"महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 145 भाग-35": अवतरणों में अंतर
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== | ==पञ्चचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)== | ||
< | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: अनुशासन पर्व: पञ्चचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: भाग-35 का हिन्दी अनुवाद</div> | ||
'''शुभाशुभ मानस आदि तीन प्रकार के कर्मो कास्वरुप और उनके फल का एवं मद्द्सेवन के दोषों कावर्णन,आहार-शुद्धि,मांसभक्षण से दोष,मांस न खानेसे लाभ,जीवदया के महत्व,गुरुपूजा कीविधि,उपवास-विधि,ब्र्हमचर्यपालन,तीर्थचर्चा,सर्वसाधारण द्रव्य के दान से पुण्य,अन्न,सुवर्ण, गौभुमि, कन्या और विद्यादान का माहात्म्य , पुण्यतम देशकाल, दिये हुये दान और धर्म की निष्फलता, विविध प्रकार के दान, लौकिक-वैदिक यज्ञ तथा देवताऔं की पूजा का निरुपण''' | |||
उमा ने पूछा- भगवन्! अब मैं पुनः प्रजावर्ग के हित के लिेय शुभ और अशुभ कहे जाने वाले अपने-अपने कर्म का संक्षेप से वर्णन सुनना चाहती हूँ। श्रीमहेश्वर ने कहा- शोभने! वह सब मैं तुम्हें बता रहा हूँ, सुनो। जहाँ तक कर्मों का विस्तार है, उसे दो भागों में बाँटा जा सकता है। पहला भाग सुकृत (पुण्य) और दूसरा दुष्कृत (पाप) उन दोनों में जो दुष्कृत कर्म है, वह तीन प्रकार को होता है। एक मन से, दूसरा क्रिया से और तीसरा वाणी से होने वाला दुष्कर्म है। बुद्धि में मोह का प्रादुर्भाव होने से ही ये पाप बनते हैं। प्रिये! पहले मन के द्वारा कर्म का चिन्तन होता है, फिर वाणी द्वारा उसे प्रकाश में लाया जाता है। तदनन्तर क्रिया द्वारा उसे सम्पन्न किया जाता है। इसके साथ चेष्ट का क्रम चलता रहता है। अभिद्रोह, असूया, पराये अर्थ की अभिलाषा- ये मानसिक अशुभ कर्म हैं। जब धर्म-कार्य में अश्रद्धा हो, पाप-कर्म में हर्ष और उत्साह बढ़े तो इस तरह के अशुभ कर्म मानसिक पाप कहलाते हैं। कल्याण करने वाली देवि! जो झूठ, कठोरतथा असम्बद्ध वचन बोला जाता है, असत्य भाषण तथा दूसरों की निन्दा की जाती है- यह सब वाणी से होने वाला पाप है। अगम्या स्त्री के साथ समागम, परायी स्त्री का सेवन, प्राणियों का वध, बन्धन तथा नाना प्रकार के क्लेशों द्वारा दूसरे प्राणियों को सताना, पराये धन की चोरी, अपहरण तथा नाश करना, अभक्ष्य पदार्थों का भक्षण, दुर्व्यसनों में आसक्ति दर्प, उद्दण्डता ओर अभिमान से दूसरों को सताना, न करने योग्य काम करना, अपवित्र वस्तु को पीना अथवा उसका सेवन करना, पापियों के सम्पर्क में रहकर दुराचारी होना, पापकर्म में सहायता करना, अधर्म और अपयश बढ़ाने वाले कार्यों को अपनाना इत्यादि जो दूसरे-दूसरे अशुभ कर्म हैं, वे शारीरिक पाप कहलाते हैं। मानस पाप से वाणी का पाप बढ़कर समझा जाता है। वाचिक पाप से शारीरिक पाप को अधिक गिना जाता है। इस प्रकार जो तीन तरह का पापकर्म है, वह मनुष्य को नीचे गिराता है। दूसरों को संताप देना अत्यन्त पातक माना गया है। अपना किया हुआ त्रिविध पाप कर्ता को पापमय योनि में ले जाता है। पातकरूपकर्म भी यदि बुद्धिपूर्वक किसी के प्राण बचाने आदि के उद्देश्य से अवश्य कर्तव्य मानकर क्रिया (शरीर) द्वारा किस प्रकार किया गया हो तो उससे कर्ता लिप्त नहीं होता। उमा ने पूछा- भगवन्! किस तरह पापकर्म करके मनुष्य उससे लिप्त नहीं होता? श्रीमहेश्वर ने कहा- देवि! जो निरपराध मनुष्य शस्त्र उठाकर मारने के लिये आये हुए शत्रु को पहले उसी के द्वारा आघात होने पर अपने प्राणों की रक्षा के लिये उस पर बदले में प्रहार करे और मार डाले, वह पाप से लिप्त नहीं होता।। जो चोर से अधिक भयभीत हो उससे बदला लेने की चेष्टा करते हुए उस पर प्रहार करता और उसे मार डालता है, वह पाप से लिप्त नहीं होता। जो ग्रामरक्षा के लिये, स्वामी के अन्न का बदला चुकाने के लिये अथवा दीन-दुखियों पर अनुग्रह करके किसी शत्रु का वध करता या उसे बन्धन में डालकर क्लेश पहुँचाता है, वह भी पाप से मुक्त हो जाता है। जो अकाल में अपनी जीविका चलाने के लिये तथा दूसरा कोई मार्ग न रह जाने पर अकार्य या अभक्ष्य भक्षण करता है, वह उसके पाप से लिप्त नहीं होता। | उमा ने पूछा- भगवन्! अब मैं पुनः प्रजावर्ग के हित के लिेय शुभ और अशुभ कहे जाने वाले अपने-अपने कर्म का संक्षेप से वर्णन सुनना चाहती हूँ। श्रीमहेश्वर ने कहा- शोभने! वह सब मैं तुम्हें बता रहा हूँ, सुनो। जहाँ तक कर्मों का विस्तार है, उसे दो भागों में बाँटा जा सकता है। पहला भाग सुकृत (पुण्य) और दूसरा दुष्कृत (पाप) उन दोनों में जो दुष्कृत कर्म है, वह तीन प्रकार को होता है। एक मन से, दूसरा क्रिया से और तीसरा वाणी से होने वाला दुष्कर्म है। बुद्धि में मोह का प्रादुर्भाव होने से ही ये पाप बनते हैं। प्रिये! पहले मन के द्वारा कर्म का चिन्तन होता है, फिर वाणी द्वारा उसे प्रकाश में लाया जाता है। तदनन्तर क्रिया द्वारा उसे सम्पन्न किया जाता है। इसके साथ चेष्ट का क्रम चलता रहता है। अभिद्रोह, असूया, पराये अर्थ की अभिलाषा- ये मानसिक अशुभ कर्म हैं। जब धर्म-कार्य में अश्रद्धा हो, पाप-कर्म में हर्ष और उत्साह बढ़े तो इस तरह के अशुभ कर्म मानसिक पाप कहलाते हैं। कल्याण करने वाली देवि! जो झूठ, कठोरतथा असम्बद्ध वचन बोला जाता है, असत्य भाषण तथा दूसरों की निन्दा की जाती है- यह सब वाणी से होने वाला पाप है। अगम्या स्त्री के साथ समागम, परायी स्त्री का सेवन, प्राणियों का वध, बन्धन तथा नाना प्रकार के क्लेशों द्वारा दूसरे प्राणियों को सताना, पराये धन की चोरी, अपहरण तथा नाश करना, अभक्ष्य पदार्थों का भक्षण, दुर्व्यसनों में आसक्ति दर्प, उद्दण्डता ओर अभिमान से दूसरों को सताना, न करने योग्य काम करना, अपवित्र वस्तु को पीना अथवा उसका सेवन करना, पापियों के सम्पर्क में रहकर दुराचारी होना, पापकर्म में सहायता करना, अधर्म और अपयश बढ़ाने वाले कार्यों को अपनाना इत्यादि जो दूसरे-दूसरे अशुभ कर्म हैं, वे शारीरिक पाप कहलाते हैं। मानस पाप से वाणी का पाप बढ़कर समझा जाता है। वाचिक पाप से शारीरिक पाप को अधिक गिना जाता है। इस प्रकार जो तीन तरह का पापकर्म है, वह मनुष्य को नीचे गिराता है। दूसरों को संताप देना अत्यन्त पातक माना गया है। अपना किया हुआ त्रिविध पाप कर्ता को पापमय योनि में ले जाता है। पातकरूपकर्म भी यदि बुद्धिपूर्वक किसी के प्राण बचाने आदि के उद्देश्य से अवश्य कर्तव्य मानकर क्रिया (शरीर) द्वारा किस प्रकार किया गया हो तो उससे कर्ता लिप्त नहीं होता। उमा ने पूछा- भगवन्! किस तरह पापकर्म करके मनुष्य उससे लिप्त नहीं होता? श्रीमहेश्वर ने कहा- देवि! जो निरपराध मनुष्य शस्त्र उठाकर मारने के लिये आये हुए शत्रु को पहले उसी के द्वारा आघात होने पर अपने प्राणों की रक्षा के लिये उस पर बदले में प्रहार करे और मार डाले, वह पाप से लिप्त नहीं होता।। जो चोर से अधिक भयभीत हो उससे बदला लेने की चेष्टा करते हुए उस पर प्रहार करता और उसे मार डालता है, वह पाप से लिप्त नहीं होता। जो ग्रामरक्षा के लिये, स्वामी के अन्न का बदला चुकाने के लिये अथवा दीन-दुखियों पर अनुग्रह करके किसी शत्रु का वध करता या उसे बन्धन में डालकर क्लेश पहुँचाता है, वह भी पाप से मुक्त हो जाता है। जो अकाल में अपनी जीविका चलाने के लिये तथा दूसरा कोई मार्ग न रह जाने पर अकार्य या अभक्ष्य भक्षण करता है, वह उसके पाप से लिप्त नहीं होता। | ||
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०७:२७, २७ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण
पञ्चचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
शुभाशुभ मानस आदि तीन प्रकार के कर्मो कास्वरुप और उनके फल का एवं मद्द्सेवन के दोषों कावर्णन,आहार-शुद्धि,मांसभक्षण से दोष,मांस न खानेसे लाभ,जीवदया के महत्व,गुरुपूजा कीविधि,उपवास-विधि,ब्र्हमचर्यपालन,तीर्थचर्चा,सर्वसाधारण द्रव्य के दान से पुण्य,अन्न,सुवर्ण, गौभुमि, कन्या और विद्यादान का माहात्म्य , पुण्यतम देशकाल, दिये हुये दान और धर्म की निष्फलता, विविध प्रकार के दान, लौकिक-वैदिक यज्ञ तथा देवताऔं की पूजा का निरुपण
उमा ने पूछा- भगवन्! अब मैं पुनः प्रजावर्ग के हित के लिेय शुभ और अशुभ कहे जाने वाले अपने-अपने कर्म का संक्षेप से वर्णन सुनना चाहती हूँ। श्रीमहेश्वर ने कहा- शोभने! वह सब मैं तुम्हें बता रहा हूँ, सुनो। जहाँ तक कर्मों का विस्तार है, उसे दो भागों में बाँटा जा सकता है। पहला भाग सुकृत (पुण्य) और दूसरा दुष्कृत (पाप) उन दोनों में जो दुष्कृत कर्म है, वह तीन प्रकार को होता है। एक मन से, दूसरा क्रिया से और तीसरा वाणी से होने वाला दुष्कर्म है। बुद्धि में मोह का प्रादुर्भाव होने से ही ये पाप बनते हैं। प्रिये! पहले मन के द्वारा कर्म का चिन्तन होता है, फिर वाणी द्वारा उसे प्रकाश में लाया जाता है। तदनन्तर क्रिया द्वारा उसे सम्पन्न किया जाता है। इसके साथ चेष्ट का क्रम चलता रहता है। अभिद्रोह, असूया, पराये अर्थ की अभिलाषा- ये मानसिक अशुभ कर्म हैं। जब धर्म-कार्य में अश्रद्धा हो, पाप-कर्म में हर्ष और उत्साह बढ़े तो इस तरह के अशुभ कर्म मानसिक पाप कहलाते हैं। कल्याण करने वाली देवि! जो झूठ, कठोरतथा असम्बद्ध वचन बोला जाता है, असत्य भाषण तथा दूसरों की निन्दा की जाती है- यह सब वाणी से होने वाला पाप है। अगम्या स्त्री के साथ समागम, परायी स्त्री का सेवन, प्राणियों का वध, बन्धन तथा नाना प्रकार के क्लेशों द्वारा दूसरे प्राणियों को सताना, पराये धन की चोरी, अपहरण तथा नाश करना, अभक्ष्य पदार्थों का भक्षण, दुर्व्यसनों में आसक्ति दर्प, उद्दण्डता ओर अभिमान से दूसरों को सताना, न करने योग्य काम करना, अपवित्र वस्तु को पीना अथवा उसका सेवन करना, पापियों के सम्पर्क में रहकर दुराचारी होना, पापकर्म में सहायता करना, अधर्म और अपयश बढ़ाने वाले कार्यों को अपनाना इत्यादि जो दूसरे-दूसरे अशुभ कर्म हैं, वे शारीरिक पाप कहलाते हैं। मानस पाप से वाणी का पाप बढ़कर समझा जाता है। वाचिक पाप से शारीरिक पाप को अधिक गिना जाता है। इस प्रकार जो तीन तरह का पापकर्म है, वह मनुष्य को नीचे गिराता है। दूसरों को संताप देना अत्यन्त पातक माना गया है। अपना किया हुआ त्रिविध पाप कर्ता को पापमय योनि में ले जाता है। पातकरूपकर्म भी यदि बुद्धिपूर्वक किसी के प्राण बचाने आदि के उद्देश्य से अवश्य कर्तव्य मानकर क्रिया (शरीर) द्वारा किस प्रकार किया गया हो तो उससे कर्ता लिप्त नहीं होता। उमा ने पूछा- भगवन्! किस तरह पापकर्म करके मनुष्य उससे लिप्त नहीं होता? श्रीमहेश्वर ने कहा- देवि! जो निरपराध मनुष्य शस्त्र उठाकर मारने के लिये आये हुए शत्रु को पहले उसी के द्वारा आघात होने पर अपने प्राणों की रक्षा के लिये उस पर बदले में प्रहार करे और मार डाले, वह पाप से लिप्त नहीं होता।। जो चोर से अधिक भयभीत हो उससे बदला लेने की चेष्टा करते हुए उस पर प्रहार करता और उसे मार डालता है, वह पाप से लिप्त नहीं होता। जो ग्रामरक्षा के लिये, स्वामी के अन्न का बदला चुकाने के लिये अथवा दीन-दुखियों पर अनुग्रह करके किसी शत्रु का वध करता या उसे बन्धन में डालकर क्लेश पहुँचाता है, वह भी पाप से मुक्त हो जाता है। जो अकाल में अपनी जीविका चलाने के लिये तथा दूसरा कोई मार्ग न रह जाने पर अकार्य या अभक्ष्य भक्षण करता है, वह उसके पाप से लिप्त नहीं होता।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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