"महाभारत वन पर्व अध्याय 21 श्लोक 22-30": अवतरणों में अंतर
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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार श्रीमहाभारत वन पर्व के अन्तर्गत अर्जुनाभिगमनपर्व में सौभवधोपाख्यानविषयक इक्कीसवाँ अध्याय पूरा हुआ था।</div> | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार श्रीमहाभारत वन पर्व के अन्तर्गत अर्जुनाभिगमनपर्व में सौभवधोपाख्यानविषयक इक्कीसवाँ अध्याय पूरा हुआ था।</div> | ||
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१३:३२, १९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण
एकविंश (21) अध्याय: वन पर्व (अरण्यपर्व)
वीर महाराज ! इसी समय मैंने देखा, सौभ-विमान से मेरे पिता वसुदेवजी नीचे गिर रहे हैं। इससे मुझे शाल्व की माया से मुझे मूर्च्छा-सी आ गयी। नरेश्वर ! उस विमान से गिरते हुए मेरे पिता का स्वरूप ऐसा जान पड़ता था, मानो पुण्यक्षय होने पर स्वर्ग से पृथ्वीतल पर गिरने वाले राजा ययाति का शरीर हो। उसकी मलिन पगड़ी बिखर गयी थी, शरीर के वस्त्र अस्त-व्यस्त हो गये थे और बाल बिखर गये थे। वे गिरते समय पुण्यहीन ग्रह की भाँति दिखायी देते थे। कुन्तीनन्दन ! उनकी यह अवस्था देख धनुषों में श्रेष्ठ शांग मेरे हाथ से छूटकर गिर गया और मैं शाल्व की माया से मोहित- सा होकर रथ के पिछले भाग में चुपचाप बैठ गया। भारत ! फिर तो मुझे रथ के पिछले भाग में प्राण रहित के समान पड़ा देख मेरी सारी सेना हाहाकार कर उठी। सब की चेतना लुप्त-सी हो गयी। हाथों और पैरों को फैलाकर गिरते हुए मेरे पिता का शरीर मरकर गिरने वाले पक्षी के समान जान पड़ता था। वीरवर महाबाहो ! गिरते समय शत्रु सैनिक हाथों में शूल और पट्टिश लिये उनके ऊपर प्रहार कर रहे थे। उनके इस क्रूर कृत्य ने मेरे हृदय को कम्पित-सा कर दिया। वीरवर ! तदनन्तर दो घड़ी के बाद जब मैं सचेत होकर देखता हूँ, तब उस महासमर में न तो सौभविमान का पता है, न मेरा शत्रु शाल्व दिखायी देता है और न मेरे बूढ़े पिता ही दृष्टिगोचर होते हैं। तब मेरे मैंने मन में यह निश्चय हो गया कि यह वास्तव में माया ही थी। तब मैंने सजग होकर सैकड़ों बाणों की वर्षा प्रारम्भ की।
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