"महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 198 श्लोक 37-56": अवतरणों में अंतर
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१२:५७, १९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण
अष्टनवत्यधिकशततम (198) अध्याय: द्रोणपर्व ( नारायणास्त्रमोक्ष पर्व )
यदि मूर्खतावश तू पून: मुझसे ऐसी कठोर बातें कहेगा, तो युद्ध में बाणों द्वारा मैं अभी तुझे यमलोक भेज दूंगा। ओ मूर्ख ! केवल धर्म से ही युद्ध नहीं जीता जा सकता । उन कौरवों की भी जो अधर्मपूर्ण चेष्टाएं हुई है, उन्हें सुन ले। सात्यके ! सबसे पहले पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर को अधर्मपूर्वक छला गया। फिर अधर्म से ही द्रोपदी को अपमानित किया गया। ओ मूर्ख ! समस्त पाण्डवों को जो द्रोपदी के साथ वन में भेज दिया गया और उनका सर्वस्व छीन लिया गया, वह भी अधर्म् का ही कार्य था। शत्रुओं ने अधर्म से ही छलकर मद्रराज शल्य को अपने पक्ष में खींच लिया और मुभद्रा के बालक पुत्र अभिमन्यु को भी अधर्म से ही मार डाला था। पाने वालो भीष्म मारे गये हैं ओर तू बड़ा धर्मश बनता है पर तूने भी अधर्म से ही भूरिश्रवा का वध किया है। सात्वत ! इस प्रकार धर्म के जानने वाले वीर पाण्डवों तथा शत्रुओं ने भी युद्ध के मैदान में अपनी विजय को सुरक्षित रखने के लिये समय-समय पर अधर्म पूर्ण बर्ताव किया है। उत्तम धर्म का स्वरूप जानना अत्यंत कठिन है । अधर्म क्या है ? इसे समझना भी सरल नहीं है । अब तू कौरवों के साथ पूर्ववत् युद्ध कर । मुझसे विवाद करके पितृलोक में जाने की तैयारी न कर।
संजय कहते हैं - राजन ! इस प्रकार कितने ही क्रूर एवं कठोर वचन धृष्टधुम्र ने श्रीमान् सात्यकि को सुनाये । उन्हें सुनकर वे क्रोध से कांपने लगे । उनकी आंखे लाल हो गयीं तथा उन्होने सर्प के समान लंबी सांस खींचकर धनुष को तो रथपर रख दिया और हाथ में गदा उठा ली । फिर वे धृष्टधुम्र पास पहुंचकर बड़े रोष के साथ इस प्रकार बोले - अब मैं तुझसे कठोर वचन नहीं कहूंगा । तू वध के ही योग्य है, अत: तुझे मार ही डालूंगा। महाबली, अमर्षशील एवं अत्यंत क्रोध में भरे हुए यमराज-तुल्य सात्यकि जब सहसा कालस्वरूप धृष्टधुम्र की ओर बढ़े, तब भगवान श्रीकृष्ण की आज्ञा से महाबली भीमसेन ने तुरंत ही रथ से कूदकर उन्हें दोनों हाथों से रोक लिया। क्रोधपूर्वक आगे बढ़ते और झपटते हुए बलवान् सात्यकि को महाबली पाण्डुपुत्र भीम ने थामकर साथ-साथ चलना आरम्भ किया। फिर भीम ने खड़े होकर अपने दोनों पैर जमा दिये और बलवानों में श्रेष्ठ शिनिप्रवर सात्यकि को छठे कदम पर बलपूर्वक् काबू कर लिया। प्रजानाथ ! इतने ही में सहदेव भी तुरंत ही रथ से उतर पड़े और महाबली भीम सने के द्वारा पकड़े गये सात्यकि से मुधर वाणी में इस प्रकार बोले -। माननीय पुरूषसिंह ! अन्धक और वृष्णिवंश के यादवों तथा पांचालों बढ़कर दूसरा कोई मह लोगों का मित्र नहीं है । इस प्रकार अन्धक और वृष्णिवंश के लोगों का तथा विशेषत: श्रीकृष्ण का हम लोगों से बढ़कर दूसरा कोई मित्र नहीं है।वाष्णेंय ! पांचाल लोग भी यदि समुद्र तक की सारी पृथ्वी खोज डालें, तो भी उन्हें दूसरा कोई वैसा मित्र नहीं मिलेगा, जैसे उनके लिये पाण्डव और वृष्णिवंश के लोग है। आप भी हमारे ऐसे ही मित्र हैं, जैसा कि आप स्वयं भी मानते हैं । आप लोग जैसे हमारे मित्र हैं, वैसे ही हम भी आपके हैं।
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