"महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 145 भाग-67": अवतरणों में अंतर
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<h4 style="text-align:center;">योग धर्म का प्रतिपादन पूर्वक उसके फल का वर्णन</h4> | <h4 style="text-align:center;">योग धर्म का प्रतिपादन पूर्वक उसके फल का वर्णन</h4> | ||
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: अनुशासन पर्व: | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: अनुशासन पर्व: पञ्चचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: भाग-67 का हिन्दी अनुवाद</div> | ||
जो अधिक खाने वाला अथवा सर्वथा न खाने वाला है, अधिक सोने वाला अथवा सर्वथा जागने वाला है, उसका योग सिद्ध नहीं होता। दुखों का नाश करने वाला यह योग उसी पुरुष का सिद्ध होता है, जो यथायोग्य आहार-विहार करने वाला है, कर्मों में उपयुक्त चेष्टा करता है तथा उचित मात्रा में सोता और जागता है। इसी विधान से देवसायुज्य प्राप्त होता है। अपनी भक्ति से देवताओं का सायुज्य प्राप्त करके योगसाधना में तत्पर रहे। देवि! प्रतिदिन एकाग्र और अनन्य चित्त हो चिरकाल तक महान् यत्न करने से देवताओं के साथ सायुज्य प्राप्त होता है। योगीजन हविष्य, पूजा, हवन, प्रणाम तथा नित्य चिन्तन के द्वारा यथाशक्ति आराधना करके अपने इष्टदेव के स्परूप में प्रवेश कर जाते हैं। शुभलोचने! सायुज्यों में मेरा तथा श्रीविष्णु का सायुज्य श्रेष्ठ हैं। मुझे या | जो अधिक खाने वाला अथवा सर्वथा न खाने वाला है, अधिक सोने वाला अथवा सर्वथा जागने वाला है, उसका योग सिद्ध नहीं होता। दुखों का नाश करने वाला यह योग उसी पुरुष का सिद्ध होता है, जो यथायोग्य आहार-विहार करने वाला है, कर्मों में उपयुक्त चेष्टा करता है तथा उचित मात्रा में सोता और जागता है। इसी विधान से देवसायुज्य प्राप्त होता है। अपनी भक्ति से देवताओं का सायुज्य प्राप्त करके योगसाधना में तत्पर रहे। देवि! प्रतिदिन एकाग्र और अनन्य चित्त हो चिरकाल तक महान् यत्न करने से देवताओं के साथ सायुज्य प्राप्त होता है। योगीजन हविष्य, पूजा, हवन, प्रणाम तथा नित्य चिन्तन के द्वारा यथाशक्ति आराधना करके अपने इष्टदेव के स्परूप में प्रवेश कर जाते हैं। शुभलोचने! सायुज्यों में मेरा तथा श्रीविष्णु का सायुज्य श्रेष्ठ हैं। मुझे या भगवान विष्णु को प्राप्त करके मनुष्य पुनः संसार में नहीं लौटते हैं। देवि! इस प्रकार मैंने तुमसे सनातन योग-धर्म का वर्णन किया है। तुम्हारे सिवा दूसरा कोई इस योगधर्म के विषय में प्रश्न नहीं कर सकता था। | ||
१२:०६, २९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण
पञ्चचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)
योग धर्म का प्रतिपादन पूर्वक उसके फल का वर्णन
जो अधिक खाने वाला अथवा सर्वथा न खाने वाला है, अधिक सोने वाला अथवा सर्वथा जागने वाला है, उसका योग सिद्ध नहीं होता। दुखों का नाश करने वाला यह योग उसी पुरुष का सिद्ध होता है, जो यथायोग्य आहार-विहार करने वाला है, कर्मों में उपयुक्त चेष्टा करता है तथा उचित मात्रा में सोता और जागता है। इसी विधान से देवसायुज्य प्राप्त होता है। अपनी भक्ति से देवताओं का सायुज्य प्राप्त करके योगसाधना में तत्पर रहे। देवि! प्रतिदिन एकाग्र और अनन्य चित्त हो चिरकाल तक महान् यत्न करने से देवताओं के साथ सायुज्य प्राप्त होता है। योगीजन हविष्य, पूजा, हवन, प्रणाम तथा नित्य चिन्तन के द्वारा यथाशक्ति आराधना करके अपने इष्टदेव के स्परूप में प्रवेश कर जाते हैं। शुभलोचने! सायुज्यों में मेरा तथा श्रीविष्णु का सायुज्य श्रेष्ठ हैं। मुझे या भगवान विष्णु को प्राप्त करके मनुष्य पुनः संसार में नहीं लौटते हैं। देवि! इस प्रकार मैंने तुमसे सनातन योग-धर्म का वर्णन किया है। तुम्हारे सिवा दूसरा कोई इस योगधर्म के विषय में प्रश्न नहीं कर सकता था।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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