"महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 160 श्लोक 1-19": अवतरणों में अंतर

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१२:४८, १९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

षष्ट्यधिकशततम (160) अध्याय: द्रोणपर्व (घटोत्‍कचवध पर्व )

महाभारत: द्रोणपर्व: षष्ट्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद

अश्वत्थामा का दुर्योधन को उपालम्भपूर्ण आश्वासन देकर पान्चालों के साथ युद्ध करते हुए धृष्टद्युम्न के रथसहित सारथि को नष्ट करके उसकी सेना को भगाकर अद्भुत पराक्रम दिखाना

संजय कहते हैं- राजन्! दुर्योधन के ऐसा कहने पर रणदुर्भद अश्वत्थामा ने उसी प्रकार शत्रुवध के लिये प्रयत्न आरम्भ किया, जैसे इन्द्र दैत्यवध के लिये यत्न करते हैं। उस समय महाबाहु अश्वत्थामा ने आपके पुत्र से यह वचन कहा- ‘महाबाहु कौरवनन्दन! तुम जैसा कहते हो, यही ठीक है। ‘कुरूश्रेष्ठ! पाण्डव् मुझे तथा मेरे पिताजी को भी बहुत प्रिय हैं। इसी प्रकार उनकेा भी हम दोनों पिता-पुत्र प्रिय हैं, किन्तु युद्धस्थल में हमारा यह भाव नहीं रहता। ‘तात! हम अपने प्राणों का मोह छोड़कर निर्भय से होकर यथाशक्ति युद्ध करते हैं। नृपश्रेष्ठ! मैं, कर्ण, शल्य, कृप् और कृतवर्मा पलक मारते-मारते पाण्डव सेना का संहार कर सकते हैं। ‘महाबाहु कुरूश्रेष्ठ! यदि युद्धस्थल में हम लोग न रहें, तो पाण्डव भी आधे निमेष में ही कौरव सेना का संहार कर सकते हैं। ‘हम यथाशक्ति पाण्डवों से युद्ध करते हैं और वे हम लोगों से युद्ध करना चाहते हैं। भारत! इस प्रकार हमारा तेज परस्पर एक दूसरे से टकराकर शान्त हो जाता है। ‘राजन्! मैं तुमसे सत्य यकहता हूँ कि पाण्डवों के जीते जी उनकी सेना को बलपूर्वक जीतना असम्भव है। ‘भरतनन्दन! पाण्डव शक्तिशाली हैं और अपने लिये युद्ध करते हैं, फिर वे किस लिये तुम्हारी सेनाओं का संहार नहीं करेंगे। ‘कौरवनरेश! तुम तो लोभी और छल-कपट की विद्या को जानने वाले हो। सब पर संदेह करने वाले और अभिमानी हो, इसीलिये हम लोगों पर भी शंका करते हो। ‘राजन्! मेरी मान्यता है कि तुम निन्दित, पापात्मा एवं पापपुरूष हो।’ क्षुद्र नरेश! तुम्हारा अन्तःकरण पाप भावना से ही पूर्ण है, इसीलिये तुम हम पर तथा दूसरों पर भी संदेह करते हो। ‘कुरूनन्दन! मैं अभी तुम्हारे लिये जीवन का मोह छोड़कर पूरा प्रयत्न करके संग्राम-भूमि में जा रहा हूँ। ‘शत्रुदमन! मैं शत्रुओं के साथ युद्ध करूँगा और उनके प्रधान-प्रधान वीरों पर विजय पाऊँगा। संग्रामभूमि में तुम्हारा प्रिय करने के लिये मैं पान्चालों, सोमकों, केकयों तथा पाण्डवों के साथ भी युद्ध करूँगा। ‘आज पान्चाल और सोमक योद्धा मेरे बाणों से दग्ध होकर सिंह से पीड़ित हुई गौओं के समान सब ओर भाग जायेंगे। ‘आज सोमको सहित धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर मेरा पराक्रम देखकर सम्पूर्ण जगत् को अश्वत्थामा से भरा हुआ मानेंगे। ‘सोमकों सहित पान्चालों को युद्ध में मारा गया देख आज धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर के मन में बड़ा निर्वेद (खेद एवं वैराग्य) होगा। ‘भारत! जो लोग रण भूमि में मेरे साथ युद्ध करेंगे, उन्हें मैं मार डालूँ। वीर! मेरी भुजाओं के भीतर आकर शत्रुसैनिक जीवित नहीं छूट सकेंगे’। आपके पुत्र दुर्योधन से ऐसा कहकर महाबाहु अश्वत्थामा समस्त धनुर्धरों को त्रास देता हुआ युद्ध के लिये शत्रुओं के सामने डट गया। प्राणियों में श्रेष्ठ अश्वत्थामा आपके पुत्रों का प्रिय करना चाहता थ। तदनन्तर गौतमीनन्दन अश्वत्थामा ने केकयों सहित पान्चालों से कहा- ‘महारथियों! अब सब लोग मिलकर मेरे शरीर पर प्रहार करो और अपनी अस्त्र-संचालन की फुर्ती दिखाते हुए सुस्थिर होकर युद्ध करो’।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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