"महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 145 भाग-49": अवतरणों में अंतर
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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: अनुशासन पर्व: पञ्चचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: भाग-49 का हिन्दी अनुवाद</div> | |||
'''शुभाशुभ मानस आदि तीन प्रकार के कर्मो कास्वरुप और उनके फल का एवं मद्द्सेवन के दोषों कावर्णन,आहार-शुद्धि,मांसभक्षण से दोष,मांस न खानेसे लाभ,जीवदया के महत्व,गुरुपूजा कीविधि,उपवास-विधि,ब्र्हमचर्यपालन,तीर्थचर्चा,सर्वसाधारण द्रव्य के दान से पुण्य,अन्न,सुवर्ण, गौभुमि, कन्या और विद्यादान का माहात्म्य , पुण्यतम देशकाल, दिये हुये दान और धर्म की निष्फलता, विविध प्रकार के दान, लौकिक-वैदिक यज्ञ तथा देवताऔं की पूजा का निरुपण''' | |||
देवि! जो देवालय में देवता का संस्कार करके उत्सव मनाता है और पवित्र होकर विधिपूर्वक यज्ञ एवं देवताओं को उपहार समर्पित करके उन्हें संतुष्ट करता है, वह धर्म का पूरा-पूरा फल प्राप्त करता है। देवि! इस भूतल पर जो मनुष्य देवताओं के सत्कार के उद्देश्य से नाना प्रकार के गन्ध, माल्य, उत्तम अन्न, धूपदान तथा बहुत सी स्तुतियों द्वारा स्तवन करते हैं और शुद्धचित्त हो नृत्य, वाद्य, गान तथा दृष्टि को लुभाने वाले अन्यान्य कार्यक्रमों द्वारा देवाराधन करते हैं, उने भक्तिजनित सत्कार से ही पूजित हो देवता स्वर्ग में उतने से ही संतुष्ट हो जाते हैं। | देवि! जो देवालय में देवता का संस्कार करके उत्सव मनाता है और पवित्र होकर विधिपूर्वक यज्ञ एवं देवताओं को उपहार समर्पित करके उन्हें संतुष्ट करता है, वह धर्म का पूरा-पूरा फल प्राप्त करता है। देवि! इस भूतल पर जो मनुष्य देवताओं के सत्कार के उद्देश्य से नाना प्रकार के गन्ध, माल्य, उत्तम अन्न, धूपदान तथा बहुत सी स्तुतियों द्वारा स्तवन करते हैं और शुद्धचित्त हो नृत्य, वाद्य, गान तथा दृष्टि को लुभाने वाले अन्यान्य कार्यक्रमों द्वारा देवाराधन करते हैं, उने भक्तिजनित सत्कार से ही पूजित हो देवता स्वर्ग में उतने से ही संतुष्ट हो जाते हैं। |
०७:४०, २७ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण
पञ्चचत्वारिंशदधिकशततम(145) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
शुभाशुभ मानस आदि तीन प्रकार के कर्मो कास्वरुप और उनके फल का एवं मद्द्सेवन के दोषों कावर्णन,आहार-शुद्धि,मांसभक्षण से दोष,मांस न खानेसे लाभ,जीवदया के महत्व,गुरुपूजा कीविधि,उपवास-विधि,ब्र्हमचर्यपालन,तीर्थचर्चा,सर्वसाधारण द्रव्य के दान से पुण्य,अन्न,सुवर्ण, गौभुमि, कन्या और विद्यादान का माहात्म्य , पुण्यतम देशकाल, दिये हुये दान और धर्म की निष्फलता, विविध प्रकार के दान, लौकिक-वैदिक यज्ञ तथा देवताऔं की पूजा का निरुपण
देवि! जो देवालय में देवता का संस्कार करके उत्सव मनाता है और पवित्र होकर विधिपूर्वक यज्ञ एवं देवताओं को उपहार समर्पित करके उन्हें संतुष्ट करता है, वह धर्म का पूरा-पूरा फल प्राप्त करता है। देवि! इस भूतल पर जो मनुष्य देवताओं के सत्कार के उद्देश्य से नाना प्रकार के गन्ध, माल्य, उत्तम अन्न, धूपदान तथा बहुत सी स्तुतियों द्वारा स्तवन करते हैं और शुद्धचित्त हो नृत्य, वाद्य, गान तथा दृष्टि को लुभाने वाले अन्यान्य कार्यक्रमों द्वारा देवाराधन करते हैं, उने भक्तिजनित सत्कार से ही पूजित हो देवता स्वर्ग में उतने से ही संतुष्ट हो जाते हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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