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|पुस्तक नाम=हिन्दी विश्वकोश खण्ड 2 | |||
|पृष्ठ संख्या=362 | |||
|भाषा= हिन्दी देवनागरी | |||
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|संपादक=सुधाकर पांडेय | |||
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|प्रकाशक=नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी | |||
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|संस्करण=सन् 1975 ईसवी | |||
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|उपलब्ध=भारतडिस्कवरी पुस्तकालय | |||
|कॉपीराइट सूचना=नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी | |||
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|पाठ 1=बलवंत सिंह | |||
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कचूर हल्दी के समान एक क्षुप है जो ज़िंजीबरेसी (Zingiberaceae) कुल का है। इसे 'करक्यूमा' ज़ेडोयिरया (Curcuma zedoaria) कहते हैं। पूर्वोत्तर भारत तथा दक्षिण समुद्रतटवर्ती प्रदेशों में यह स्वत: उगता है और भारत, चीन तथा लंका में इसकी खेती भी की जाती है। इसके लिए कर्चूर, षटकचोरा आदि कचूर से मिलते-जुलते नाम भी प्रचलित हैं। | कचूर हल्दी के समान एक क्षुप है जो ज़िंजीबरेसी (Zingiberaceae) कुल का है। इसे 'करक्यूमा' ज़ेडोयिरया (Curcuma zedoaria) कहते हैं। पूर्वोत्तर भारत तथा दक्षिण समुद्रतटवर्ती प्रदेशों में यह स्वत: उगता है और भारत, चीन तथा लंका में इसकी खेती भी की जाती है। इसके लिए कर्चूर, षटकचोरा आदि कचूर से मिलते-जुलते नाम भी प्रचलित हैं। | ||
इसका क्षुप तीन-चार फुट ऊँचा, पत्रकोषों का बना हुआ, नकली कांड और एक दो फुट लंबे, आयताकार, लंबाग्र, लंबे पत्रनाल से युक्त रहता है। पत्तियाँ चिकनी और मध्यभाग में गुलाबी छायावाली होती हैं। पत्तियों के निकलने से पहले ही | इसका क्षुप तीन-चार फुट ऊँचा, पत्रकोषों का बना हुआ, नकली कांड और एक दो फुट लंबे, आयताकार, लंबाग्र, लंबे पत्रनाल से युक्त रहता है। पत्तियाँ चिकनी और मध्यभाग में गुलाबी छायावाली होती हैं। पत्तियों के निकलने से पहले ही 6फ़फ़ व् 3फ़फ़ नाप की मंजरी निकलती है, जिसमें पुष्प विनाल, हलके पीले रंग के और विपत्र (ब्रैस्ट) रक्ताभ, अथवा भड़कीले लाल रंग के, होते हैं। इस प्रजाति में वास्तविक कांड भूमिगत होता है। कचूर का भूमिगत आधार भाग शंक्वाकार (कॉनिकल) होता है जिसकी बगल से मोटे, मांसल तथा लंबगोल प्रंकद (rhizome) निकलते हैं और इन्हीं से फिर पतले मूल निकलते हैं, जिनके अग्रभाग कंदवत् फूले रहते हैं। प्रकंद भीतर से हलके पीले रंग के और कर्पूर के सदृश प्रिय गंधवाले होते हैं। इन्हीं के कटे हुए गोल-चिपटे टुकड़े सुखाकर व्यवहार में लाए जाते हैं और बाजार में कचूर के नाम से बिकते हैं। | ||
इसके मूलाग्रकंदों में स्टार्च होता है, जो 'शटीफ़ूड' के नाम से बाजार में मिलता है। बच्चों के लिए अरारूट तथा बार्ली की तरह यह पौष्टिक खाद्य का काम देता है। इसका उत्पादन बंगाल में एक लघु उद्योग बन गया है। कचूर के चूर्ण और पतंगकाष्ठ के क्वाथ से अबीर बनाया जाता है। चिकित्सा में कचूर को कटु, तिक्त, रोचक, दीपक तथा कफ, वात, हिक्का, श्वास, कास, गुल्म एवं कुष्ठ में उपयोगी माना गया है। | इसके मूलाग्रकंदों में स्टार्च होता है, जो 'शटीफ़ूड' के नाम से बाजार में मिलता है। बच्चों के लिए अरारूट तथा बार्ली की तरह यह पौष्टिक खाद्य का काम देता है। इसका उत्पादन बंगाल में एक लघु उद्योग बन गया है। कचूर के चूर्ण और पतंगकाष्ठ के क्वाथ से अबीर बनाया जाता है। चिकित्सा में कचूर को कटु, तिक्त, रोचक, दीपक तथा कफ, वात, हिक्का, श्वास, कास, गुल्म एवं कुष्ठ में उपयोगी माना गया है। | ||
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कचूर
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 2 |
पृष्ठ संख्या | 362 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | सुधाकर पांडेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1975 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | बलवंत सिंह |
कचूर हल्दी के समान एक क्षुप है जो ज़िंजीबरेसी (Zingiberaceae) कुल का है। इसे 'करक्यूमा' ज़ेडोयिरया (Curcuma zedoaria) कहते हैं। पूर्वोत्तर भारत तथा दक्षिण समुद्रतटवर्ती प्रदेशों में यह स्वत: उगता है और भारत, चीन तथा लंका में इसकी खेती भी की जाती है। इसके लिए कर्चूर, षटकचोरा आदि कचूर से मिलते-जुलते नाम भी प्रचलित हैं।
इसका क्षुप तीन-चार फुट ऊँचा, पत्रकोषों का बना हुआ, नकली कांड और एक दो फुट लंबे, आयताकार, लंबाग्र, लंबे पत्रनाल से युक्त रहता है। पत्तियाँ चिकनी और मध्यभाग में गुलाबी छायावाली होती हैं। पत्तियों के निकलने से पहले ही 6फ़फ़ व् 3फ़फ़ नाप की मंजरी निकलती है, जिसमें पुष्प विनाल, हलके पीले रंग के और विपत्र (ब्रैस्ट) रक्ताभ, अथवा भड़कीले लाल रंग के, होते हैं। इस प्रजाति में वास्तविक कांड भूमिगत होता है। कचूर का भूमिगत आधार भाग शंक्वाकार (कॉनिकल) होता है जिसकी बगल से मोटे, मांसल तथा लंबगोल प्रंकद (rhizome) निकलते हैं और इन्हीं से फिर पतले मूल निकलते हैं, जिनके अग्रभाग कंदवत् फूले रहते हैं। प्रकंद भीतर से हलके पीले रंग के और कर्पूर के सदृश प्रिय गंधवाले होते हैं। इन्हीं के कटे हुए गोल-चिपटे टुकड़े सुखाकर व्यवहार में लाए जाते हैं और बाजार में कचूर के नाम से बिकते हैं।
इसके मूलाग्रकंदों में स्टार्च होता है, जो 'शटीफ़ूड' के नाम से बाजार में मिलता है। बच्चों के लिए अरारूट तथा बार्ली की तरह यह पौष्टिक खाद्य का काम देता है। इसका उत्पादन बंगाल में एक लघु उद्योग बन गया है। कचूर के चूर्ण और पतंगकाष्ठ के क्वाथ से अबीर बनाया जाता है। चिकित्सा में कचूर को कटु, तिक्त, रोचक, दीपक तथा कफ, वात, हिक्का, श्वास, कास, गुल्म एवं कुष्ठ में उपयोगी माना गया है।
आयुर्वेद के संहिताग्रंथों में कचूर का नाम नहीं आया है। केवल निघंटुओं में संहितोक्त 'शठी' के पर्याय रूप में, अथवा स्वतंत्र द्रव्य के रूप में, यह वर्णित है। ऐसा मालूम होता है कि वास्तविक शठी के सुलभ न होने पर पहले इस कचूर का प्रतिनिधि रूप में उपयोग प्रारंभ हुआ और बाद में कचर को ही शठी कहा जाने लगा। कचूर को ज़ेडोरी (Zedory), इसकी दूसरी जाति करक्यूमा सीसिया (Curcuma caesia) को को काली हल्दी, नकरचूर और ब्लैक ज़ेडारी तथा तीसरी जाति वनहरिद्रा (करक्यूमा ऐरोमैटिमा, (Curcuma aromatica) को वनहल्दी अथवा येलो ज़ेडोरी भी कहते हैं।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
“खण्ड 2”, हिन्दी विश्वकोश, 1975 (हिन्दी), भारतडिस्कवरी पुस्तकालय: नागरी प्रचारिणी सभा वाराणसी, 362।