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'''अणुव्रत''' अणुव्रत का अर्थ है लघुव्रत। जैन धर्म के अनुसार श्रावक अणुव्रतों का पालन करते हैं। | '''अणुव्रत''' अणुव्रत का अर्थ है लघुव्रत। जैन धर्म के अनुसार श्रावक अणुव्रतों का पालन करते हैं। महव्रत साधुओं के लिए बनाए जाते हैं। यही अणुव्रत और महव्रत में अंतर है, अन्यथा दोनों समान हैं। अणुव्रत इसलिए कहे जाते हैं कि साधुओं के महव्रतों की अपेक्षा वे लघु होते हैं। महव्रतों में सर्वत्याग की अपेक्षा रखते हुए सूक्ष्मता के साथ व्रतों का पालन होता है, जबकि अणुव्रतों का स्थूलता से पालन किया जाता है। | ||
अणुव्रत पाँच होते हैं- <br /> | अणुव्रत पाँच होते हैं- <br /> | ||
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(3) अस्तेय, <br /> | (3) अस्तेय, <br /> | ||
(4) ब्रह्मचर्य और <br /> | (4) ब्रह्मचर्य और <br /> | ||
(5) अपरिग्रह। | (5) अपरिग्रह। <br /> | ||
(1) जीवों की स्थल हिंसा के त्याग को अहिंसा कहते हैं। <br /> | (1) जीवों की स्थल हिंसा के त्याग को अहिंसा कहते हैं। <br /> | ||
(2) राग-द्वेष-युक्त स्थूल असत्य भाषण के त्याग को सत्य कहते हैं।<br /> | (2) राग-द्वेष-युक्त स्थूल असत्य भाषण के त्याग को सत्य कहते हैं।<br /> |
१३:३५, १७ मार्च २०१५ के समय का अवतरण
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अणुव्रत
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 1 |
पृष्ठ संख्या | 88 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | सुधाकर पाण्डेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1973 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | जगदीश चंद्र जैन। |
अणुव्रत अणुव्रत का अर्थ है लघुव्रत। जैन धर्म के अनुसार श्रावक अणुव्रतों का पालन करते हैं। महव्रत साधुओं के लिए बनाए जाते हैं। यही अणुव्रत और महव्रत में अंतर है, अन्यथा दोनों समान हैं। अणुव्रत इसलिए कहे जाते हैं कि साधुओं के महव्रतों की अपेक्षा वे लघु होते हैं। महव्रतों में सर्वत्याग की अपेक्षा रखते हुए सूक्ष्मता के साथ व्रतों का पालन होता है, जबकि अणुव्रतों का स्थूलता से पालन किया जाता है।
अणुव्रत पाँच होते हैं-
(1) अहिंसा,
(2) सत्य,
(3) अस्तेय,
(4) ब्रह्मचर्य और
(5) अपरिग्रह।
(1) जीवों की स्थल हिंसा के त्याग को अहिंसा कहते हैं।
(2) राग-द्वेष-युक्त स्थूल असत्य भाषण के त्याग को सत्य कहते हैं।
(3) बुरे इरादे से स्थूल रूप से दूसरे की वस्तु अपहरण करने के त्याग को अस्तेय कहते हैं।
(4) पर स्त्री का त्याग कर अपनी स्त्री में संतोषभाव रखने को ब्रह्मचर्य कहते हैं।
(5) धन, धान्य आदि वस्तुओं में इच्छा का परिमाण रखते हुए परिग्रह के त्याग को अपरिहार्य कहते हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
सं. ग्रं.- उवासगदसाओं; तत्वार्थ सूत्र मूल और टीकाएँ; समंतभद्र यत्नकरंड श्रावकाचार; अभिधान राजेंद्र कोश, 1 (1913)।