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कबीरपंथ
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 2 |
पृष्ठ संख्या | 405-406 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | सुधाकर पांडेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1975 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | राधेश्याम दूबे |
कबीर पंथ संत कबीर के नाम पर स्थापित मध्यकालीन भारतीय संप्रदाय है। कबीर ने ही इसका प्रवर्तन किया था, यह विवादस्पद है। कबीरपंथी साहित्य से ज्ञात होता है कि संत कबीर ने चतुर्दिक् अपने विचारों का प्रचार करने के लिए अपने चार प्रमुख शिष्यों-चत्रभुज, बंके जी, सहते जी और धर्मदास-को भेजा था। प्रथम तीन शिष्यों के संबंध में कोई विवरण प्राप्त नहीं है। धर्मदास के विषय में अवश्य यह सूचना मिलती है कि उन्होंने कबीर पंथ की धर्मदासी अथवा छत्तीसगढ़ी शाखा की स्थापना की थी। इस समय जो अन्य संस्थाएँ दिखाई पड़ती हैं वे भी कबीर अथवा उनके किसी शिष्य अथवा किसी परवर्ती व्यक्ति के नाम से ही संबद्ध हैं। कबीर के नाम पर ही द्वादश पंथों का भी उल्लेख मिलता है। इनमें कबीर के प्रति श्रद्धा व्यक्ति की गई है। कुछ लोग इन द्वाद्वश पंथों को शुद्ध कल्पना मानते हैं।
कबीर पंथ की विभिन्न संस्थाओं के विभाजन के संबंध में दो मत मिलते हैं। एक मत के अनुसार कबीर पंथ की दो प्रमुख शाखाएँ बताई गई हैं। प्रथम शाखा का केंद्र, कबीरचौरा (काशी) है। इसकी एक उपशाखा मगहर में है। दूसरा केंद्र, मध्य प्रदेश के अंतर्गत छत्तीसगढ़ जिले में है, जिसकी स्थापना धर्मदास ने की थी। इसकी भी अनेक शाखाएँ, उपशाखाएँ बताई गई हैं। दूसरे मत के अनुसार कबीर पंथ के नाम से चलनेवाली संस्थाओं का विभाजन इस प्रकार है :
(क) स्वतंत्र रूप से स्थापित कबीरपंथ की शाखाएँ, जिनका संबंध ऐसे व्यक्तियों से जोड़ा जाता है जो कबीर के प्रमुख शिष्यों में से थे-
- रामकबीर पंथ
- फतुहा मठ
- बिद्दूपुर मठ
- भगताही शाखा
- कबीरचारा (काशी)
- छत्तीसगढ़ी या धर्मदासी शाखा।
(ख) छत्तीसगढ़ी शाखा से संबंध विच्छेद करके पृथक मठ के रूप में स्थापित शाखाएँ इस प्रकार हैं-
- कबीरचौरा जगदीशपुरी
- हरकेसर मठ
- कबीर-निर्णय-मंदिर (बुरहानपुर) तथा
- लक्ष्मीपुर मठ।
शेष प्रमुख शाखाओं में से कुछ ऐसा हैं जिन्हें उपर्युक्त स्वतंत्र शाखाओं में से किसी न किसी की उपशाखा मात्र कह सकते हैं। आचार्य गद्दी, बड़ैया और महादेव मठ, रुसड़ा जैसी संस्थाएँ कबीरपंथी विचारधारा द्वारा प्रभावित कही जा सकती है। मध्यकालीन जाति-उपजाति-विकास के अनुसार ही कबीर के नाम से प्रचलित पनिका कबीरपंथियों तथा कबीरवशिंयों का ऐसे समूह के रूप में विकास हो गया है जिसे हम जुग्गी जैसी विशिष्ट जाति कह सकते हैं।
गुजरात में प्रचलित रामकबीर पंथ के प्रवर्तक कबीरशिष्य पद्मनाभ तथा पटना जिले में फतुहा मठ के प्रवर्तक तत्वाजीवा अथवा गणेशदास बताए जाते हैं। इसकी प्रकार मुजफ्फरपुर जिलांतर्गत कबीरपंथ की बिद्दूरपुर मठवाली शाखा की स्थापना कबीर के शिष्य जागूदास ने की थी। बिहार में सारन जिले के अंतर्गत धनौती में स्थापित भगताही शाखा के प्रवर्तक कबीरशिष्य भागोदास वा भगवान गोसाईं कहे जाते हैं। भगताही शाखा में भक्तिभावना ही प्रधान है, न कि ब्राह्योपचार। सुरतगोपाल द्वारा प्रवर्तित काशीस्थ कबीरचौरा शाखा अन्य शाखाओं से प्राचीन समझी जाती है। लेकिन कुछ लोग इसमें संदेह भी व्यक्ति करते है। काशी स्थित लहरतारा, बस्ती जिले में स्थित मगहर कबीरबाग (गया) में इसकी उपशाखाएँ बताई जाती हैं। कबीर पंथ की अन्य शाखाओं की तुलना में छत्तीसगढ़ी शाखा अधिक व्यापक है। इस शाखा द्वारा पर्याप्त सांप्रदायिक साहित्य भी निर्मित हुआ है। छत्तीसगढ़ी शाखा की अनेक उपशाखाएँ मांडला, दामाखेड़ा, छतरपुर आदि स्थानों में स्थापित हैं। इनके अतिरिक्त कबीरपंथ की अनेक अन्य शाखाओं, उपशाखाओं का भी उल्लेख मिलता है।
कबीरपंथी संस्थाओं के अस्तित्व में आ जाने पर उनमें अनेक प्रकार की पौराणिक कथाओं की सी कल्पना करके कबीर को विशेष प्रकार का अलौकिक रूप दे दिया गया। साथ ही, संसार की सृष्टि, विनाश, विभिन्न लोकों की भी कल्पनाएँ कर ली गई हैं। इस प्रकार के कबीरपंथी साहित्य के अधिकांश भाग का, जो पौराणिक कथाओं, कर्माकांड अथवा गोष्ठियों, संवादों आदि से संबद्ध है, निर्माण छत्तीसगढ़ी शाखा के अनुयायियों द्वारा किया गया। इसके अंतर्गत 'सुखनिधान', 'गुरुमहात्म्य', 'अमरमूल', 'गोरखगोष्ठी', 'अनुरागसागर', 'निरंजनबोध' और 'कबीर मंसूर' जैसी रचनाओं की गणना की जाती है। इस प्रकार के साहित्यनिर्माण द्वारा कबीर मूल रूप वस्तुत: तिरोहित हो गया और जिस संप्रदायवाद, कर्मकांड, बाह्यडंबर आदि का उन्होंने विरोध किया था, उन सबका विधिवत् प्रचार, प्रसार कबीरपंथी संस्थाओं द्वारा होने लगा।
टीका टिप्पणी और संदर्भ