"महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 191 श्लोक 1-20": अवतरणों में अंतर
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१२:५५, १९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण
एकनवत्यधिकशततम (191) अध्याय: द्रोणपर्व (द्रोणवध पर्व )
द्रोणाचार्य और धृष्टधुम्न का युद्ध तथा सात्यकि की शूरवीरता और प्रशंसा
संजय कहते है - राजन् ! राजा द्रुपद ने एक महान यज्ञ में देवाराधन करके द्रोणाचार्य का विनाश करने के लिये प्रज्वलित अग्नि से जिस पुत्र को प्राप्त किया था, उस पांचाल राजकुमार धृष्टधुम्न ने जब देख कि आचार्य द्रोण बड़े उद्विग्न हैं और उनका चित्त शोक से व्याकुल है, तब उन्होनें उप पर धावा कर दिया। उस पांचाल पुद्ध ने द्रोणाचार्य के वध की इच्छा रखकर सुदृढ़ प्रत्यक्ष युक्त, मेघगर्जना के समान गंभीर ध्वनि करने वाले, कभी, जीर्ण न होने वाले, भयंकर तथा विजयशील दिव्य धनुष हाथ में लेकर उसके उपर विषधर सर्प के समान भदायक और प्रचण्ड लपटों वाले अग्नि के तुल्य तेज्स्वी एक बाण रखा। धनुष की प्रत्यक्ष खींचने से जो मण्डलाकार घेरा बन गया था, उसके भीतर उस तेजस्वी बाण का रूप शरत्काल में परिधि के भीतर प्रकाशित होने वाले सूर्य के समान जान पड़ता था। धृष्टधुम्न के हाथ में आये हुए उस प्रज्वलित अग्नि के सदृश्य तेजस्वी धनुष को देखकर सब सैनिक यह समझने लगे कि मेरा अन्तकाल आ पहुंचा है। द्रुपद-पुत्र के द्वारा उस बाण को धनुष पर रखा गया देख प्रतापी द्रोण ने भी यह मान लिया कि अब इस शरीर का काल आ गया। राजेन्द्र ! तदनन्तदर आचार्य ने उस अस्त्र को रोकने का प्रयत्न किया, परंतु उन महात्मा के अन्त: करण में वे दिव्यास्त्र पूर्ववत प्रकट न हो सके। उनके निरन्तर बाण चलाते चार दिन और एक रात का समय बीत चुका था । उस दिन के पंद्रह भागों में से तीन ही भाग में उनके सारे बाण समाप्त हो गये। बाणों के समाप्त हो जाने से पुत्र शोक से पीडि़त हुए द्रोणाचार्य नाना प्रकार के दिव्यास्त्रों के प्रकट न होने से महर्षियों की आज्ञा मानकर अब हथियार डाल देने को उधत हो गये, इसलिये तेज से परिपूर्ण होने पर भी वे पूर्ववत् युद्ध नहीं करते थे। इसके बाद द्रोणाचार्य ने पुन: आडिंग रस नाम दिव्य धनुष तथा ब्रहादण्ड के समान बाण हाथ में लेकर धृष्टधुम्न के साथ युद्ध आरम्भ कर दिया। उन्होंने अत्यन्त कुपित होकर अमर्ष में भरे हुए धृष्टधुम्न को अपनी भारी बाण वर्षा से ढक दिया और उन्हें क्षत-विक्षत कर दिया। इतना ही नहीं, द्रोणाचार्य ने अपने तीखे बाणों द्वारा धृष्टधुम्न के बाण, ध्वज और धनुष के सैकड़ों टुकड़े कर डाले और सारथि को भी मार गिराया। तब धृष्टधुम्न हंसकर फिर दूसरा धनुष उठाया और तीखे बाण द्वारा आचार्य की छाती में गहरी चोट पहुंचायी। युद्धस्थल में अत्यंत घायल होकर भी महाधनुर्घर द्रोण ने बिना किसी घबराहट के तीखी धारवाले भल्ल से पुन: उनका धनुष काट दिया। प्रजानाथ ! धृष्टधुम्न के जो-जो बाण, तरकस और धनुष आदि थे, उनमें से गदा और खंड को छोड़कर शेष सारी वस्तुओं को दुर्घर्ष द्रोणाचार्य ने काट डाला। शत्रुओं को संताप देने वाले द्रोण ने कुपित होकर क्रोध में भरे हुए धृष्टधुम्न को नौ प्राणान्तकारी तीक्ष्ण बाणों द्वारा बींध डाला। तब अमेय आत्मबल से सम्पन्न महारथी धृष्टधुम्न ने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करने के लिये अपने रथ के घोड़ो को आचार्य के घोड़ों से मिला दिया। भरतश्रेष्ठ ! वे वायु के समान वेगशाली, कबूतर के समान रंगवाले ओर लाल घोड़े परस्पर मिलकर बड़ी शोभा पाने लगे।
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