"महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 28 श्लोक 1-30": अवतरणों में अंतर
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संशप्तकों का संहार करके अर्जुन का कौरव-सेना पर आक्रमण | संशप्तकों का संहार करके अर्जुन का कौरव-सेना पर आक्रमण | ||
संजय कहते है- महाराज ! तदनन्तर द्रोण की सेना के समीप जाने की इच्छावाले अर्जुन के सुवर्णभूषित एवं मन के समान वेगशाली अश्रों को भगवान श्रीकृष्ण ने बड़ी उतावली के साथ द्रोणाचार्य की सेनातक पहॅुचने के लिये हांका। द्रोणाचार्य के सताये हुए अपने भाइयो के पास जाते हुए कुरूश्रेष्ठ अर्जुन को भाइयों सहित सुशर्मा ने युद्ध की इच्छा से ललकारा और पीछे से उन पर आक्रमण किया। तब श्वेतवाहन अर्जुन ने अपराजित श्रीकृष्ण से इस प्रकार कहा, अच्युत ! यह भाइयों सहित सुशर्मा मुझे पुन: युद्ध के लिये बुला रहा है। तथा भगदत्त और उनके हाथी का पराक्रम उधर उतर दिशा की ओर अपनी सेना का नाश किया जा रहा है । मधुसूदन ! इन संशप्तकों ने आज मेरे मनको दुविद्या में डाल दिया है। क्या मैं संशप्तकों का वध करूँ अथवा शत्रुओं द्वारा पीडित हुए अपने सैनिकों की रक्षा करूँ । इस प्रकार मेरा मन संकल्प-विकल्प में पड़ा है, सो आप जानते ही हैं । बताइये, अब मेरे लिये क्या करना अच्छा होगा। अर्जुन के ऐसा कहने पर भगवान श्रीकृष्ण ने अपने रथ को उसी ओर लौटाया, जिस ओर से त्रिगर्तराज सुशर्मा उन पाण्डुकुमार को युद्ध के लिये ललकार रहा था। तत्पश्चात् अर्जुन ने सुशर्मा को सात बाणों से घायल करके दो छुरों द्वारा उसके ध्वज और धनुष को काट डाला। साथ ही त्रिगर्तराज के भाइयो को छ: बाण मारकर अर्जुन ने उसे घोड़े और सारथि सहित तुरंत यमलोक भेज दिया। तदनन्तर सुशर्मा ने सर्प के समान आकृतिवाली लोहे की बनी हुई एक शक्ति को अर्जुन के ऊपर चलाया और वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण पर तोमर से प्रहार किया। अर्जुन ने तीन बाणों द्वारा शक्ति तथा तीन बाणों द्वारा तोमर को काटकर सुशर्मा को अपने बाण समूहों द्वारा मोहित करके पीछे लौटा दिया। राजन ! इसके बाद वे इन्द्र के समान बाण समूहों की भारी वर्षा करते हुए जब आपकी सेना पर आक्रमण करने लगे, उस समय आपके सैनिकों मे से कोई भी उन उग्ररूपधारी अर्जुन को रोक न सका। तत्पश्चात् जैसे अग्नि घास-फॅूस के समूह को जला डालती है, उसी प्रकार अर्जुन अपने बाणों द्वारा समस्त कौरव महारथियों को क्षत-विक्षत करते हुए वहां आ पहॅुचे। परम | संजय कहते है- महाराज ! तदनन्तर द्रोण की सेना के समीप जाने की इच्छावाले अर्जुन के सुवर्णभूषित एवं मन के समान वेगशाली अश्रों को भगवान श्रीकृष्ण ने बड़ी उतावली के साथ द्रोणाचार्य की सेनातक पहॅुचने के लिये हांका। द्रोणाचार्य के सताये हुए अपने भाइयो के पास जाते हुए कुरूश्रेष्ठ अर्जुन को भाइयों सहित सुशर्मा ने युद्ध की इच्छा से ललकारा और पीछे से उन पर आक्रमण किया। तब श्वेतवाहन अर्जुन ने अपराजित श्रीकृष्ण से इस प्रकार कहा, अच्युत ! यह भाइयों सहित सुशर्मा मुझे पुन: युद्ध के लिये बुला रहा है। तथा भगदत्त और उनके हाथी का पराक्रम उधर उतर दिशा की ओर अपनी सेना का नाश किया जा रहा है । मधुसूदन ! इन संशप्तकों ने आज मेरे मनको दुविद्या में डाल दिया है। क्या मैं संशप्तकों का वध करूँ अथवा शत्रुओं द्वारा पीडित हुए अपने सैनिकों की रक्षा करूँ । इस प्रकार मेरा मन संकल्प-विकल्प में पड़ा है, सो आप जानते ही हैं । बताइये, अब मेरे लिये क्या करना अच्छा होगा। अर्जुन के ऐसा कहने पर भगवान श्रीकृष्ण ने अपने रथ को उसी ओर लौटाया, जिस ओर से त्रिगर्तराज सुशर्मा उन पाण्डुकुमार को युद्ध के लिये ललकार रहा था। तत्पश्चात् अर्जुन ने सुशर्मा को सात बाणों से घायल करके दो छुरों द्वारा उसके ध्वज और धनुष को काट डाला। साथ ही त्रिगर्तराज के भाइयो को छ: बाण मारकर अर्जुन ने उसे घोड़े और सारथि सहित तुरंत यमलोक भेज दिया। तदनन्तर सुशर्मा ने सर्प के समान आकृतिवाली लोहे की बनी हुई एक शक्ति को अर्जुन के ऊपर चलाया और वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण पर तोमर से प्रहार किया। अर्जुन ने तीन बाणों द्वारा शक्ति तथा तीन बाणों द्वारा तोमर को काटकर सुशर्मा को अपने बाण समूहों द्वारा मोहित करके पीछे लौटा दिया। राजन ! इसके बाद वे इन्द्र के समान बाण समूहों की भारी वर्षा करते हुए जब आपकी सेना पर आक्रमण करने लगे, उस समय आपके सैनिकों मे से कोई भी उन उग्ररूपधारी अर्जुन को रोक न सका। तत्पश्चात् जैसे अग्नि घास-फॅूस के समूह को जला डालती है, उसी प्रकार अर्जुन अपने बाणों द्वारा समस्त कौरव महारथियों को क्षत-विक्षत करते हुए वहां आ पहॅुचे। परम बुद्धिमान कुन्तीपुत्र के उस असह्रा वेग को कौरव सैनिक उसी प्रकार नही सह सके, जैसे प्रजा अग्नि का स्पर्श नही सहन कर पाती। राजन ! अर्जुन ने बाणों की वर्षा से कौरव सेनाओं को आच्छादित करते हुए गरूड़ के समान वेग से भगदत्त पर आक्रमण किया। महाराज ! विजयी अर्जुन ने युद्ध में शत्रुओं की अश्रुधारा को बढानेवाले जिस धनुष को कभी निष्पाप भरतवंशियों का कल्याण करने के लिये नवाया था, उसी को कपटघूत खेलनेवाले आपके पुत्र के अपराध के कारण सम्पूर्ण क्षत्रियों का विनाश करने के लिये हाथ में लिया। नरेश्वर ! कुन्तीकुमार अर्जुन के द्वारा मथी जाती हुई आपकी वाहिनी उसी प्रकार छिन्न–भिन्न होकर बिखर गयी, जैसे नाव किसी पर्वत से टकराकर टूक-टूक हो जाती है। तदनन्तर दस हजार धनुर्धर वीर जय अथवा पराजय के हेतु भूत युद्ध का क्रूरतापूर्ण निश्चय करके लौट आये। उन महारथियों ने अपने हृदय से भय को निकालकर अर्जुन को वहां घेर लिया । युद्धमें समस्त भारों को सहन करनेवाले अर्जुन उनसे लड़ने का भारी भार भी अपने ही ऊपर ले लिया। जैसे साठ वर्षका मदस्त्रावी हाथी क्रोध में भरकर नरकुलों के जगंल को रौदकर धूल में मिला देता है, उसी प्रकार प्रयत्नशील पार्थ ने आपकी सेना को मटियामेट कर दिया। उस सेना के भय डाले जाने पर राजा भगदत्त ने उसी सुप्रतीक हाथी के द्वारा सहसा धनंजय पर धावा किया। नरश्रेष्ठ अर्जुन ने रथ के द्वारा ही उस हाथी का सामना किया । रथ और हाथी का वह संघर्ष बड़ा भयंकर। शास्त्रीय विधि के अनुसार निर्मित और सुसज्जित रथ तथा सुशिक्षित हाथी के द्वारा वीरवर अर्जुन और भगदत्त संग्रामभूमि में विचरने लगे। तदनन्तर इन्द्र के समान शक्तिशाली राजा भगदत्त अर्जुन पर मेघ-सदृश हाथी से बाण समूहरूपी जलराशि की वर्षा करने लगे। इधर पराक्रमी इन्द्रकुमार अर्जुन ने अपने बाणों की वृष्टि से भगदत्त की बाण वर्षा को अपने मस्तक पहॅुचने के पहले ही छिन्न-भिन्न कर दिया। आर्य ! तदनन्तर प्राग्ज्योतिष नरेश राजा भगदत्त ने भी विपक्षी की उस बाण वर्षा का निवारण करके महाबाहु अर्जुन और श्रीकृष्ण को अपने बाणों से घायल कर दिया। फिर उनके ऊपर बाणों का महान् जाल सा बिछाकर श्रीकृष्ण और अर्जुन दोनों के वध के लिये उस गजराज को आगे बढ़ाया। क्रोध में भरे हुए यमराज के समान उस हाथी को आक्रमण करते देख भगवान श्रीकृष्ण ने तुरंत ही रथ द्वारा उसे दाहिने कर दिया। यद्पि वह महान् गजराज आक्रमण करते समय अपने बहुत निकट आ गया था, तो भी अर्जुन ने धर्म का स्मरण करके सवारों सहित उस हाथी को मृत्यु के अधीन करने की इच्छा नही की *। आदरणीय महाराज ! उस हाथी ने बहुत से हाथियों, रथों और घोड़ों को कुचलकर यमलोक भेज दिया । यह देख अर्जुन को बड़ा क्रोध हुआ। | ||
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत संशप्तकवधपर्व में भगदत्तका युद्धविषयक अट्ठाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ। | इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत संशप्तकवधपर्व में भगदत्तका युद्धविषयक अट्ठाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ। | ||
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११:५६, २९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण
अष्टाविंशो (28) अध्याय: द्रोणपर्व (संशप्तकवध पर्व )
संशप्तकों का संहार करके अर्जुन का कौरव-सेना पर आक्रमण
संजय कहते है- महाराज ! तदनन्तर द्रोण की सेना के समीप जाने की इच्छावाले अर्जुन के सुवर्णभूषित एवं मन के समान वेगशाली अश्रों को भगवान श्रीकृष्ण ने बड़ी उतावली के साथ द्रोणाचार्य की सेनातक पहॅुचने के लिये हांका। द्रोणाचार्य के सताये हुए अपने भाइयो के पास जाते हुए कुरूश्रेष्ठ अर्जुन को भाइयों सहित सुशर्मा ने युद्ध की इच्छा से ललकारा और पीछे से उन पर आक्रमण किया। तब श्वेतवाहन अर्जुन ने अपराजित श्रीकृष्ण से इस प्रकार कहा, अच्युत ! यह भाइयों सहित सुशर्मा मुझे पुन: युद्ध के लिये बुला रहा है। तथा भगदत्त और उनके हाथी का पराक्रम उधर उतर दिशा की ओर अपनी सेना का नाश किया जा रहा है । मधुसूदन ! इन संशप्तकों ने आज मेरे मनको दुविद्या में डाल दिया है। क्या मैं संशप्तकों का वध करूँ अथवा शत्रुओं द्वारा पीडित हुए अपने सैनिकों की रक्षा करूँ । इस प्रकार मेरा मन संकल्प-विकल्प में पड़ा है, सो आप जानते ही हैं । बताइये, अब मेरे लिये क्या करना अच्छा होगा। अर्जुन के ऐसा कहने पर भगवान श्रीकृष्ण ने अपने रथ को उसी ओर लौटाया, जिस ओर से त्रिगर्तराज सुशर्मा उन पाण्डुकुमार को युद्ध के लिये ललकार रहा था। तत्पश्चात् अर्जुन ने सुशर्मा को सात बाणों से घायल करके दो छुरों द्वारा उसके ध्वज और धनुष को काट डाला। साथ ही त्रिगर्तराज के भाइयो को छ: बाण मारकर अर्जुन ने उसे घोड़े और सारथि सहित तुरंत यमलोक भेज दिया। तदनन्तर सुशर्मा ने सर्प के समान आकृतिवाली लोहे की बनी हुई एक शक्ति को अर्जुन के ऊपर चलाया और वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण पर तोमर से प्रहार किया। अर्जुन ने तीन बाणों द्वारा शक्ति तथा तीन बाणों द्वारा तोमर को काटकर सुशर्मा को अपने बाण समूहों द्वारा मोहित करके पीछे लौटा दिया। राजन ! इसके बाद वे इन्द्र के समान बाण समूहों की भारी वर्षा करते हुए जब आपकी सेना पर आक्रमण करने लगे, उस समय आपके सैनिकों मे से कोई भी उन उग्ररूपधारी अर्जुन को रोक न सका। तत्पश्चात् जैसे अग्नि घास-फॅूस के समूह को जला डालती है, उसी प्रकार अर्जुन अपने बाणों द्वारा समस्त कौरव महारथियों को क्षत-विक्षत करते हुए वहां आ पहॅुचे। परम बुद्धिमान कुन्तीपुत्र के उस असह्रा वेग को कौरव सैनिक उसी प्रकार नही सह सके, जैसे प्रजा अग्नि का स्पर्श नही सहन कर पाती। राजन ! अर्जुन ने बाणों की वर्षा से कौरव सेनाओं को आच्छादित करते हुए गरूड़ के समान वेग से भगदत्त पर आक्रमण किया। महाराज ! विजयी अर्जुन ने युद्ध में शत्रुओं की अश्रुधारा को बढानेवाले जिस धनुष को कभी निष्पाप भरतवंशियों का कल्याण करने के लिये नवाया था, उसी को कपटघूत खेलनेवाले आपके पुत्र के अपराध के कारण सम्पूर्ण क्षत्रियों का विनाश करने के लिये हाथ में लिया। नरेश्वर ! कुन्तीकुमार अर्जुन के द्वारा मथी जाती हुई आपकी वाहिनी उसी प्रकार छिन्न–भिन्न होकर बिखर गयी, जैसे नाव किसी पर्वत से टकराकर टूक-टूक हो जाती है। तदनन्तर दस हजार धनुर्धर वीर जय अथवा पराजय के हेतु भूत युद्ध का क्रूरतापूर्ण निश्चय करके लौट आये। उन महारथियों ने अपने हृदय से भय को निकालकर अर्जुन को वहां घेर लिया । युद्धमें समस्त भारों को सहन करनेवाले अर्जुन उनसे लड़ने का भारी भार भी अपने ही ऊपर ले लिया। जैसे साठ वर्षका मदस्त्रावी हाथी क्रोध में भरकर नरकुलों के जगंल को रौदकर धूल में मिला देता है, उसी प्रकार प्रयत्नशील पार्थ ने आपकी सेना को मटियामेट कर दिया। उस सेना के भय डाले जाने पर राजा भगदत्त ने उसी सुप्रतीक हाथी के द्वारा सहसा धनंजय पर धावा किया। नरश्रेष्ठ अर्जुन ने रथ के द्वारा ही उस हाथी का सामना किया । रथ और हाथी का वह संघर्ष बड़ा भयंकर। शास्त्रीय विधि के अनुसार निर्मित और सुसज्जित रथ तथा सुशिक्षित हाथी के द्वारा वीरवर अर्जुन और भगदत्त संग्रामभूमि में विचरने लगे। तदनन्तर इन्द्र के समान शक्तिशाली राजा भगदत्त अर्जुन पर मेघ-सदृश हाथी से बाण समूहरूपी जलराशि की वर्षा करने लगे। इधर पराक्रमी इन्द्रकुमार अर्जुन ने अपने बाणों की वृष्टि से भगदत्त की बाण वर्षा को अपने मस्तक पहॅुचने के पहले ही छिन्न-भिन्न कर दिया। आर्य ! तदनन्तर प्राग्ज्योतिष नरेश राजा भगदत्त ने भी विपक्षी की उस बाण वर्षा का निवारण करके महाबाहु अर्जुन और श्रीकृष्ण को अपने बाणों से घायल कर दिया। फिर उनके ऊपर बाणों का महान् जाल सा बिछाकर श्रीकृष्ण और अर्जुन दोनों के वध के लिये उस गजराज को आगे बढ़ाया। क्रोध में भरे हुए यमराज के समान उस हाथी को आक्रमण करते देख भगवान श्रीकृष्ण ने तुरंत ही रथ द्वारा उसे दाहिने कर दिया। यद्पि वह महान् गजराज आक्रमण करते समय अपने बहुत निकट आ गया था, तो भी अर्जुन ने धर्म का स्मरण करके सवारों सहित उस हाथी को मृत्यु के अधीन करने की इच्छा नही की *। आदरणीय महाराज ! उस हाथी ने बहुत से हाथियों, रथों और घोड़ों को कुचलकर यमलोक भेज दिया । यह देख अर्जुन को बड़ा क्रोध हुआ।
इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्तर्गत संशप्तकवधपर्व में भगदत्तका युद्धविषयक अट्ठाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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