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कणाद जैने ग्रंथ उत्तरध्ययन सूत्रवृत्ति में अतिरंजिका नामक राजा के शासनकाल में इनकी उत्पत्ति बताई जाती है। इनके विभिन्न नाम प्राप्त होते हैं; इन्हें कणभुक्‌, कणभस भी कहा गया है। कणाद नाम पड़ने का कारण यह बताया जाता है कि ये अपना जीवन-यापन शिलोंछ वृत्ति से (मार्ग अथवा खेत के 'कण' उठाकर) करते थे। कुमारलात के ग्रंथ सूत्रालंकार में उनको 'उलूक' कहा गया है। आर्यदेव के शतशास्त्र के टीकाकार चित्सान के अनुसार वैशेषिक दर्शन के प्रवर्तक का नाम उलूक था; वे बुद्ध से ८०० वर्ष पूर्व उत्पन्न हुए थे। ये दिन में ग्रंथ की रचना करते और रात में भिक्षा के लिए निकलते थे, इसीलिए इनका नाम उलूक पड़ा। कहते हैं, उन्होंने एक लाख श्लोकों में वैशेषिक शास्त्र बनाया। श्रीधर की कंदली टीका पर टीका लिखनेवाले जैन लेखक राजशेखर ने एक पुरानी जनश्रुति का उल्लेख किया है कि ईश्वर कणाद ऋषि को वैशेषिक में माने गए द्रव्यादि छह पदार्थों का उपदेश दिया। कणाद ने भगवान्‌ महेश्वर को प्रसन्न कर उनकी कृपा से शास्त्र पाया।<ref>प्रशस्तपादभाष्य, कंदली सहित, पृ. </ref> प्रशस्तपाद ने कणाद ऋषि का नाम कश्यप भी लिखा है जो गोत्रनाम प्रतीत होता है। संभवत: शि९ की तपस्या से शास्त्र पाने के कारण गौतम तथा कपिल के साथ इनको भी पाशुपत कहा गया है।<ref>पाशुपतसूत्र, पृ. 3</ref> इनके जीवन के बारे में अन्य बातों का पता नहीं मिलता।  
कणाद जैने ग्रंथ उत्तरध्ययन सूत्रवृत्ति में अतिरंजिका नामक राजा के शासनकाल में इनकी उत्पत्ति बताई जाती है। इनके विभिन्न नाम प्राप्त होते हैं; इन्हें कणभुक्‌, कणभस भी कहा गया है। कणाद नाम पड़ने का कारण यह बताया जाता है कि ये अपना जीवन-यापन शिलोंछ वृत्ति से (मार्ग अथवा खेत के 'कण' उठाकर) करते थे। कुमारलात के ग्रंथ सूत्रालंकार में उनको 'उलूक' कहा गया है। आर्यदेव के शतशास्त्र के टीकाकार चित्सान के अनुसार वैशेषिक दर्शन के प्रवर्तक का नाम उलूक था; वे बुद्ध से 800 वर्ष पूर्व उत्पन्न हुए थे। ये दिन में ग्रंथ की रचना करते और रात में भिक्षा के लिए निकलते थे, इसीलिए इनका नाम उलूक पड़ा। कहते हैं, उन्होंने एक लाख श्लोकों में वैशेषिक शास्त्र बनाया। श्रीधर की कंदली टीका पर टीका लिखनेवाले जैन लेखक राजशेखर ने एक पुरानी जनश्रुति का उल्लेख किया है कि ईश्वर कणाद ऋषि को वैशेषिक में माने गए द्रव्यादि छह पदार्थों का उपदेश दिया। कणाद ने भगवान्‌ महेश्वर को प्रसन्न कर उनकी कृपा से शास्त्र पाया।<ref>प्रशस्तपादभाष्य, कंदली सहित, पृ. 7</ref> प्रशस्तपाद ने कणाद ऋषि का नाम कश्यप भी लिखा है जो गोत्रनाम प्रतीत होता है। संभवत: शि9 की तपस्या से शास्त्र पाने के कारण गौतम तथा कपिल के साथ इनको भी पाशुपत कहा गया है।<ref>पाशुपतसूत्र, पृ. 3</ref> इनके जीवन के बारे में अन्य बातों का पता नहीं मिलता।  


कणाद वैशेषिक दर्शन के आदिप्रर्वतक थे। इन्होंने वैशेषिकसूत्र की रचना की जो दस अध्यायों में विभक्त है तथा प्रत्येक अध्याय में दो आह्निक हैं। 'विशेष' नामक पदार्थ को स्वीकार करने के कारण कणाद के दर्शन का नाम वैशेषिक पड़ा। कुछ विद्वानों का मत है कि कणाद का दर्शन अन्य दर्शनों से, विशेष रूप से सांख्य दर्शन से, अधिक युक्तिसंगत है अत: इसका नाम वैशेषिक हुआ।<ref>डॉ. उई : वैशेषिक फिलासफ़ी, पृ. 3-</ref> कणाद का दूसरा नाम उलूक या औलूक्य था, इससे इनके दर्शन को औलूक्य दर्शन भी कहते हैं। श्रीहर्ष ने नैषध<ref>नैषध (11।3६)</ref> में इनके दर्शन को औलूक संज्ञा दी है। वायुपुराण के अनुसार कणाद द्वारिका के समीप प्रभास में उत्पन्न हुए थे और सोम शर्मा के शिष्य थे। इनका एक अन्य नाम 'काश्यप' भी था। उदयनाचार्य ने किरणावली में इन्हें कश्यप मुनि का पुत्र बतलाया है।
कणाद वैशेषिक दर्शन के आदिप्रर्वतक थे। इन्होंने वैशेषिकसूत्र की रचना की जो दस अध्यायों में विभक्त है तथा प्रत्येक अध्याय में दो आह्निक हैं। 'विशेष' नामक पदार्थ को स्वीकार करने के कारण कणाद के दर्शन का नाम वैशेषिक पड़ा। कुछ विद्वानों का मत है कि कणाद का दर्शन अन्य दर्शनों से, विशेष रूप से सांख्य दर्शन से, अधिक युक्तिसंगत है अत: इसका नाम वैशेषिक हुआ।<ref>डॉ. उई : वैशेषिक फिलासफ़ी, पृ. 3-7</ref> कणाद का दूसरा नाम उलूक या औलूक्य था, इससे इनके दर्शन को औलूक्य दर्शन भी कहते हैं। श्रीहर्ष ने नैषध<ref>नैषध (11।36)</ref> में इनके दर्शन को औलूक संज्ञा दी है। वायुपुराण के अनुसार कणाद द्वारिका के समीप प्रभास में उत्पन्न हुए थे और सोम शर्मा के शिष्य थे। इनका एक अन्य नाम 'काश्यप' भी था। उदयनाचार्य ने किरणावली में इन्हें कश्यप मुनि का पुत्र बतलाया है।


वैशेषिक सूत्रों का रचनाकाल निर्धारित करना कठिन है। ओऽस के अनुसार वैशेषिक सूत्रों का रचनाकाल तृतीय शतक विक्रमपूर्व का है।<ref>तर्कसंग्रह की प्रस्तावना, पृ. ४०</ref> गार्बे ने वैशेषिक को न्याय की अपेक्षा अत्यधिक प्राचीन माना है।<ref>द फ़िलासफ़ी ऑव ऐंशेंट इंडिया, पृ. 2०</ref> अश्वघोष ने अपने सूत्रालंकार में वैशेषिक को बुद्ध का पूर्वकालीन माना है। दासगुप्त कतिपय तर्कों के आधार पर वैशेषिक सूत्रों को बुद्ध के पूर्व का ही सिद्ध करते हैं।
वैशेषिक सूत्रों का रचनाकाल निर्धारित करना कठिन है। ओऽस के अनुसार वैशेषिक सूत्रों का रचनाकाल तृतीय शतक विक्रमपूर्व का है।<ref>तर्कसंग्रह की प्रस्तावना, पृ. 40</ref> गार्बे ने वैशेषिक को न्याय की अपेक्षा अत्यधिक प्राचीन माना है।<ref>द फ़िलासफ़ी ऑव ऐंशेंट इंडिया, पृ. 20</ref> अश्वघोष ने अपने सूत्रालंकार में वैशेषिक को बुद्ध का पूर्वकालीन माना है। दासगुप्त कतिपय तर्कों के आधार पर वैशेषिक सूत्रों को बुद्ध के पूर्व का ही सिद्ध करते हैं।


कणाद का दर्शन बाह्यर्थवादी है। यहा बाह्य पदार्थों को सत्य मानता है। उन्हें चेतना से स्वतंत्र मानता है। कणाद ने छह पदार्थों का प्रतिपादन किया है। ये हैं-द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय। पदार्थ का अर्थ है नाम धारण करनेवाली वस्तु अर्थात्‌ वह वस्तु जो श्रेय तथा अभिधेय हो। कणाद ने 'अभाव' को पदार्थ रूप से स्वीकार नहीं किया है। वैशेषिक दर्शन में 'अभाव' के पदार्थ को संज्ञा पीछे दी गई।
कणाद का दर्शन बाह्यर्थवादी है। यहा बाह्य पदार्थों को सत्य मानता है। उन्हें चेतना से स्वतंत्र मानता है। कणाद ने छह पदार्थों का प्रतिपादन किया है। ये हैं-द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय। पदार्थ का अर्थ है नाम धारण करनेवाली वस्तु अर्थात्‌ वह वस्तु जो श्रेय तथा अभिधेय हो। कणाद ने 'अभाव' को पदार्थ रूप से स्वीकार नहीं किया है। वैशेषिक दर्शन में 'अभाव' के पदार्थ को संज्ञा पीछे दी गई।


द्रव्य गुण और कर्म का आश्रय तथा किसी कार्य का समवायि कारण होता है।<ref>वै.सू. 1, 1, 1५</ref> द्रव्य नौ प्रकार के हैं-पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, काल, दिक्‌, आत्मा तथा मन। गुण द्रव्य में रहता है, उसका स्वयं कोई गुण नहीं होता। वह संयोग एवं विभाग का कारण भी नहीं होता।<ref>1, 1, 1६</ref> कणाद के अनुसार गुण 1७ प्रकार के हैं। पीछे के आचार्यों ने सात गुणों को और जोड़कर उनकी संख्या 2४ निर्धारित की है। कर्म द्रव्य में रहता है, गुणरिहत है तथा संयोग और विभाग का कारण होता।<ref>1, 1, 1७</ref> कर्म पाँच प्रकार के माने गए हैं। सामान्य का अर्थ है जाति अथवा वस्तुओं में पाई जानेवाली समानता। जैसे दो व्यक्तियों के रंग आदि में भेद होने पर भी उनमें एक समानता पाई जाती है जिससे उन्हें मनुष्य कहा जाता है। कणाद के अनुसार सामान्य एवं विशेष बुद्धि की अपेक्षा रखते हैं।<ref>1, 2, 3</ref>। विशेष वस्तुओं को एक दूसरे से पृथक करता है। विशेष के कारण से ही द्रव्यों, जैसे पृथ्वी, जल, तेज और वायु के परमाणुओं, आकाश, काल, दिक्‌, आत्मा तथा मन में रहते हैं। विशेष नित्य तथा अनंत हैं। दो वस्तुओं में रहनेवाले नित्य संबंध को समवाय कहते हैं। कणाद केवल उपादान कारण तथा उसके कार्य के संबंध को समवाय कहते हैं।
द्रव्य गुण और कर्म का आश्रय तथा किसी कार्य का समवायि कारण होता है।<ref>वै.सू. 1, 1, 15</ref> द्रव्य नौ प्रकार के हैं-पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, काल, दिक्‌, आत्मा तथा मन। गुण द्रव्य में रहता है, उसका स्वयं कोई गुण नहीं होता। वह संयोग एवं विभाग का कारण भी नहीं होता।<ref>1, 1, 16</ref> कणाद के अनुसार गुण 17 प्रकार के हैं। पीछे के आचार्यों ने सात गुणों को और जोड़कर उनकी संख्या 24 निर्धारित की है। कर्म द्रव्य में रहता है, गुणरिहत है तथा संयोग और विभाग का कारण होता।<ref>1, 1, 17</ref> कर्म पाँच प्रकार के माने गए हैं। सामान्य का अर्थ है जाति अथवा वस्तुओं में पाई जानेवाली समानता। जैसे दो व्यक्तियों के रंग आदि में भेद होने पर भी उनमें एक समानता पाई जाती है जिससे उन्हें मनुष्य कहा जाता है। कणाद के अनुसार सामान्य एवं विशेष बुद्धि की अपेक्षा रखते हैं।<ref>1, 2, 3</ref>। विशेष वस्तुओं को एक दूसरे से पृथक करता है। विशेष के कारण से ही द्रव्यों, जैसे पृथ्वी, जल, तेज और वायु के परमाणुओं, आकाश, काल, दिक्‌, आत्मा तथा मन में रहते हैं। विशेष नित्य तथा अनंत हैं। दो वस्तुओं में रहनेवाले नित्य संबंध को समवाय कहते हैं। कणाद केवल उपादान कारण तथा उसके कार्य के संबंध को समवाय कहते हैं।


वैशेषिक सूत्रों में ईश्वर का स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता। कणाद पृथ्वी, जल, तेज और वायु के नित्य परमाणुओं के संयोग से जगत्‌ के उत्पत्ति मानते हैं। परमाणु स्वत: शांत तथा निस्पंद अवस्था में रहते हैं। किंतु प्राणियों के अदृश्य के द्वारा परमाणुओं तथा मन आदि में स्पंदन होता है जिससे सृष्टि का आरंभ होता है।<ref>, 2, 13</ref> वृक्षों में जल का जाना, अग्नि की ज्वाला का ऊपर उठना, वायु का तिरछा बहना आदि अदृष्ट से ही नियंत्रित होता है।<ref>, 2, 1८</ref> अदृष्ट के अभाव में कर्मबंधन नष्ट हो जाते हैं। आत्मा का शरीर, मन आदि से तादात्म्य समाप्त हो जाता है जिसके फलस्वरूप मोक्ष की प्राप्ति होती है। मोक्ष की अवस्था में आत्मा को दु:खों से आत्यंतिक निवृत्ति प्राप्त हो जाती है।
वैशेषिक सूत्रों में ईश्वर का स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता। कणाद पृथ्वी, जल, तेज और वायु के नित्य परमाणुओं के संयोग से जगत्‌ के उत्पत्ति मानते हैं। परमाणु स्वत: शांत तथा निस्पंद अवस्था में रहते हैं। किंतु प्राणियों के अदृश्य के द्वारा परमाणुओं तथा मन आदि में स्पंदन होता है जिससे सृष्टि का आरंभ होता है।<ref>5, 2, 13</ref> वृक्षों में जल का जाना, अग्नि की ज्वाला का ऊपर उठना, वायु का तिरछा बहना आदि अदृष्ट से ही नियंत्रित होता है।<ref>5, 2, 18</ref> अदृष्ट के अभाव में कर्मबंधन नष्ट हो जाते हैं। आत्मा का शरीर, मन आदि से तादात्म्य समाप्त हो जाता है जिसके फलस्वरूप मोक्ष की प्राप्ति होती है। मोक्ष की अवस्था में आत्मा को दु:खों से आत्यंतिक निवृत्ति प्राप्त हो जाती है।


==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==

०५:४२, २१ जुलाई २०१८ के समय का अवतरण

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लेख सूचना
कणाद
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 2
पृष्ठ संख्या 376
भाषा हिन्दी देवनागरी
लेखक ए.बी. कीथ, ए.ई. गफ़, कावेल एवं गफ़, जे.सी. चैटर्जी, उई, नंदलाल सिन्हा, फ्ऱेडेगन, एस.एन. दासगुप्त, एस. राधाकृष्णन
संपादक सुधाकर पांडेय
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1975 ईसवी
स्रोत ए.बी. कीथ : इंडियन लाजिक ऐंड एटामिज़म; ए.ई. गफ़ : द वैशेषिक अफ़ारिज़्म्स ऑव कणाद; कावेल एवं गफ़ : सर्वदर्शन-संग्रह; जे.सी. चैटर्जी : द हिंदू रियैलिज़्म; उई (द्वत्) : द वैशेषिक फ़िलासफ़ी; नंदलाल सिन्हा : द वैशेषिक सूत्राज़ ऑव कणाद; फ्ऱेडेगन : द वैशेषिक सिस्टम; एस.एन. दासगुप्त : ए हिस्ट्री ऑव इंडियन फिलासफ़ी भाग 1; एस. राधाकृष्णन : इंडियन फ़िलासफ़ी 1
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक रामशंकर मिश्र

कणाद जैने ग्रंथ उत्तरध्ययन सूत्रवृत्ति में अतिरंजिका नामक राजा के शासनकाल में इनकी उत्पत्ति बताई जाती है। इनके विभिन्न नाम प्राप्त होते हैं; इन्हें कणभुक्‌, कणभस भी कहा गया है। कणाद नाम पड़ने का कारण यह बताया जाता है कि ये अपना जीवन-यापन शिलोंछ वृत्ति से (मार्ग अथवा खेत के 'कण' उठाकर) करते थे। कुमारलात के ग्रंथ सूत्रालंकार में उनको 'उलूक' कहा गया है। आर्यदेव के शतशास्त्र के टीकाकार चित्सान के अनुसार वैशेषिक दर्शन के प्रवर्तक का नाम उलूक था; वे बुद्ध से 800 वर्ष पूर्व उत्पन्न हुए थे। ये दिन में ग्रंथ की रचना करते और रात में भिक्षा के लिए निकलते थे, इसीलिए इनका नाम उलूक पड़ा। कहते हैं, उन्होंने एक लाख श्लोकों में वैशेषिक शास्त्र बनाया। श्रीधर की कंदली टीका पर टीका लिखनेवाले जैन लेखक राजशेखर ने एक पुरानी जनश्रुति का उल्लेख किया है कि ईश्वर कणाद ऋषि को वैशेषिक में माने गए द्रव्यादि छह पदार्थों का उपदेश दिया। कणाद ने भगवान्‌ महेश्वर को प्रसन्न कर उनकी कृपा से शास्त्र पाया।[१] प्रशस्तपाद ने कणाद ऋषि का नाम कश्यप भी लिखा है जो गोत्रनाम प्रतीत होता है। संभवत: शि9 की तपस्या से शास्त्र पाने के कारण गौतम तथा कपिल के साथ इनको भी पाशुपत कहा गया है।[२] इनके जीवन के बारे में अन्य बातों का पता नहीं मिलता।

कणाद वैशेषिक दर्शन के आदिप्रर्वतक थे। इन्होंने वैशेषिकसूत्र की रचना की जो दस अध्यायों में विभक्त है तथा प्रत्येक अध्याय में दो आह्निक हैं। 'विशेष' नामक पदार्थ को स्वीकार करने के कारण कणाद के दर्शन का नाम वैशेषिक पड़ा। कुछ विद्वानों का मत है कि कणाद का दर्शन अन्य दर्शनों से, विशेष रूप से सांख्य दर्शन से, अधिक युक्तिसंगत है अत: इसका नाम वैशेषिक हुआ।[३] कणाद का दूसरा नाम उलूक या औलूक्य था, इससे इनके दर्शन को औलूक्य दर्शन भी कहते हैं। श्रीहर्ष ने नैषध[४] में इनके दर्शन को औलूक संज्ञा दी है। वायुपुराण के अनुसार कणाद द्वारिका के समीप प्रभास में उत्पन्न हुए थे और सोम शर्मा के शिष्य थे। इनका एक अन्य नाम 'काश्यप' भी था। उदयनाचार्य ने किरणावली में इन्हें कश्यप मुनि का पुत्र बतलाया है।

वैशेषिक सूत्रों का रचनाकाल निर्धारित करना कठिन है। ओऽस के अनुसार वैशेषिक सूत्रों का रचनाकाल तृतीय शतक विक्रमपूर्व का है।[५] गार्बे ने वैशेषिक को न्याय की अपेक्षा अत्यधिक प्राचीन माना है।[६] अश्वघोष ने अपने सूत्रालंकार में वैशेषिक को बुद्ध का पूर्वकालीन माना है। दासगुप्त कतिपय तर्कों के आधार पर वैशेषिक सूत्रों को बुद्ध के पूर्व का ही सिद्ध करते हैं।

कणाद का दर्शन बाह्यर्थवादी है। यहा बाह्य पदार्थों को सत्य मानता है। उन्हें चेतना से स्वतंत्र मानता है। कणाद ने छह पदार्थों का प्रतिपादन किया है। ये हैं-द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय। पदार्थ का अर्थ है नाम धारण करनेवाली वस्तु अर्थात्‌ वह वस्तु जो श्रेय तथा अभिधेय हो। कणाद ने 'अभाव' को पदार्थ रूप से स्वीकार नहीं किया है। वैशेषिक दर्शन में 'अभाव' के पदार्थ को संज्ञा पीछे दी गई।

द्रव्य गुण और कर्म का आश्रय तथा किसी कार्य का समवायि कारण होता है।[७] द्रव्य नौ प्रकार के हैं-पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, काल, दिक्‌, आत्मा तथा मन। गुण द्रव्य में रहता है, उसका स्वयं कोई गुण नहीं होता। वह संयोग एवं विभाग का कारण भी नहीं होता।[८] कणाद के अनुसार गुण 17 प्रकार के हैं। पीछे के आचार्यों ने सात गुणों को और जोड़कर उनकी संख्या 24 निर्धारित की है। कर्म द्रव्य में रहता है, गुणरिहत है तथा संयोग और विभाग का कारण होता।[९] कर्म पाँच प्रकार के माने गए हैं। सामान्य का अर्थ है जाति अथवा वस्तुओं में पाई जानेवाली समानता। जैसे दो व्यक्तियों के रंग आदि में भेद होने पर भी उनमें एक समानता पाई जाती है जिससे उन्हें मनुष्य कहा जाता है। कणाद के अनुसार सामान्य एवं विशेष बुद्धि की अपेक्षा रखते हैं।[१०]। विशेष वस्तुओं को एक दूसरे से पृथक करता है। विशेष के कारण से ही द्रव्यों, जैसे पृथ्वी, जल, तेज और वायु के परमाणुओं, आकाश, काल, दिक्‌, आत्मा तथा मन में रहते हैं। विशेष नित्य तथा अनंत हैं। दो वस्तुओं में रहनेवाले नित्य संबंध को समवाय कहते हैं। कणाद केवल उपादान कारण तथा उसके कार्य के संबंध को समवाय कहते हैं।

वैशेषिक सूत्रों में ईश्वर का स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता। कणाद पृथ्वी, जल, तेज और वायु के नित्य परमाणुओं के संयोग से जगत्‌ के उत्पत्ति मानते हैं। परमाणु स्वत: शांत तथा निस्पंद अवस्था में रहते हैं। किंतु प्राणियों के अदृश्य के द्वारा परमाणुओं तथा मन आदि में स्पंदन होता है जिससे सृष्टि का आरंभ होता है।[११] वृक्षों में जल का जाना, अग्नि की ज्वाला का ऊपर उठना, वायु का तिरछा बहना आदि अदृष्ट से ही नियंत्रित होता है।[१२] अदृष्ट के अभाव में कर्मबंधन नष्ट हो जाते हैं। आत्मा का शरीर, मन आदि से तादात्म्य समाप्त हो जाता है जिसके फलस्वरूप मोक्ष की प्राप्ति होती है। मोक्ष की अवस्था में आत्मा को दु:खों से आत्यंतिक निवृत्ति प्राप्त हो जाती है।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

“खण्ड 2”, हिन्दी विश्वकोश, 1975 (हिन्दी), भारतडिस्कवरी पुस्तकालय: नागरी प्रचारिणी सभा वाराणसी, 376।

  1. प्रशस्तपादभाष्य, कंदली सहित, पृ. 7
  2. पाशुपतसूत्र, पृ. 3
  3. डॉ. उई : वैशेषिक फिलासफ़ी, पृ. 3-7
  4. नैषध (11।36)
  5. तर्कसंग्रह की प्रस्तावना, पृ. 40
  6. द फ़िलासफ़ी ऑव ऐंशेंट इंडिया, पृ. 20
  7. वै.सू. 1, 1, 15
  8. 1, 1, 16
  9. 1, 1, 17
  10. 1, 2, 3
  11. 5, 2, 13
  12. 5, 2, 18