"राणा कुम्भा": अवतरणों में अंतर

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कुंभकर्ण, महाराणा (सन्‌ 1433-14६८ ई.) मेवाड़नरेश महाराणा मोकल के पुत्र जो उनकी हत्या के बाद गद्दी पर बैठे। उन्होंने अपने पिता के मामा रणमल राठौड़ की सहायता से शीघ्र ही अपने पिता के हत्यारों से बदला लिया। सन्‌ 143७ से पूर्व उन्होंने देवड़ा चौहानों को हराकर आबू पर अधिकार कर लिया। मालवा के सुलतान महमूद खिलजी को भी उन्होंने उसी साल सारंगपुर के पास बुरी तरह से हराया और इस विजय के स्मारक स्वरूप चित्तौड़ का विख्यात कीर्तिस्तंभ बनवाया। राठौड़ कहीं मेवाड़ को हस्तगत करने का प्रयत्न न करें, इस प्रबल संदेह से शंकित होकर उन्होंने रणमल को मरवा दिया और कुछ समय के लिए मंडोर का राज्य भी उनके हाथ में आ गया। राज्यारूढ़ होने के सात वर्षों के भीतर ही उन्होंने सारंगपुर, नागैर, नराणा, अजमेर, मंडोर, मोडालगढ़, बूंदी, खाटू, चाटूस आदि के सुदृढ़ किलों को जीत लिया, और दिल्ली के सुलतान सैयद मुहम्मद शाह और गुजरा के सुलतान अहमदशाह को भी परास्त किया। उनके शत्रुओं ने अपनी पराजयों का बदला लेने का बार-बार प्रयत्न किया, किंतु उन्हें सफलता न मिली। मालवा के सुलतान ने पांच बार मेवाड़ पर आक्रमण किया। नागौर के स्वामी शम्स खाँ ने गुजरात की सहायता से स्वतंत्र होने का विफल प्रयत्न किया। यही दशा आबू के देवड़ों की भी हुई। मालवा और गुजरात के सुलतानों ने मिलकर महाराणा पर आक्रमण किया किंतु मुसलमानी सेनाएँ फिर परास्त हुई। महाराणा ने अन्य अनेक विजय भी प्राप्त किए। उसने डीडवाणे की नमक की खान से कर लिया और खंडेला, आमेर, रणथंभोर, डूँगरपुर, सीहारे आदि स्थानों को जीता। इस प्रकार राजस्थान का अधिकांश और गुजरात, मालवा और दिल्ली के कुछ भाग जीतकर उसने मेवाड़ को महाराज्य बना दिया।
कुंभकर्ण, महाराणा (सन्‌ 1433-1468 ई.) मेवाड़नरेश महाराणा मोकल के पुत्र जो उनकी हत्या के बाद गद्दी पर बैठे। उन्होंने अपने पिता के मामा रणमल राठौड़ की सहायता से शीघ्र ही अपने पिता के हत्यारों से बदला लिया। सन्‌ 1437 से पूर्व उन्होंने देवड़ा चौहानों को हराकर आबू पर अधिकार कर लिया। मालवा के सुलतान महमूद खिलजी को भी उन्होंने उसी साल सारंगपुर के पास बुरी तरह से हराया और इस विजय के स्मारक स्वरूप चित्तौड़ का विख्यात कीर्तिस्तंभ बनवाया। राठौड़ कहीं मेवाड़ को हस्तगत करने का प्रयत्न न करें, इस प्रबल संदेह से शंकित होकर उन्होंने रणमल को मरवा दिया और कुछ समय के लिए मंडोर का राज्य भी उनके हाथ में आ गया। राज्यारूढ़ होने के सात वर्षों के भीतर ही उन्होंने सारंगपुर, नागैर, नराणा, अजमेर, मंडोर, मोडालगढ़, बूंदी, खाटू, चाटूस आदि के सुदृढ़ किलों को जीत लिया, और दिल्ली के सुलतान सैयद मुहम्मद शाह और गुजरा के सुलतान अहमदशाह को भी परास्त किया। उनके शत्रुओं ने अपनी पराजयों का बदला लेने का बार-बार प्रयत्न किया, किंतु उन्हें सफलता न मिली। मालवा के सुलतान ने पांच बार मेवाड़ पर आक्रमण किया। नागौर के स्वामी शम्स खाँ ने गुजरात की सहायता से स्वतंत्र होने का विफल प्रयत्न किया। यही दशा आबू के देवड़ों की भी हुई। मालवा और गुजरात के सुलतानों ने मिलकर महाराणा पर आक्रमण किया किंतु मुसलमानी सेनाएँ फिर परास्त हुई। महाराणा ने अन्य अनेक विजय भी प्राप्त किए। उसने डीडवाणे की नमक की खान से कर लिया और खंडेला, आमेर, रणथंभोर, डूँगरपुर, सीहारे आदि स्थानों को जीता। इस प्रकार राजस्थान का अधिकांश और गुजरात, मालवा और दिल्ली के कुछ भाग जीतकर उसने मेवाड़ को महाराज्य बना दिया।


किंतु महाराणा कुंभकर्ण की महत्ता विजय से अधिक उनके सांस्कृतिक कार्यों के कारण है। उन्होंने अनेक दुर्ग, मंदिर और तालाब बनवाए तथा चित्तौड़ को अनेक प्रकार से सुसंस्कृत किया। कुंभलगढ़ का प्रसिद्ध किला उनकी कृति है। बंसतपुर को उन्होंने पुन: बसाया और श्रीएकलिंग के मंदिर का जीर्णोंद्वार किया। चित्तौड़ का कीर्तिस्तंभ तो संसार की अद्वितीय कृतियों में एक है। इसके एक-एक पत्थर पर उनके शिल्पानुराग, वैदुष्य और व्यक्तित्व की छाप है। वे विद्यानुरागी थे, संगीत के अनेक ग्रंथों की उन्होंने रचना की और चंडीशतक एवं गीतगोविंद आदि ग्रंथों की व्याख्या की। वे नाट्यशास्त्र के ज्ञाता और वीणावादन में भी कुशल थे। कीर्तिस्तंभों की रचना पर उन्होंने स्वयं एक ग्रंथ लिखा, और मंडन आदि सूत्रधारों से शिल्पशास्त्र के ग्रंथ लिखवाए। इस महान्‌ राणा की मृत्यु अपने ही पुत्र उदयसिंह के हाथों हुई।
किंतु महाराणा कुंभकर्ण की महत्ता विजय से अधिक उनके सांस्कृतिक कार्यों के कारण है। उन्होंने अनेक दुर्ग, मंदिर और तालाब बनवाए तथा चित्तौड़ को अनेक प्रकार से सुसंस्कृत किया। कुंभलगढ़ का प्रसिद्ध किला उनकी कृति है। बंसतपुर को उन्होंने पुन: बसाया और श्रीएकलिंग के मंदिर का जीर्णोंद्वार किया। चित्तौड़ का कीर्तिस्तंभ तो संसार की अद्वितीय कृतियों में एक है। इसके एक-एक पत्थर पर उनके शिल्पानुराग, वैदुष्य और व्यक्तित्व की छाप है। वे विद्यानुरागी थे, संगीत के अनेक ग्रंथों की उन्होंने रचना की और चंडीशतक एवं गीतगोविंद आदि ग्रंथों की व्याख्या की। वे नाट्यशास्त्र के ज्ञाता और वीणावादन में भी कुशल थे। कीर्तिस्तंभों की रचना पर उन्होंने स्वयं एक ग्रंथ लिखा, और मंडन आदि सूत्रधारों से शिल्पशास्त्र के ग्रंथ लिखवाए। इस महान्‌ राणा की मृत्यु अपने ही पुत्र उदयसिंह के हाथों हुई।

११:५५, २९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

लेख सूचना
राणा कुम्भा
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 3
पृष्ठ संख्या 50
भाषा हिन्दी देवनागरी
लेखक गौरीशंकर हीराचंद ओझा, ब्रिगज
संपादक सुधाकर पांडेय
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1976 ईसवी
स्रोत गौरीशंकर हीराचंद ओझा : वीरविनोद; उदयपुर का इतिहास; नेणसी की ख्यात; ब्रिगज : फ़िरिश्ता, जि. 4; महाराणा के शिलालेख।
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक दारथ शर्मा

कुंभकर्ण, महाराणा (सन्‌ 1433-1468 ई.) मेवाड़नरेश महाराणा मोकल के पुत्र जो उनकी हत्या के बाद गद्दी पर बैठे। उन्होंने अपने पिता के मामा रणमल राठौड़ की सहायता से शीघ्र ही अपने पिता के हत्यारों से बदला लिया। सन्‌ 1437 से पूर्व उन्होंने देवड़ा चौहानों को हराकर आबू पर अधिकार कर लिया। मालवा के सुलतान महमूद खिलजी को भी उन्होंने उसी साल सारंगपुर के पास बुरी तरह से हराया और इस विजय के स्मारक स्वरूप चित्तौड़ का विख्यात कीर्तिस्तंभ बनवाया। राठौड़ कहीं मेवाड़ को हस्तगत करने का प्रयत्न न करें, इस प्रबल संदेह से शंकित होकर उन्होंने रणमल को मरवा दिया और कुछ समय के लिए मंडोर का राज्य भी उनके हाथ में आ गया। राज्यारूढ़ होने के सात वर्षों के भीतर ही उन्होंने सारंगपुर, नागैर, नराणा, अजमेर, मंडोर, मोडालगढ़, बूंदी, खाटू, चाटूस आदि के सुदृढ़ किलों को जीत लिया, और दिल्ली के सुलतान सैयद मुहम्मद शाह और गुजरा के सुलतान अहमदशाह को भी परास्त किया। उनके शत्रुओं ने अपनी पराजयों का बदला लेने का बार-बार प्रयत्न किया, किंतु उन्हें सफलता न मिली। मालवा के सुलतान ने पांच बार मेवाड़ पर आक्रमण किया। नागौर के स्वामी शम्स खाँ ने गुजरात की सहायता से स्वतंत्र होने का विफल प्रयत्न किया। यही दशा आबू के देवड़ों की भी हुई। मालवा और गुजरात के सुलतानों ने मिलकर महाराणा पर आक्रमण किया किंतु मुसलमानी सेनाएँ फिर परास्त हुई। महाराणा ने अन्य अनेक विजय भी प्राप्त किए। उसने डीडवाणे की नमक की खान से कर लिया और खंडेला, आमेर, रणथंभोर, डूँगरपुर, सीहारे आदि स्थानों को जीता। इस प्रकार राजस्थान का अधिकांश और गुजरात, मालवा और दिल्ली के कुछ भाग जीतकर उसने मेवाड़ को महाराज्य बना दिया।

किंतु महाराणा कुंभकर्ण की महत्ता विजय से अधिक उनके सांस्कृतिक कार्यों के कारण है। उन्होंने अनेक दुर्ग, मंदिर और तालाब बनवाए तथा चित्तौड़ को अनेक प्रकार से सुसंस्कृत किया। कुंभलगढ़ का प्रसिद्ध किला उनकी कृति है। बंसतपुर को उन्होंने पुन: बसाया और श्रीएकलिंग के मंदिर का जीर्णोंद्वार किया। चित्तौड़ का कीर्तिस्तंभ तो संसार की अद्वितीय कृतियों में एक है। इसके एक-एक पत्थर पर उनके शिल्पानुराग, वैदुष्य और व्यक्तित्व की छाप है। वे विद्यानुरागी थे, संगीत के अनेक ग्रंथों की उन्होंने रचना की और चंडीशतक एवं गीतगोविंद आदि ग्रंथों की व्याख्या की। वे नाट्यशास्त्र के ज्ञाता और वीणावादन में भी कुशल थे। कीर्तिस्तंभों की रचना पर उन्होंने स्वयं एक ग्रंथ लिखा, और मंडन आदि सूत्रधारों से शिल्पशास्त्र के ग्रंथ लिखवाए। इस महान्‌ राणा की मृत्यु अपने ही पुत्र उदयसिंह के हाथों हुई।

महाराणा कुंभकर्ण का भारत के राजाओं में बहुत ऊँचा स्थान है। उनसे पूर्व राजपूत केवल अपनी स्वतंत्रता की जहाँ-तहाँ रक्षा कर सके थे। कुंभकर्ण ने मुसलमानों को अपने-अपने स्थानों पर हराकर राजपूती राजनीति को एक नया रूप दिया। इतिहास में ये राणा कुंभा के नाम से अधिक प्रसिद्ध हैं।

टीका टिप्पणी और संदर्भ