"महाभारत आदि पर्व अध्याय 3 श्लोक 59-66" के अवतरणों में अंतर
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+ | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: आदि पर्व: तृतीय अध्याय: श्लोक 59-66 का हिन्दी अनुवाद</div> | ||
− | + | परमात्मा की कालशाक्ति ने जीवरूपी पक्षी को अपना ग्रास बना रखा है। आप दोनों अश्विनी कुमार नामक जीवन्मुक्त महापुरुषों ने ज्ञान देकर कैवल्य रूप महान सौभाग्य की प्राप्ति के लिये उस जीव को काल के बन्धन से मुक्त किया है। माया के सहवासी अत्यन्त अज्ञानी जीव जब तक राग आदि विषयों से आक्रान्त हो अपनी इन्द्रियों के समक्ष नतमस्तक रहते हैं, तब तक वे अपने आपको शरीर से आवद्ध ही मानते हैं। दिन एवं रात-ये मनावांछित फल देने वाली तीन सौ साठ दुधारू गौएँ हैं। वे सब एक ही संवत्सररूपी बछड़े को जन्म देती और उसको पुष्ट करती हैं। वह बछड़ा सबका उत्पादक और संहारक है। जिज्ञासु पुरुष उक्त बछड़े को निमित्त बनाकर उन गौओं से विभिन्न फल देने वाली शास्त्रविहित क्रियाएँ दुहते रहते हैं, उन सब क्रियोओं का एक (तत्वज्ञान की इच्छा) ही दोहनीय फल है। पूर्वोक्त गौओं को आप दोनों अश्विनी कुमार ही दुहते हैं। हे अश्विनी कुमार ! इस कालचक्र की एकमात्र संवत्सर ही नाभि है, जिस पर रात और दिन मिलाकर सात सौ बीस अरे टिके हुए हैं। वे सब बारह मासरूपी प्रधियों (अरों को थामने वाले पुट्ठों) में जुड़े हुए हैं। अश्विनी कुमारों ! यह अविनाशी एवं मायामय कालचक्र बिना नेमिकं ही अनियत गति से घूमता तथा इहलोक ओर परलोक दोनों लोकों की प्रजाओं का विनाश करता रहता है। अश्विनी कुमारों ! मेष आदि बारह राशियाँ जिसके बारह अरे, छहों ऋतुएँ जिसकी छः नाभियाँ हैं और संबत्सर जिसकी एक धुरी है, व एकमात्र कालचक्र सब और चल रहा है। यही कर्मफल को धारण करने वाला आप दोनों मुझे इस कालचक्र से मुक्त करें, क्योंकि मैं यहाँ जन्म आदि के दु;ख से अत्यन्त कष्ट पा रहा हूँ। हे अश्विनी कुमारों ! आप दोनों मे सदाचार बाहुल्य है। आप अपने सुयश से चन्द्रमा, अमृत तथा जल की उज्ज्वलता को भी तिस्कृत कर देते हैं। इस समय मेरू पर्वत को छोड़ कर आप पृथ्वी पर सानन्द विचर रहे हैं। आनन्द और बल की वर्षा करने के लिये ही आप दोनों भाई दिन में प्रस्थान करते हैं। हे अश्विनी कुमारों ! आप दोनों ही सृष्टि के प्रारम्भ काल में पूर्वादि दसों दिशाओं को प्रकट करके उनका ज्ञान कराते हैं। उन दिशाओं के मस्तक अर्थात् अन्तरिक्ष लोक में रथ से यात्रा करने वाले तथा सबको समान रूप से प्रकाश देने वाले सूर्यदेव का और आकाश आदि पाँच भूतों का भी आप ही ज्ञान कराते हैं। उन-उन दिशाओं में सूर्य का जाना देखकर ऋषि लोग भी उनका अनुसरण करते हैं तथा देवता और मनुष्य (अपने अधिकार के अनुसार) स्वर्ग या मृत्युलोक की भूमि का उपयोग करते हैं। हे अश्विन कुमारों ! आप अनेक रंग की वस्तुओं, के सम्मिश्रण से सब प्रकार की औषधियाँ तैयार करते हैं, जो सम्पूर्ण विश्व का पोषण करती हैं। वे प्रकाशमान औषधियाँ सदा आपका अनुसरण करती हुई आपके साथ ही विचरती हैं। देवता और मनुष्य आदि प्राणी अपने अधिकार के अनुसार स्वर्ग और मृत्युलोक की भूमि में रहकर उन औषधियों का सेवन करते हैं। अश्विनी कुमारों ! आप ही देानों ‘नासत्य’ नाम से प्रसिद्ध हैं। मैं आपकी तथा आपने जो कमल की माला धारण कर रखी है, उसकी पूजा करता हूँ। आप अमर होने के साथ ही सत्य का पोषण और विस्तार करने वाले हैं। आपके सहयोग के बिना देवता भी उस सनातन सत्य की प्राप्ति में समर्थ नहीं हैं। | |
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==संबंधित लेख== | ==संबंधित लेख== | ||
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१०:०८, २० जुलाई २०१५ के समय का अवतरण
तृतीय (3) अध्याय: आदि पर्व (पौष्य पर्व)
परमात्मा की कालशाक्ति ने जीवरूपी पक्षी को अपना ग्रास बना रखा है। आप दोनों अश्विनी कुमार नामक जीवन्मुक्त महापुरुषों ने ज्ञान देकर कैवल्य रूप महान सौभाग्य की प्राप्ति के लिये उस जीव को काल के बन्धन से मुक्त किया है। माया के सहवासी अत्यन्त अज्ञानी जीव जब तक राग आदि विषयों से आक्रान्त हो अपनी इन्द्रियों के समक्ष नतमस्तक रहते हैं, तब तक वे अपने आपको शरीर से आवद्ध ही मानते हैं। दिन एवं रात-ये मनावांछित फल देने वाली तीन सौ साठ दुधारू गौएँ हैं। वे सब एक ही संवत्सररूपी बछड़े को जन्म देती और उसको पुष्ट करती हैं। वह बछड़ा सबका उत्पादक और संहारक है। जिज्ञासु पुरुष उक्त बछड़े को निमित्त बनाकर उन गौओं से विभिन्न फल देने वाली शास्त्रविहित क्रियाएँ दुहते रहते हैं, उन सब क्रियोओं का एक (तत्वज्ञान की इच्छा) ही दोहनीय फल है। पूर्वोक्त गौओं को आप दोनों अश्विनी कुमार ही दुहते हैं। हे अश्विनी कुमार ! इस कालचक्र की एकमात्र संवत्सर ही नाभि है, जिस पर रात और दिन मिलाकर सात सौ बीस अरे टिके हुए हैं। वे सब बारह मासरूपी प्रधियों (अरों को थामने वाले पुट्ठों) में जुड़े हुए हैं। अश्विनी कुमारों ! यह अविनाशी एवं मायामय कालचक्र बिना नेमिकं ही अनियत गति से घूमता तथा इहलोक ओर परलोक दोनों लोकों की प्रजाओं का विनाश करता रहता है। अश्विनी कुमारों ! मेष आदि बारह राशियाँ जिसके बारह अरे, छहों ऋतुएँ जिसकी छः नाभियाँ हैं और संबत्सर जिसकी एक धुरी है, व एकमात्र कालचक्र सब और चल रहा है। यही कर्मफल को धारण करने वाला आप दोनों मुझे इस कालचक्र से मुक्त करें, क्योंकि मैं यहाँ जन्म आदि के दु;ख से अत्यन्त कष्ट पा रहा हूँ। हे अश्विनी कुमारों ! आप दोनों मे सदाचार बाहुल्य है। आप अपने सुयश से चन्द्रमा, अमृत तथा जल की उज्ज्वलता को भी तिस्कृत कर देते हैं। इस समय मेरू पर्वत को छोड़ कर आप पृथ्वी पर सानन्द विचर रहे हैं। आनन्द और बल की वर्षा करने के लिये ही आप दोनों भाई दिन में प्रस्थान करते हैं। हे अश्विनी कुमारों ! आप दोनों ही सृष्टि के प्रारम्भ काल में पूर्वादि दसों दिशाओं को प्रकट करके उनका ज्ञान कराते हैं। उन दिशाओं के मस्तक अर्थात् अन्तरिक्ष लोक में रथ से यात्रा करने वाले तथा सबको समान रूप से प्रकाश देने वाले सूर्यदेव का और आकाश आदि पाँच भूतों का भी आप ही ज्ञान कराते हैं। उन-उन दिशाओं में सूर्य का जाना देखकर ऋषि लोग भी उनका अनुसरण करते हैं तथा देवता और मनुष्य (अपने अधिकार के अनुसार) स्वर्ग या मृत्युलोक की भूमि का उपयोग करते हैं। हे अश्विन कुमारों ! आप अनेक रंग की वस्तुओं, के सम्मिश्रण से सब प्रकार की औषधियाँ तैयार करते हैं, जो सम्पूर्ण विश्व का पोषण करती हैं। वे प्रकाशमान औषधियाँ सदा आपका अनुसरण करती हुई आपके साथ ही विचरती हैं। देवता और मनुष्य आदि प्राणी अपने अधिकार के अनुसार स्वर्ग और मृत्युलोक की भूमि में रहकर उन औषधियों का सेवन करते हैं। अश्विनी कुमारों ! आप ही देानों ‘नासत्य’ नाम से प्रसिद्ध हैं। मैं आपकी तथा आपने जो कमल की माला धारण कर रखी है, उसकी पूजा करता हूँ। आप अमर होने के साथ ही सत्य का पोषण और विस्तार करने वाले हैं। आपके सहयोग के बिना देवता भी उस सनातन सत्य की प्राप्ति में समर्थ नहीं हैं।
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