"महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 195 श्लोक 1-19": अवतरणों में अंतर

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१२:५६, १९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

पञ्चनवत्‍यधिकशततम (195) अध्याय: द्रोणपर्व ( नारायणास्‍त्रमोक्ष पर्व )

महाभारत: द्रोणपर्व: पञ्चनवत्‍यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद

अश्‍वत्‍थामा के क्रोध पूर्ण उदार और उसके द्वारा नारायणास्‍त्र का प्राकट्य

संजय कहते हैं – नरश्रेष्‍ठ ! धृष्‍टद्युम्र ने मेरे पिता को छल से मार डाला है, यह सुनकर अश्‍वत्माने के नेत्रों में आंसू भर आये । फिर वह रोष से जल उठा। राजेन्‍द्र ! जैसे प्रलय काल में समस्‍त प्राणियों के संहार की इच्‍छा वाले यमराज का तेजोमय शरीर प्रज्वलित हो उठता है, उसी प्रकार वहां देखा गया कि क्रोध से भरे हुए अश्‍वत्‍थामा का शरीर तमतमा उठा है। अपने आंसू भरे नत्रों को बारंबार पोंछकर क्रोध से लंबी सांस खींचते हुए अश्‍वत्‍थामा ने दुर्योधन से इस प्रकार कहा -। राजन ! मेरे पिताने जिस प्रकार हथियार डाल दिया, जिस तरह उन नीचों ने उन्‍हें मार गिराया तथा धर्म का ढोंग रचने वाला युधिष्ठिर जो पाप किया है, वह सब मुझे मालुम हो गया। धर्म पुत्र युधिष्ठिर का क्रूरतापूर्ण नीच कर्म मैनें सुन लिया । राजन ! जो लोग युद्ध में प्रवृत्‍त होते हैं, उन्‍हें विजय और पराजय अवश्‍य प्राप्‍त होती है । परंतु युद्ध में होने वाले वध की अधिक प्रशंसा की गयी है। संग्राम में जुझते हुए वीर को यदि न्‍यायानुकुल वध प्राप्‍त हो जाय, तो वह दु:ख का कारण नहीं होता, क्‍योंकि द्विजों ने युद्ध के इस परिणाम को देखा है। पुरूषसिंह ! इसमें संशय नहीं कि मेरे पिता वीरगति को प्राप्‍त हुए है । उस समय वे मारे गये, इस बात को लेकर उनके लिये शोक करना उचित नहीं है। परन्‍तु धर्म में तत्‍पर रहने पर भी जो समस्‍त सैनिकों के देखते-देखते उनका केश पकड़ा गया, वह अपमान ही मेरे मर्मस्‍थानो को विदीर्ण किये देता है। मेरे जीते-जी यदि पिता को अपने केश पकड़े जाने का अपमानपूर्ण कष्‍ट उठाना पड़ा, तब दूसरे पुत्रवान् पुरूष किस लिये पुत्रों की अभिलाषा करेंगे ? लोग काम, क्रोध, अज्ञान, हर्ष अथवा बालोचित चपलाता के कारण धर्म के विरूद्ध कार्य करते तथा श्रेष्‍ठ पुरूषों का अपमान कर बैठते हैं । क्रूर एवं दुरात्‍मा द्रुपद पुत्र ने निश्‍चय ही मेरी अवहेलना करके यह महान पाप कर्म कर डाला है । अत: उस धृष्‍टधुम्र को उस पाप का अत्‍यन्‍त भयंकर परिणाम भोगना पड़ेगा। साथ ही मिथ्‍यावादी पाण्‍डुपुत्र युधिष्ठिर को भीयह अत्‍यन्‍त नीच कर्म करने के कारण इसका दारूण परिणाम देखना पड़ेगा । जिससे छल करके आचार्य से उस समय शस्‍त्र रखवा दिया था, उस धर्मराज युधिष्ठिर का रक्‍त आज यह पृथ्‍वी पीयेगी। कुरूनन्‍दन ! मैं अपने सत्‍य, इष्‍ट (यज्ञ-यागादि) और आपूर्त (वापी-तड़ागनिर्माण आदि) कर्मो की शपथ खाकर कहता हूं कि समस्‍त पांचालों का वध किये बिना किसी तरह जीवित नहीं रह सकूंगा । सभी उपायों से पांचालों को मार डालने का प्रयत्‍न करूंगा। समरभूमि में पापाचारी धृष्‍टधुम्र को मैं कोमल और कठोर जिस किसी भी कर्म के द्वारा अवश्‍य मार डालूंगा। कुरूनन्‍दन ! पांचालों का वध करके ही मैं शांति पा सकूंगा । पुरूष सिंह ! मनुष्‍य इसीलिये पुत्रों की इच्‍छा करते है कि प्राप्‍त होने पर इह लोक ओर परलोक में भी महान भय से रक्षा करेंगे। मेरे पिताजी मुझ पर्वत-सरीखे पुत्र और शिष्‍य के जीते-जी बन्‍धुहीन की भांति वह दुरवस्‍था प्राप्‍त की है। मेरे दिव्‍यास्‍त्रों को धिक्‍कार है ! मेर इन दोनों भुआओं को धिक्‍कार है ! तथा मेरे पराक्रम को धिक्‍कार है ! ! जब कि मेरे-जैसे पुत्र को पाकर आचार्य द्रोण ने केशग्रहण का अपमान उठाया।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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