"श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 69 श्लोक 22-29": अवतरणों में अंतर

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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकोनसप्ततितमोऽध्यायः श्लोक 22-29 का हिन्दी अनुवाद </div>
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकोनसप्ततितमोऽध्यायः श्लोक 22-29 का हिन्दी अनुवाद </div>
एक दिन की बात है, द्वारकापुरी में राजसभा के द्वार पर एक नया मनुष्य आया। द्वारपालों ने भगवान् को उसके आने की सूचना देकर उसे सभा भवन में उपस्थित किया । उस मनुष्य ने परमेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण को हाथ जोड़कर नमस्कार किया और उन राजाओं का, जिन्होंने जरासन्ध के दिग्विजय के समय उसके सामने सिर नहीं झुकाया था और बलपूर्वक कैद लिये गये थे, जिनकी संख्या बीस हजार थी, जरासन्ध के बंदी बनने का दुःख श्रीकृष्ण के सामने निवेदन किया—  ‘सच्चिदानन्दस्वरुप श्रीकृष्ण! आप मन और वाणी के अगोचर हैं। जो आपकी शरण में आता है, उसके सारे भय आप नष्ट कर देते हैं। प्रभो! हमारी भेद-बुद्धि मिटी नहीं है। हम जन्म-मृत्यु रूप संसार के चक्कर से भयभीत होकर आपकी शरण में आये हैं । भगवन्! अधिकांश जीव ऐसे सकाम और निषिद्ध कर्मों में फँसे हुए हैं कि वे आपके बतलाये हुए अपने परम कल्याणकारी कर्म, आपकी उपासना से विमुख हो गये हैं और अपने जीवन एवं जीवनसम्बन्धी आशा-अभिलाषाओं में भ्रम-भटक रहे हैं। परन्तु आप बड़े बलवान् हैं। आप काल रूप से सदा-सर्वदा सावधान रहकर उनकी आशालता का तुरंत समूल उच्छेद कर डालते हैं। हम आपके उस कालरूप को नमस्कार करते हैं । आप स्वयं जगदीश्वर हैं और आपने जगत् में अपने ज्ञान, बल आदि कलाओं के साथ इसलिये अवतार ग्रहण किया है कि संतों की रक्षा करें और दुष्टों को दण्ड दें। ऐसी अवस्था में प्रभो! जरासन्ध आदि कोई दूसरे राजा आपकी इच्छा और आज्ञा के विपरीत हमें कैसे कष्ट दे रहे हैं, यह बात हमारी समझ में नहीं आती। यदि यह कहा जाय कि जरासन्ध हमें कष्ट नहीं देता, उसके रूप में—उसे निमित्त बनाकर हमारे अशुभ कर्म ही हमें दुःख पहुँचा रहे हैं; तो यह भी ठीक नहीं। क्योंकि जब हम लोग आपके अपने हैं, तब हमारे दुष्कर्म हमें फल देने में कैसे समर्थ हो सकते हैं ? इसलिये आप कृपा करके अवश्य ही हमें इस क्लेश से मुक्त कीजिये । प्रभो! हम जानते हैं कि राजापने का सुख प्रारब्ध के अधीन और विषयसाध्य है। और सच कहें तो स्वप्न-सुख के समान तुच्छ और असत् है। साथ ही उस सुख को भोगने वाला यह शरीर भी एक प्रकार से मुर्दा ही है और इसके पीछे सदा-सर्वदा सैकड़ों प्रकार के भय लगे रहते हैं। परन्तु हम तो इसी के द्वारा जगत् के अनेकों भार ढो रहे हैं और यही कारण है कि हमने अंतःकरण के निष्काम-भाव और निस्संकल्प स्थिति से प्राप्त होने वाले आत्मसुख का परित्याग कर दिया है। सचमुच हम अत्यन्त अज्ञानी हैं और आपकी माया के फंदे में फँसकर क्लेश-पर-क्लेश भोगते जा रहे हैं । भगवन्! आपके चरण-कमल शरणागत पुरुषों के समस्त शोक और मोहों को नष्ट कर देने वाले हैं। इसलिये आप ही जरासन्धरूप कर्मों के बन्धन से हमें छुड़ाइये। प्रभो! यह अकेला ही दस हजार हाथियों की शक्ति रखता है और हम लोगों को उसी प्रकार बंदी बनाये हुए हैं, जैसे सिंह भेड़ों को घेर रखे ।
एक दिन की बात है, द्वारकापुरी में राजसभा के द्वार पर एक नया मनुष्य आया। द्वारपालों ने भगवान  को उसके आने की सूचना देकर उसे सभा भवन में उपस्थित किया । उस मनुष्य ने परमेश्वर भगवान  श्रीकृष्ण को हाथ जोड़कर नमस्कार किया और उन राजाओं का, जिन्होंने जरासन्ध के दिग्विजय के समय उसके सामने सिर नहीं झुकाया था और बलपूर्वक कैद लिये गये थे, जिनकी संख्या बीस हजार थी, जरासन्ध के बंदी बनने का दुःख श्रीकृष्ण के सामने निवेदन किया—  ‘सच्चिदानन्दस्वरुप श्रीकृष्ण! आप मन और वाणी के अगोचर हैं। जो आपकी शरण में आता है, उसके सारे भय आप नष्ट कर देते हैं। प्रभो! हमारी भेद-बुद्धि मिटी नहीं है। हम जन्म-मृत्यु रूप संसार के चक्कर से भयभीत होकर आपकी शरण में आये हैं । भगवन्! अधिकांश जीव ऐसे सकाम और निषिद्ध कर्मों में फँसे हुए हैं कि वे आपके बतलाये हुए अपने परम कल्याणकारी कर्म, आपकी उपासना से विमुख हो गये हैं और अपने जीवन एवं जीवनसम्बन्धी आशा-अभिलाषाओं में भ्रम-भटक रहे हैं। परन्तु आप बड़े बलवान् हैं। आप काल रूप से सदा-सर्वदा सावधान रहकर उनकी आशालता का तुरंत समूल उच्छेद कर डालते हैं। हम आपके उस कालरूप को नमस्कार करते हैं । आप स्वयं जगदीश्वर हैं और आपने जगत् में अपने ज्ञान, बल आदि कलाओं के साथ इसलिये अवतार ग्रहण किया है कि संतों की रक्षा करें और दुष्टों को दण्ड दें। ऐसी अवस्था में प्रभो! जरासन्ध आदि कोई दूसरे राजा आपकी इच्छा और आज्ञा के विपरीत हमें कैसे कष्ट दे रहे हैं, यह बात हमारी समझ में नहीं आती। यदि यह कहा जाय कि जरासन्ध हमें कष्ट नहीं देता, उसके रूप में—उसे निमित्त बनाकर हमारे अशुभ कर्म ही हमें दुःख पहुँचा रहे हैं; तो यह भी ठीक नहीं। क्योंकि जब हम लोग आपके अपने हैं, तब हमारे दुष्कर्म हमें फल देने में कैसे समर्थ हो सकते हैं ? इसलिये आप कृपा करके अवश्य ही हमें इस क्लेश से मुक्त कीजिये । प्रभो! हम जानते हैं कि राजापने का सुख प्रारब्ध के अधीन और विषयसाध्य है। और सच कहें तो स्वप्न-सुख के समान तुच्छ और असत् है। साथ ही उस सुख को भोगने वाला यह शरीर भी एक प्रकार से मुर्दा ही है और इसके पीछे सदा-सर्वदा सैकड़ों प्रकार के भय लगे रहते हैं। परन्तु हम तो इसी के द्वारा जगत् के अनेकों भार ढो रहे हैं और यही कारण है कि हमने अंतःकरण के निष्काम-भाव और निस्संकल्प स्थिति से प्राप्त होने वाले आत्मसुख का परित्याग कर दिया है। सचमुच हम अत्यन्त अज्ञानी हैं और आपकी माया के फंदे में फँसकर क्लेश-पर-क्लेश भोगते जा रहे हैं । भगवन्! आपके चरण-कमल शरणागत पुरुषों के समस्त शोक और मोहों को नष्ट कर देने वाले हैं। इसलिये आप ही जरासन्धरूप कर्मों के बन्धन से हमें छुड़ाइये। प्रभो! यह अकेला ही दस हजार हाथियों की शक्ति रखता है और हम लोगों को उसी प्रकार बंदी बनाये हुए हैं, जैसे सिंह भेड़ों को घेर रखे ।


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१२:४०, २९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

दशम स्कन्ध: एकोनसप्ततितमोऽध्यायः(69) (उत्तरार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकोनसप्ततितमोऽध्यायः श्लोक 22-29 का हिन्दी अनुवाद

एक दिन की बात है, द्वारकापुरी में राजसभा के द्वार पर एक नया मनुष्य आया। द्वारपालों ने भगवान को उसके आने की सूचना देकर उसे सभा भवन में उपस्थित किया । उस मनुष्य ने परमेश्वर भगवान श्रीकृष्ण को हाथ जोड़कर नमस्कार किया और उन राजाओं का, जिन्होंने जरासन्ध के दिग्विजय के समय उसके सामने सिर नहीं झुकाया था और बलपूर्वक कैद लिये गये थे, जिनकी संख्या बीस हजार थी, जरासन्ध के बंदी बनने का दुःख श्रीकृष्ण के सामने निवेदन किया— ‘सच्चिदानन्दस्वरुप श्रीकृष्ण! आप मन और वाणी के अगोचर हैं। जो आपकी शरण में आता है, उसके सारे भय आप नष्ट कर देते हैं। प्रभो! हमारी भेद-बुद्धि मिटी नहीं है। हम जन्म-मृत्यु रूप संसार के चक्कर से भयभीत होकर आपकी शरण में आये हैं । भगवन्! अधिकांश जीव ऐसे सकाम और निषिद्ध कर्मों में फँसे हुए हैं कि वे आपके बतलाये हुए अपने परम कल्याणकारी कर्म, आपकी उपासना से विमुख हो गये हैं और अपने जीवन एवं जीवनसम्बन्धी आशा-अभिलाषाओं में भ्रम-भटक रहे हैं। परन्तु आप बड़े बलवान् हैं। आप काल रूप से सदा-सर्वदा सावधान रहकर उनकी आशालता का तुरंत समूल उच्छेद कर डालते हैं। हम आपके उस कालरूप को नमस्कार करते हैं । आप स्वयं जगदीश्वर हैं और आपने जगत् में अपने ज्ञान, बल आदि कलाओं के साथ इसलिये अवतार ग्रहण किया है कि संतों की रक्षा करें और दुष्टों को दण्ड दें। ऐसी अवस्था में प्रभो! जरासन्ध आदि कोई दूसरे राजा आपकी इच्छा और आज्ञा के विपरीत हमें कैसे कष्ट दे रहे हैं, यह बात हमारी समझ में नहीं आती। यदि यह कहा जाय कि जरासन्ध हमें कष्ट नहीं देता, उसके रूप में—उसे निमित्त बनाकर हमारे अशुभ कर्म ही हमें दुःख पहुँचा रहे हैं; तो यह भी ठीक नहीं। क्योंकि जब हम लोग आपके अपने हैं, तब हमारे दुष्कर्म हमें फल देने में कैसे समर्थ हो सकते हैं ? इसलिये आप कृपा करके अवश्य ही हमें इस क्लेश से मुक्त कीजिये । प्रभो! हम जानते हैं कि राजापने का सुख प्रारब्ध के अधीन और विषयसाध्य है। और सच कहें तो स्वप्न-सुख के समान तुच्छ और असत् है। साथ ही उस सुख को भोगने वाला यह शरीर भी एक प्रकार से मुर्दा ही है और इसके पीछे सदा-सर्वदा सैकड़ों प्रकार के भय लगे रहते हैं। परन्तु हम तो इसी के द्वारा जगत् के अनेकों भार ढो रहे हैं और यही कारण है कि हमने अंतःकरण के निष्काम-भाव और निस्संकल्प स्थिति से प्राप्त होने वाले आत्मसुख का परित्याग कर दिया है। सचमुच हम अत्यन्त अज्ञानी हैं और आपकी माया के फंदे में फँसकर क्लेश-पर-क्लेश भोगते जा रहे हैं । भगवन्! आपके चरण-कमल शरणागत पुरुषों के समस्त शोक और मोहों को नष्ट कर देने वाले हैं। इसलिये आप ही जरासन्धरूप कर्मों के बन्धन से हमें छुड़ाइये। प्रभो! यह अकेला ही दस हजार हाथियों की शक्ति रखता है और हम लोगों को उसी प्रकार बंदी बनाये हुए हैं, जैसे सिंह भेड़ों को घेर रखे ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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