"महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 94 श्लोक 1-13": अवतरणों में अंतर
[अनिरीक्षित अवतरण] | [अनिरीक्षित अवतरण] |
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) ('==चतुर्नवतितमो (93) अध्याय :अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)== ...' के साथ नया पन्ना बनाया) |
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) छो (Text replace - "Category:महाभारत अनुशासनपर्व" to "Category:महाभारत अनुशासन पर्व") |
||
(इसी सदस्य द्वारा किए गए बीच के ३ अवतरण नहीं दर्शाए गए) | |||
पंक्ति १: | पंक्ति १: | ||
==चतुर्नवतितमो ( | ==चतुर्नवतितमो (94) अध्याय :अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)== | ||
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: अनुशासनपर्व: चतुर्नवतितमो अध्याय: श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद </div> | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: अनुशासनपर्व: चतुर्नवतितमो अध्याय: श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद </div> | ||
;ब्रह्मसरतीर्थ में अगस्त्यजी के कमलों की चोरी होने पर ब्रह्मर्षियों और राजर्षियों की धर्मोपदेशपूर्ण शपथ तथा धर्मज्ञान के उद्देश्य से चुराये हुए कमलों का वापस देना | ;ब्रह्मसरतीर्थ में अगस्त्यजी के कमलों की चोरी होने पर ब्रह्मर्षियों और राजर्षियों की धर्मोपदेशपूर्ण शपथ तथा धर्मज्ञान के उद्देश्य से चुराये हुए कमलों का वापस देना । | ||
भीष्मजी कहते हैं-युधिष्ठिर। इस विषय में एक प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया जाता है। तीर्थ यात्रा के प्रसंग में इसी तरह की शपथ को लेकर एक घटना घटित हुई थी, उसे बताता हूं, सुनो। भरतवंश | भीष्मजी कहते हैं- युधिष्ठिर। इस विषय में एक प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया जाता है। तीर्थ यात्रा के प्रसंग में इसी तरह की शपथ को लेकर एक घटना घटित हुई थी, उसे बताता हूं, सुनो। भरतवंश शिरोमणे ! महाराज ! पूर्वकाल में कुछ राजर्षियों और ब्रह्मर्षियों ने भी इसी प्रकार कमलों के लिये चोरी की थी। पश्चिम समुद्र के तट पर प्रभास तीर्थ में बहुत से ऋषि एकत्र हुए थे। उन समागत महर्षियों ने आपस में यह सलाह की कि हम लोग अनेक पुण्य तीर्थों से भरी हुई समूची पृथ्वी की यात्रा करें। यह हम सभी लोगों की अभिलाषा है। अतः सब लोग साथ-ही-साथ यात्रा प्रारम्भ कर दें। राजन ! ऐसा निश्चय करके शुक्र, अंगिरा, विद्वान कवि, अगस्त्य, नारद, पर्वत, भृगु, वसिष्ठ, गौतम, कश्यप, विश्वामित्र , जमदग्नि, गालव मुनि, अष्टक, भारद्वाज, अरुन्धती, वालखिल्यगण, शिबि, दिलीप, नहुष, अंबरीष, राजा ययाति, धुन्धुकुमार और पुरू - ये सभी राजर्षि तथा ब्रह्मर्षि वज्रधारी महानुभाव वृत्रहन्ता शतक्रतु इन्द्र को आगे करके यात्रा के लिये निकले और सभी तीर्थों में घूमते हुए माघ मास की पूर्णिमा तिथी को पुण्य सालिला कौषकी नदी के तट पर जा पहुंचे । इस प्रकार वहां के तीर्थों में स्नान के द्वारा अपने पाप धोकर ऋषिगण उस स्थान से परम पवित्र ब्रह्मसर तीर्थ में गये। उन अग्नि के समान तेजस्वी ऋर्षियों ने वहां के जल में स्नान करके कमल के फूलों का आहार किया। राजन ! कुछ ऋषि वहां कमल खोदने लगे। कुछ ब्राह्माण मृणाल उखाड़ने लगे। इसी बीच अगस्त्यजी ने उस पोखरे से जितना कमल उखाड़कर रखा था वह सब सहसा गायब हो गया। इस बात को सबने देखा। तब अगस्त्यजी ने उन समस्त ऋषियों से पूछा- ‘किसने मेरे सुन्दर कमल ले लिये मैं आप सब लोगों पर संदेह करता हूं। मेरे कमल लौटा दीजिये। आप जैसे साधू पुरुषों को कमलों की चोरी करना कदापि उचित नहीं है।' ‘सुनता हूं कि काल धर्म की शक्ति को नष्ट कर देता है। वही काल इस समय प्राप्त हुआ। तभी तो धर्म को हानि पहुंचायी जा रही है - अस्तेय- धर्म का हनन हो रहा है। अतः इस जगत में अधर्म का विस्तार न हो इसके पहले ही हम चिरकाल के लिये स्वर्गलोक में चले जायें । ब्राह्माणलोग गांव के बीच में उच्च स्वर से वेद पाठ करके शूद्रों को सुनाने लगें तथा राजा व्यावसायिक दृष्टि से धर्म को देखने लगें, इससे पहले ही मैं परलोक में चला जाऊं। ‘जब तक सभी श्रेष्ठ मनुष्य महान पुरुषों की नीचों के समान अवहेलना नहीं करते हैं तथा जब तक इस संसार में अज्ञान जनित तमोगुण का बाहुल्य नहीं हो जाता, इसके पहले ही मैं चिरकाल के लिये परलोक चला जाऊं।' ‘भविष्यकाल में बलवान मनुष्य दुर्बलों को अपने उपभोग में लायेंगे, इस बात को मैं अभी से देख रहा हूं।' इसलिये मैं दीर्घकाल के लिये परलोक में चला जाऊं। यहां रहकर इस जीव जगत की ऐसी दुर्वस्था में नहीं नहीं देख सकता। | ||
{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 93 श्लोक 137-145|अगला=महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 94 श्लोक 14-28}} | {{लेख क्रम |पिछला=महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 93 श्लोक 137-145|अगला=महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 94 श्लोक 14-28}} | ||
==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ||
<references/> | <references/> | ||
==संबंधित लेख== | ==संबंधित लेख== | ||
{{महाभारत}} | {{सम्पूर्ण महाभारत}} | ||
[[Category:कृष्ण कोश]] [[Category:महाभारत]][[Category:महाभारत | [[Category:कृष्ण कोश]] [[Category:महाभारत]][[Category:महाभारत अनुशासन पर्व]] | ||
__INDEX__ | __INDEX__ |
१३:५०, २० जुलाई २०१५ के समय का अवतरण
चतुर्नवतितमो (94) अध्याय :अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)
- ब्रह्मसरतीर्थ में अगस्त्यजी के कमलों की चोरी होने पर ब्रह्मर्षियों और राजर्षियों की धर्मोपदेशपूर्ण शपथ तथा धर्मज्ञान के उद्देश्य से चुराये हुए कमलों का वापस देना ।
भीष्मजी कहते हैं- युधिष्ठिर। इस विषय में एक प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया जाता है। तीर्थ यात्रा के प्रसंग में इसी तरह की शपथ को लेकर एक घटना घटित हुई थी, उसे बताता हूं, सुनो। भरतवंश शिरोमणे ! महाराज ! पूर्वकाल में कुछ राजर्षियों और ब्रह्मर्षियों ने भी इसी प्रकार कमलों के लिये चोरी की थी। पश्चिम समुद्र के तट पर प्रभास तीर्थ में बहुत से ऋषि एकत्र हुए थे। उन समागत महर्षियों ने आपस में यह सलाह की कि हम लोग अनेक पुण्य तीर्थों से भरी हुई समूची पृथ्वी की यात्रा करें। यह हम सभी लोगों की अभिलाषा है। अतः सब लोग साथ-ही-साथ यात्रा प्रारम्भ कर दें। राजन ! ऐसा निश्चय करके शुक्र, अंगिरा, विद्वान कवि, अगस्त्य, नारद, पर्वत, भृगु, वसिष्ठ, गौतम, कश्यप, विश्वामित्र , जमदग्नि, गालव मुनि, अष्टक, भारद्वाज, अरुन्धती, वालखिल्यगण, शिबि, दिलीप, नहुष, अंबरीष, राजा ययाति, धुन्धुकुमार और पुरू - ये सभी राजर्षि तथा ब्रह्मर्षि वज्रधारी महानुभाव वृत्रहन्ता शतक्रतु इन्द्र को आगे करके यात्रा के लिये निकले और सभी तीर्थों में घूमते हुए माघ मास की पूर्णिमा तिथी को पुण्य सालिला कौषकी नदी के तट पर जा पहुंचे । इस प्रकार वहां के तीर्थों में स्नान के द्वारा अपने पाप धोकर ऋषिगण उस स्थान से परम पवित्र ब्रह्मसर तीर्थ में गये। उन अग्नि के समान तेजस्वी ऋर्षियों ने वहां के जल में स्नान करके कमल के फूलों का आहार किया। राजन ! कुछ ऋषि वहां कमल खोदने लगे। कुछ ब्राह्माण मृणाल उखाड़ने लगे। इसी बीच अगस्त्यजी ने उस पोखरे से जितना कमल उखाड़कर रखा था वह सब सहसा गायब हो गया। इस बात को सबने देखा। तब अगस्त्यजी ने उन समस्त ऋषियों से पूछा- ‘किसने मेरे सुन्दर कमल ले लिये मैं आप सब लोगों पर संदेह करता हूं। मेरे कमल लौटा दीजिये। आप जैसे साधू पुरुषों को कमलों की चोरी करना कदापि उचित नहीं है।' ‘सुनता हूं कि काल धर्म की शक्ति को नष्ट कर देता है। वही काल इस समय प्राप्त हुआ। तभी तो धर्म को हानि पहुंचायी जा रही है - अस्तेय- धर्म का हनन हो रहा है। अतः इस जगत में अधर्म का विस्तार न हो इसके पहले ही हम चिरकाल के लिये स्वर्गलोक में चले जायें । ब्राह्माणलोग गांव के बीच में उच्च स्वर से वेद पाठ करके शूद्रों को सुनाने लगें तथा राजा व्यावसायिक दृष्टि से धर्म को देखने लगें, इससे पहले ही मैं परलोक में चला जाऊं। ‘जब तक सभी श्रेष्ठ मनुष्य महान पुरुषों की नीचों के समान अवहेलना नहीं करते हैं तथा जब तक इस संसार में अज्ञान जनित तमोगुण का बाहुल्य नहीं हो जाता, इसके पहले ही मैं चिरकाल के लिये परलोक चला जाऊं।' ‘भविष्यकाल में बलवान मनुष्य दुर्बलों को अपने उपभोग में लायेंगे, इस बात को मैं अभी से देख रहा हूं।' इसलिये मैं दीर्घकाल के लिये परलोक में चला जाऊं। यहां रहकर इस जीव जगत की ऐसी दुर्वस्था में नहीं नहीं देख सकता।
« पीछे | आगे » |