"महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 145 भाग-22": अवतरणों में अंतर

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
[अनिरीक्षित अवतरण][अनिरीक्षित अवतरण]
छो (Text replace - "{{महाभारत}}" to "{{सम्पूर्ण महाभारत}}")
No edit summary
 
(इसी सदस्य द्वारा किए गए बीच के ३ अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति १: पंक्ति १:
==पन्चचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)==  
==पञ्चचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)==  
<h4 style="text-align:center;">उमा-महेश्वर-संवाद कितने ही महत्वपूर्ण विषयों का विवेचन</h4>
<h4 style="text-align:center;">उमा-महेश्वर-संवाद कितने ही महत्वपूर्ण विषयों का विवेचन</h4>
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: अनुशासन पर्व: पन्चचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: भाग-22 का हिन्दी अनुवाद</div>
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: अनुशासन पर्व: पञ्चचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: भाग-22 का हिन्दी अनुवाद</div>


इस भूमि पर राजालोग जिस अपराध का नाम लेकर जिन मनुष्यों को दण्ड दे देते हैं, उसके लिये वे यमलोक में यमराज के दण्ड द्वारा दण्डित नहीं होते हैं। इस पृथ्वी पर जो वास्तविक अपराधी बिना दण्ड पाये रह जाते हैं अथवा झूठे ही दूसरे लोग दण्डित हो जाते हैं, उस दशा में यमराज उन वास्तविक अपराधियों को अवश्य दण्ड देते हैं, क्योंकि वे यह अच्छी तरह जानते हैं कि किसने अपराध किया है और किसने नहीं किया है। कोई भी मनुष्य इस लोक में कर्म करके यमराज को नहीं लाँघ सकता, उसे अवश्य दण्ड भोगना पड़ता है। शोभने! राजा और यम सबको भरपूर दण्ड देते हैं।। तीनों लोकों में कोई भी ऐसा पुरूष नहीं है, जो कर्मों के फल का बिना भोगे नाश कर सके। प्रिये! इस विषय में तुम्हें सारी बातें बता दीं। अब संदेहरहित हो जाओ। उमा ने पूछा- भगवन्! यदि ऐसी बात है तो भूमण्डल के मनुष्य पाप-कर्म करके उसके निवारण के लिये प्रायश्चित्त क्यों करते हैं? कहते हैं कि अश्वमेधयज्ञ सम्पूर्ण पापों को हर लेने वाला है। लोग दूसरे-दूसरे प्रायश्चित्त भी पापों का नाश करने के लिये ही करते हैं (इधर आप कहते हैं कि तीनों लोकों में कोई कर्मफल का नाश करने वाला है ही नहीं) अतः इस विषय में मुझे संदेह हो गया है। आप मेरे इस संदेह का निवारण करें।। श्रीमहेश्वर ने कहा- देवि! तुमने ठीक संशय उपस्थित किया है। अब एकाग्रचित्त होकर इसका वास्तविक उत्तर सुनो। पहले के महर्षियों के मन में भी यह महान् संदेह बना रहा है। सज्जन हों या असज्जन, सभी के द्वारा दो प्रकार का पाप बनता है, एक तो वह पाप है, जिसे सदा किसी उद्देश्य को मन में लेकर जान-बूझकर किया जाता है और दूसरा वह है, जो अकस्मात् दैवेच्छा से बिना जाने ही बन जाता है। जो उद्देश्य-सिद्धि की कामना रखकर क्रोधपूर्वक कोई असत् कर्म करता है, उसके उस कर्म का किसी तरह नाश नहीं होता है। फलाभिसन्धिपूर्वक किये गये कर्मों का नाश सहस्त्रों अश्वमेधयज्ञों और सैकड़ों प्रायश्चित्तों से भी नहीं होता। इसके सिवा और प्रकार से- असावधानी या दैवेच्छा से जो पाप बन जाता है, वह प्रायश्चित्त और अश्वमेधयज्ञ से तथा दूसरे किसी श्रेष्ठ कर्म से नष्ट हो जाता है। प्रिये! इस प्रकार पाप कर्म के विषय में तुम्हारा यह संदेह अब दूर हो जाना चाहिये। देवि! यह विषय मैंने तुम्हें बताया। अब और क्या सुनना चाहती हो? उमा ने पूछा- भगवन्! देवदेवेश्वर! जगत् के मनुष्य तथा दूसरे प्राणी, जो किसी कारण से या अकारण भी मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं, इसमें कौन-सा कर्मविपाक कारण है? यह मुझे बताइये। श्रीमहेश्वर ने कहा- देवि! जो निर्दयी मनुष्य पहले किसी कारण से या अकारण भी दूसरे प्राणियों के प्राण लेते हैं, वे उसी प्रकार अपनी करनी का फल पाते हैं। विष देने वाले विष से ही मरते हैं और शस्त्र द्वारा दूसरों की हत्या करने वाले लोग स्वयं भी जन्मान्तर में शस्त्रों के आघात से ही मारे जाते हैं। तुम इसी को सत्य समझो। कर्म करने वाला मनुष्य उन कर्मों का फल न भोगे, ऐसा कोई पुरूष न इस पृथ्वी पर है न स्वर्ग में देवता, असुर और मनुष्य कोई भी अपने कर्मों का फल भोगे बिना नहीं रह सकता।  
इस भूमि पर राजालोग जिस अपराध का नाम लेकर जिन मनुष्यों को दण्ड दे देते हैं, उसके लिये वे यमलोक में यमराज के दण्ड द्वारा दण्डित नहीं होते हैं। इस पृथ्वी पर जो वास्तविक अपराधी बिना दण्ड पाये रह जाते हैं अथवा झूठे ही दूसरे लोग दण्डित हो जाते हैं, उस दशा में यमराज उन वास्तविक अपराधियों को अवश्य दण्ड देते हैं, क्योंकि वे यह अच्छी तरह जानते हैं कि किसने अपराध किया है और किसने नहीं किया है। कोई भी मनुष्य इस लोक में कर्म करके यमराज को नहीं लाँघ सकता, उसे अवश्य दण्ड भोगना पड़ता है। शोभने! राजा और यम सबको भरपूर दण्ड देते हैं।। तीनों लोकों में कोई भी ऐसा पुरूष नहीं है, जो कर्मों के फल का बिना भोगे नाश कर सके। प्रिये! इस विषय में तुम्हें सारी बातें बता दीं। अब संदेहरहित हो जाओ। उमा ने पूछा- भगवन्! यदि ऐसी बात है तो भूमण्डल के मनुष्य पाप-कर्म करके उसके निवारण के लिये प्रायश्चित्त क्यों करते हैं? कहते हैं कि अश्वमेधयज्ञ सम्पूर्ण पापों को हर लेने वाला है। लोग दूसरे-दूसरे प्रायश्चित्त भी पापों का नाश करने के लिये ही करते हैं (इधर आप कहते हैं कि तीनों लोकों में कोई कर्मफल का नाश करने वाला है ही नहीं) अतः इस विषय में मुझे संदेह हो गया है। आप मेरे इस संदेह का निवारण करें।। श्रीमहेश्वर ने कहा- देवि! तुमने ठीक संशय उपस्थित किया है। अब एकाग्रचित्त होकर इसका वास्तविक उत्तर सुनो। पहले के महर्षियों के मन में भी यह महान् संदेह बना रहा है। सज्जन हों या असज्जन, सभी के द्वारा दो प्रकार का पाप बनता है, एक तो वह पाप है, जिसे सदा किसी उद्देश्य को मन में लेकर जान-बूझकर किया जाता है और दूसरा वह है, जो अकस्मात् दैवेच्छा से बिना जाने ही बन जाता है। जो उद्देश्य-सिद्धि की कामना रखकर क्रोधपूर्वक कोई असत् कर्म करता है, उसके उस कर्म का किसी तरह नाश नहीं होता है। फलाभिसन्धिपूर्वक किये गये कर्मों का नाश सहस्त्रों अश्वमेधयज्ञों और सैकड़ों प्रायश्चित्तों से भी नहीं होता। इसके सिवा और प्रकार से- असावधानी या दैवेच्छा से जो पाप बन जाता है, वह प्रायश्चित्त और अश्वमेधयज्ञ से तथा दूसरे किसी श्रेष्ठ कर्म से नष्ट हो जाता है। प्रिये! इस प्रकार पाप कर्म के विषय में तुम्हारा यह संदेह अब दूर हो जाना चाहिये। देवि! यह विषय मैंने तुम्हें बताया। अब और क्या सुनना चाहती हो? उमा ने पूछा- भगवन्! देवदेवेश्वर! जगत् के मनुष्य तथा दूसरे प्राणी, जो किसी कारण से या अकारण भी मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं, इसमें कौन-सा कर्मविपाक कारण है? यह मुझे बताइये। श्रीमहेश्वर ने कहा- देवि! जो निर्दयी मनुष्य पहले किसी कारण से या अकारण भी दूसरे प्राणियों के प्राण लेते हैं, वे उसी प्रकार अपनी करनी का फल पाते हैं। विष देने वाले विष से ही मरते हैं और शस्त्र द्वारा दूसरों की हत्या करने वाले लोग स्वयं भी जन्मान्तर में शस्त्रों के आघात से ही मारे जाते हैं। तुम इसी को सत्य समझो। कर्म करने वाला मनुष्य उन कर्मों का फल न भोगे, ऐसा कोई पुरूष न इस पृथ्वी पर है न स्वर्ग में देवता, असुर और मनुष्य कोई भी अपने कर्मों का फल भोगे बिना नहीं रह सकता।  


{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 145 भाग-21|अगला=महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 145 भाग-23}}
{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 145 भाग-21|अगला=महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 145 भाग-23}}


==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
पंक्ति १२: पंक्ति १२:
{{सम्पूर्ण महाभारत}}
{{सम्पूर्ण महाभारत}}


[[Category:कृष्ण कोश]] [[Category:महाभारत]][[Category:महाभारत अनुशासनपर्व]]
[[Category:कृष्ण कोश]] [[Category:महाभारत]][[Category:महाभारत अनुशासन पर्व]]
__INDEX__
__INDEX__
__NOTOC__
__NOTOC__

०५:४२, २७ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

पञ्चचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

उमा-महेश्वर-संवाद कितने ही महत्वपूर्ण विषयों का विवेचन

महाभारत: अनुशासन पर्व: पञ्चचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: भाग-22 का हिन्दी अनुवाद

इस भूमि पर राजालोग जिस अपराध का नाम लेकर जिन मनुष्यों को दण्ड दे देते हैं, उसके लिये वे यमलोक में यमराज के दण्ड द्वारा दण्डित नहीं होते हैं। इस पृथ्वी पर जो वास्तविक अपराधी बिना दण्ड पाये रह जाते हैं अथवा झूठे ही दूसरे लोग दण्डित हो जाते हैं, उस दशा में यमराज उन वास्तविक अपराधियों को अवश्य दण्ड देते हैं, क्योंकि वे यह अच्छी तरह जानते हैं कि किसने अपराध किया है और किसने नहीं किया है। कोई भी मनुष्य इस लोक में कर्म करके यमराज को नहीं लाँघ सकता, उसे अवश्य दण्ड भोगना पड़ता है। शोभने! राजा और यम सबको भरपूर दण्ड देते हैं।। तीनों लोकों में कोई भी ऐसा पुरूष नहीं है, जो कर्मों के फल का बिना भोगे नाश कर सके। प्रिये! इस विषय में तुम्हें सारी बातें बता दीं। अब संदेहरहित हो जाओ। उमा ने पूछा- भगवन्! यदि ऐसी बात है तो भूमण्डल के मनुष्य पाप-कर्म करके उसके निवारण के लिये प्रायश्चित्त क्यों करते हैं? कहते हैं कि अश्वमेधयज्ञ सम्पूर्ण पापों को हर लेने वाला है। लोग दूसरे-दूसरे प्रायश्चित्त भी पापों का नाश करने के लिये ही करते हैं (इधर आप कहते हैं कि तीनों लोकों में कोई कर्मफल का नाश करने वाला है ही नहीं) अतः इस विषय में मुझे संदेह हो गया है। आप मेरे इस संदेह का निवारण करें।। श्रीमहेश्वर ने कहा- देवि! तुमने ठीक संशय उपस्थित किया है। अब एकाग्रचित्त होकर इसका वास्तविक उत्तर सुनो। पहले के महर्षियों के मन में भी यह महान् संदेह बना रहा है। सज्जन हों या असज्जन, सभी के द्वारा दो प्रकार का पाप बनता है, एक तो वह पाप है, जिसे सदा किसी उद्देश्य को मन में लेकर जान-बूझकर किया जाता है और दूसरा वह है, जो अकस्मात् दैवेच्छा से बिना जाने ही बन जाता है। जो उद्देश्य-सिद्धि की कामना रखकर क्रोधपूर्वक कोई असत् कर्म करता है, उसके उस कर्म का किसी तरह नाश नहीं होता है। फलाभिसन्धिपूर्वक किये गये कर्मों का नाश सहस्त्रों अश्वमेधयज्ञों और सैकड़ों प्रायश्चित्तों से भी नहीं होता। इसके सिवा और प्रकार से- असावधानी या दैवेच्छा से जो पाप बन जाता है, वह प्रायश्चित्त और अश्वमेधयज्ञ से तथा दूसरे किसी श्रेष्ठ कर्म से नष्ट हो जाता है। प्रिये! इस प्रकार पाप कर्म के विषय में तुम्हारा यह संदेह अब दूर हो जाना चाहिये। देवि! यह विषय मैंने तुम्हें बताया। अब और क्या सुनना चाहती हो? उमा ने पूछा- भगवन्! देवदेवेश्वर! जगत् के मनुष्य तथा दूसरे प्राणी, जो किसी कारण से या अकारण भी मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं, इसमें कौन-सा कर्मविपाक कारण है? यह मुझे बताइये। श्रीमहेश्वर ने कहा- देवि! जो निर्दयी मनुष्य पहले किसी कारण से या अकारण भी दूसरे प्राणियों के प्राण लेते हैं, वे उसी प्रकार अपनी करनी का फल पाते हैं। विष देने वाले विष से ही मरते हैं और शस्त्र द्वारा दूसरों की हत्या करने वाले लोग स्वयं भी जन्मान्तर में शस्त्रों के आघात से ही मारे जाते हैं। तुम इसी को सत्य समझो। कर्म करने वाला मनुष्य उन कर्मों का फल न भोगे, ऐसा कोई पुरूष न इस पृथ्वी पर है न स्वर्ग में देवता, असुर और मनुष्य कोई भी अपने कर्मों का फल भोगे बिना नहीं रह सकता।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।