्रभा (इंट्यूशन) के अर्थ में भी प्रयुक्त होता है। संत जोन या गांधी जी प्राय अपनी भीतरी आवाज या आत्मा की आवाज का हवाला देते थे। कई रहस्यवादियों में यह अंतश्चेतना अधिक विकसित होती है। परंतु सर्वसाधारण में भी मन की आँखें तो होती ही हैं। यही मनुष्य का नीति अनीति से परे सदसद्विवेक कहलाता है। दार्शनिकों का एक संप्रदाय यह मानता है कि जीव स्वभावत शिव है और इस कारण किसी अशिक्षित या असंस्कृत कहलाने वाले व्यक्ति में भी अच्छे-बुरे को पहचानने की अंतश्चेतना पशु से अधिक विद्यमान रहती है। भौतिकवादी अंतश्चेतना को जन्मत उपस्थित जैविक गुण नहीं मानते बल्कि सभ्यता के इतिहास से उत्पन्न, चेतना का बाह्य आवरण मानते हैं; जैसे फ्रायड उसे सुपर ईगो कहता है। अरविंद के दर्शन में यह शब्द उभरकर आया है। यदि भौतिक जड़ जगत् और मानवी चैतन्य के भीतर एक सी विकास रेखा खोजनी हो, या मुण्मय में चिन्मय बनने की संभावनाएँ हों तो इस अंतश्चेतना का किसी न किसी रूप में पूर्व अस्तित्व मनुष्य में मानना ही होगा। योग इसी को आत्मिक उन्नति भी कहता है। योगों अरविंद की परिभाषा में यही चैत्य पुरुष या साइकिक बीइंग कहा गया है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ