"महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 163 श्लोक 18-32": अवतरणों में अंतर
[अनिरीक्षित अवतरण] | [अनिरीक्षित अवतरण] |
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) ('==त्रिषष्टयधिकशततम (163) अध्याय: द्रोणपर्व (घटोत्कचवध ...' के साथ नया पन्ना बनाया) |
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) छो (Text replace - "{{महाभारत}}" to "{{सम्पूर्ण महाभारत}}") |
||
(इसी सदस्य द्वारा किया गया बीच का एक अवतरण नहीं दर्शाया गया) | |||
पंक्ति ५: | पंक्ति ५: | ||
{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 163 श्लोक 1-17|अगला=महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 163 श्लोक | {{लेख क्रम |पिछला=महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 163 श्लोक 1-17|अगला=महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 163 श्लोक 33-38}} | ||
==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ||
<references/> | <references/> | ||
==संबंधित लेख== | ==संबंधित लेख== | ||
{{महाभारत}} | {{सम्पूर्ण महाभारत}} | ||
[[Category:कृष्ण कोश]] [[Category:महाभारत]][[Category:महाभारत द्रोणपर्व]] | [[Category:कृष्ण कोश]] [[Category:महाभारत]][[Category:महाभारत द्रोणपर्व]] | ||
__INDEX__ | __INDEX__ |
१२:४९, १९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण
त्रिषष्टयधिकशततम (163) अध्याय: द्रोणपर्व (घटोत्कचवध पर्व )
सब लोगों ने देख कि मशाल ओर तेल हाथ में लिये पैदल सैनिकों द्वारा सेवित सारी सेनाएँ रात्रि के समय उसी प्रकार प्रकाशित हो उठी हैं, जैसे आकाश में बादल बिजलियों के प्रकाश से प्रकाशित हो उठते हैं। राजेन्द्र। सारी सेना में प्रकाश फैल जाने पर अग्नि के समान प्रतापी द्रोणाचार्य सुवर्णमय कवच धारण करके दोपहर के सूर्य की भाँति सब ओर देदीप्यमान होने लगे। उसु समय सोने के आभूषणों, शुद्ध निष्कों, धनुषों तथा चमकीले शस्त्रों में वहाँ उन मशालों की आग के प्रतिबिम्ब पड़ रहे थे। अजमीढकुलनन्दन। वहाँ जो गदाएँ, शैक्य, चमकीले परिघ तथा रथ-शक्तियाँ घुमायी जा रही थीं, उनमें जो उन मशालों की प्रभाएँ प्रतिबिम्बित होती थीं, वे मानों पुनः पुनः बहुत से नूतन प्रदीप प्रकट करती थीं। राजन्। छत्र, चँवर, खडग, प्रज्वलित विशाल उल्काएँ तथा वहाँ युद्ध करते हुए वीरों की हिलती हुई सुवर्णमालाएँ उस समय प्रदीपों के प्रकाश से बड़ी शोभा पा रही थीं। नरेश्वर। उस समय चमकीले अस्त्रों, प्रदीपों तथा आभूषणों की प्रभाओं से प्रकाशित एवं सुशोभित आपकी सेना अत्यन्त प्रकाश से उद्भासित होने लगी। पानीदार एवं खून से रँगे हुए शस्त्र तथा वीरों द्वारा कँपाये हुए कवच वहाँ प्रदीपों के प्रतिबिम्ब ग्रहण करके वर्षाकाल के आकाश में चमकने वाली बिजली की भाँति अत्यन्त उज्ज्वल प्रभा बिखेर रहे थे। आघात के वेग से कम्पित, आघात करने वाले तथा वेगपूर्वक शत्रु की ओर झपटने वाले वीर मनुष्यों के मुखमण्डल उस समय वायु से हिलाये हुए बडे़-बड़े कमलों के समान सुशोभित हो रहे थे। भरतनन्दन। जैसे सूखे काठ के विशाल वन में आग लग जाने पर वहाँ सूर्य की भी प्रभा फीकी पड़ जाती है, उसी प्रकार उस समय अधिक प्रकाश से प्रज्वलित होती हुई सी आपकी भयानक सेना महान् भय उत्पन्न करने वाली प्रतीत होती थी। हमारी सेना को मशालों के प्रकाश से प्रकाशित देख कुन्ती के पुत्रों ने भी तुरंत ही सारी सेना के पैदल सैनिकों को मशाल जलाने की आज्ञा दी, अतः उन्होंने भी मशालें जला लीं। उनके एक-एक हाथी के लिये सात-सात और एक-एक रथ के लिये दस-दस प्रदीपों की व्यवस्था की गयी। घोड़ों के पृष्ठभाग में दो प्रदीप थे। अगल-बगल में ध्वजाओं के समीप तथा रथ के पिछले भागों में अन्यान्य दीपकों की व्यवस्था की गयी थी। सारी सेनाओं के पार्श्वभाग में, आगे, पीछे, बीच में एवं चारों ओर भिन्न-भिन्न सैनिक जलती हुई मशाले हाथ में लेकर पाण्डु पुत्र कीसेना को प्रकाशित करने लगे। दोनों ही सेनाओँ के अन्यान्य पैदल सैनिक हाथों में प्रदीप धारण किये दोनों ही सेनाओं के भीतर विचरण करने लगे। सारी सेनाओं के पैदल-समूह हाथी, रथ और अश्व समूहों के साथ मिलकर आपकी सेना को तथा पाण्डवों द्वारा सुरक्षित वाहिनी को भी अत्यन्त प्रकाशित करने लगे। जैसे किरणों द्वारा सुशोभित और अपनी प्रभा बिखेरने वाले सूर्यग्रह के द्वारा सुरक्षित अग्निदेव और भी प्रकाशित हो उठते हैं, उसी प्रकार प्रदीपों की प्रभा से अत्यन्त प्रकाशित होने वाले उस पाण्डव सैन्य के द्वारा आपकी सेना का प्रकाश और भी बढ़ गया। उन दोनों सेनाओं का बढ़ा हुआ प्रकाश पृथ्वी, आकाश तथा सम्पूर्ण दिशाओं को लाँघकर चारों ओर फैल गया। प्रदीपों के उस प्रकाश से आपकी तथा पाण्डवों की सेना भी अधिक प्रकाशित हो उठी थी।
« पीछे | आगे » |