"महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 160 श्लोक 20-40": अवतरणों में अंतर

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१२:४८, १९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

षष्ट्यधिकशततम (160) अध्याय: द्रोणपर्व (घटोत्‍कचवध पर्व )

महाभारत: द्रोणपर्व: षष्ट्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 20-40 का हिन्दी अनुवाद

महाराज! अश्वत्थामा के ऐसा कहने पर वे सभी वीर उसके ऊपर उसी प्रकार अस्त्र-शस्त्रों की वर्षा करने लगे, जैसे मेघ पर्वत पर पानी बरसाते हैं। प्रभो! द्रोणकुमार ने उनके उनप बाणों को नष्ट करके उनमें से दस वीरों को पाण्डवों और धृष्टद्युम्न के सामने ही मार गिराया। समरागंण में मारे जाते हुए पान्चाल और सोमक द्रोण पुत्र अश्वत्थामा को छोड़कर दसों दिशाओं में भाग गये। महाराज! शूरवीर पान्चालों और सोमकों को भागते देख धृष्टद्युम्न ने रणक्षेत्र में अश्वत्थामा पर धावा किया। तदनन्दर सुवर्णचित्रित, सजल जलधर के समान गम्भीर घोष करने वाले तथा युद्ध से कभी पीठ न दिखाने वाले सौ रथों एवं शूरवीर रथियों से घिरे हुए पान्चालराजकुमार महारथी धृष्टद्युम्न ने अपने योद्धाओं को मारा गया देख द्रोणकुमार अश्वत्थामा से इस प्रकार कहा-। ‘खोटी बुद्धिवाले आचार्य पुत्र! दूसरों को मारने से तुम्हे क्या लाभ है। यदि शूरमा हो तो रणक्षेत्र में मेरे साथ भिड़ जाओ। इस समय मेरे सामने खड़े तो हो जाओ, मैं अभी तुम्हें मार डालूँगा’। भरतश्रेष्ठ! ऐसा कहकर प्रतापी धृष्टद्युम्न ने मर्मभेदी एवं पैने बाणों द्वारा आचार्य पुत्र को घायल कर दिया। सुवर्णमय पंख और स्वच्छ धारवाले, सबके शरीरों को विदीर्ण करने में समर्थ वे शीघ्रागमी बाण श्रेणीबद्ध होकर अश्वत्थामा के शरीर में वैसे ही घुस गये, जैसे मधु के लोभी उद्याम भ्रमर भूले हुए वृक्ष पर बैठ जाते हैं।उन बाणों से अत्यन्त घायल होकर मानी द्रोणकुमार पैरों से कुचले गये सर्प के समान अत्यन्त कुपित हो उठा और हाथ में बाण लेकर संभ्रमरहित हो इस प्रकार बोला-। धृष्टद्युम्न! स्थिर होकर दो घड़ी और प्रतीक्षा कर लो, तब तक मैं तुम्हें अपने पैने बाणों द्वारा यमलोक भेज देता हूँ’।। शत्रुवीरों का संहार करने वाले अश्वत्थामा ने ऐसा कहकर शीघ्रतापूर्वक हाथ चलाने वाले कुशल योद्धा की भाँति अपने बाण समूहों द्वारा धृष्टद्युम्न को सब ओर से आच्छादित कर दिया। समरागंण में अश्वत्थामा द्वारा पीडित होने पर रणदुर्मद पान्चाल राजकुमार धृष्टद्युम्न ने उसे वाणी द्वारा डाँट बतायी और इस प्रकार कहा-। ‘दुर्बुद्धि ब्राह्मण! क्या तू मेरी प्रतिज्ञा और उत्पत्ति का वृत्तान्त नहीं जानता। निश्चय ही, मुझे पहले द्रोणाचार्य का वध करके फिर तेरा विनाश करना है। ‘इसीलिये द्रोण के जीते जी अभी युद्धस्थल में तेरा वध नहीं कर रहा हूँ। दुर्मते! इसी रात में प्रभात होने से पहले आज तेरे पिता का वध करके फिर तुझे भी युद्धस्थल में पे्रतलोक को भेजा दूँ। यही मेरे मन का निश्चित विचार है।। ‘कुन्ती के पुत्रों के प्रति जो तेरा द्वेषभाव और कौरवों के प्रति जो भक्तिभाव है, उसे स्थिर होकर दिखा। तू जीते जी मेरे हाथ से छुटकारा नहीं पा सकेगा। ‘जो ब्राह्मण ब्राह्मणत्व का परित्याग करके क्षत्रियधर्म में तत्पर हो, जैसा कि मनुष्यों में अधम तू है, वह सब लोगां के लिये वध्य है’। द्रुपद कुमार के इस प्रकार कठोर वचन कहने पर द्विज श्रेष्ठ अश्वत्थामा को बड़ा क्रोध हुआ और उसने कहा- ‘अरे! खड़ा रह, खड़ा रह’। उसने धृष्टद्युम्न की ओर इस प्रकार देखा मानो अपने नेत्रों के तेज से उन्हें दग्ध कर डालेगा। साथ ही सर्प की भाँति फुफकारते हुए अश्वत्थामा ने उन्हें अपने बाणों द्वारा ढक दिया।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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