"महाभारत सभा पर्व अध्याय 38 भाग 23": अवतरणों में अंतर

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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: सभा पर्व: अष्टात्रिंश अध्याय: भाग 8 का हिन्दी अनुवाद </div>
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: सभा पर्व: अष्टात्रिंश अध्याय: भाग 8 का हिन्दी अनुवाद </div>


जनार्दन ने यशोदा और रोहिणाी का भी बारंबार प्रणाम करके उग्रसेन को राजा के पद पर अभिषिक्त किया। उस समय यदुकुल के प्रधान-प्रधान पुरुषों ने इन्द्र के छोटै भाई भगवान् श्रीहरि का पूजन किया। तदनन्तर पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण ने समस्त राजाओं के सहित आक्रमण करने वाले राजा जरासंध को सरोवरों या ह्रदों से सुशोभित यमुना के तट पर परास्त किया।  
जनार्दन ने यशोदा और रोहिणाी का भी बारंबार प्रणाम करके उग्रसेन को राजा के पद पर अभिषिक्त किया। उस समय यदुकुल के प्रधान-प्रधान पुरुषों ने इन्द्र के छोटै भाई भगवान  श्रीहरि का पूजन किया। तदनन्तर पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण ने समस्त राजाओं के सहित आक्रमण करने वाले राजा जरासंध को सरोवरों या ह्रदों से सुशोभित यमुना के तट पर परास्त किया।  
;नरकासुर का सैनिकों सहित वध, देवता आदि की सोलह हजार कन्याओं कों पत्नी रूप में स्वीकार करके श्रीकृष्ण का उन्हें द्वारका भेजना तथा इन्द्रलोक में जाकर अदिति को कुण्डल अर्पण कर द्वारकापुरी में वापस आना
;नरकासुर का सैनिकों सहित वध, देवता आदि की सोलह हजार कन्याओं कों पत्नी रूप में स्वीकार करके श्रीकृष्ण का उन्हें द्वारका भेजना तथा इन्द्रलोक में जाकर अदिति को कुण्डल अर्पण कर द्वारकापुरी में वापस आना
भीष्मजी कहते हैं- युधिष्ठिर! तदनन्तर समस्त यदुवंशियों को आनन्दित करने वाले भगवान् श्रीकृष्ण शूरसेनपुरी मथुरा को छोड़कर द्वारका में चले गये। कमल नयन श्रीकृष्ण ने असुरों को पराजित करके जो बहुत से रत्न और वाहन प्राप्त किये थे, उनका वे द्वारका में यथोचिव रूप से संरक्षण करते थे। उनके इस कार्य में दैत्य और दानव विघ्न डालने लगे। तब महाबाहु श्रीकृष्ण ने वदान से उन्मत्त हुए उन बड़े-बड़े असुरों को मार डाला। तत्पश्चात नरक नामक राक्षस ने भगवान् के कार्य में विघ्न डालना आरम्भ किया। वह समस्त देवताओं को भयभीत करने वाला था। राजन्! तुम्हें तो उसका प्रभाव विदित ही है। समस्त देवताओं के लिये अन्तकरूप नरकासुर इस धरती के भीतर मूर्तिलिंग<ref>मूर्ति या शिवलिंग के आकार का कोई दुर्भेद्य गृह, जो पृथ्वी के भीतर गुफा में बनाया गया हो। शत्रुओं से आत्मरक्षा की दृष्टि से नरकासुर ने ऐसे निवास स्थान का निर्माण करा रखा था। </ref> में स्थित हो मनुष्यों और ऋषियों के प्रतिकूल आचरण किया करता था। भूमि का पुत्र होने से नरक को भौमासुर भी कहते हैं। उसने हाथी का रूप धारण करे प्रजापति त्वष्टा की पुत्री कशेरु के पास जाकर उसे पकड़ लिया। कशेरु बड़ी सुन्दरी और चौदह वर्ष की अवस्था वाली थी। नरकासुर प्राग्ज्योतिषपुर का राजा था। उसके शोक, भय और बाधाएँ दूर हो गयी थीं। उसने कशेरु को मूर्च्छित करके हर लिया और अपने घर लाकर उससे इस प्रकार कहा। नरकासुर बोला- देवि! देवताओं और मनुष्यों के पास जो नाना प्रकार के रत्न हैं, सारी पृथ्वी जिन रत्नों को धारण करती है तथा समुद्रों में जो रत्न संचित हैं, उन सबको आज से सभी राक्षस ला लाकर तुम्हें ही अर्पित किया करेंगे। दैत्य और दानव भी तुम्हें उत्तमोत्तम रत्नों की भेंट देंगे। भीष्मजी कहते हैं- भारत! इस प्रकार भौमासुर ने नाना प्राकार के बहुत से उत्म रत्नों तथा स्त्री रत्नों का भी अपहरण किया। गन्धर्वों की जो कन्याएँ थीं, उन्हें भी नकरकासुर बलपूर्वक हर लाया। देवताओं और मनुष्यों की कन्याओं तथा अप्सराओं के सात समुदायों का भी उसने अपहरण कर लिया। इस प्रकार सोलह हजार एक सौ सुन्दरी कुमारियाँ उसके घर में एकत्र हो गयीं। वे सब की सब सत्पुरुषों के मार्ग का अनुसरण करके व्रत और नियम के पालन में तत्पर हो एक वेणी धारण करती थीं। उत्साहयुक्त मन वाले भौमासुर ने उनके रहने के लिये मणिपर्वत पर अन्त:पुर का निर्माण कराया। उस स्थान का नाम था औदका (जल की सुविधा से सम्पन्न भूमि)। वह अन्त:पुर मुर नामक दैत्य के अधिकृत प्रदेश में बना था।
भीष्मजी कहते हैं- युधिष्ठिर! तदनन्तर समस्त यदुवंशियों को आनन्दित करने वाले भगवान  श्रीकृष्ण शूरसेनपुरी मथुरा को छोड़कर द्वारका में चले गये। कमल नयन श्रीकृष्ण ने असुरों को पराजित करके जो बहुत से रत्न और वाहन प्राप्त किये थे, उनका वे द्वारका में यथोचिव रूप से संरक्षण करते थे। उनके इस कार्य में दैत्य और दानव विघ्न डालने लगे। तब महाबाहु श्रीकृष्ण ने वदान से उन्मत्त हुए उन बड़े-बड़े असुरों को मार डाला। तत्पश्चात नरक नामक राक्षस ने भगवान  के कार्य में विघ्न डालना आरम्भ किया। वह समस्त देवताओं को भयभीत करने वाला था। राजन्! तुम्हें तो उसका प्रभाव विदित ही है। समस्त देवताओं के लिये अन्तकरूप नरकासुर इस धरती के भीतर मूर्तिलिंग<ref>मूर्ति या शिवलिंग के आकार का कोई दुर्भेद्य गृह, जो पृथ्वी के भीतर गुफा में बनाया गया हो। शत्रुओं से आत्मरक्षा की दृष्टि से नरकासुर ने ऐसे निवास स्थान का निर्माण करा रखा था। </ref> में स्थित हो मनुष्यों और ऋषियों के प्रतिकूल आचरण किया करता था। भूमि का पुत्र होने से नरक को भौमासुर भी कहते हैं। उसने हाथी का रूप धारण करे प्रजापति त्वष्टा की पुत्री कशेरु के पास जाकर उसे पकड़ लिया। कशेरु बड़ी सुन्दरी और चौदह वर्ष की अवस्था वाली थी। नरकासुर प्राग्ज्योतिषपुर का राजा था। उसके शोक, भय और बाधाएँ दूर हो गयी थीं। उसने कशेरु को मूर्च्छित करके हर लिया और अपने घर लाकर उससे इस प्रकार कहा। नरकासुर बोला- देवि! देवताओं और मनुष्यों के पास जो नाना प्रकार के रत्न हैं, सारी पृथ्वी जिन रत्नों को धारण करती है तथा समुद्रों में जो रत्न संचित हैं, उन सबको आज से सभी राक्षस ला लाकर तुम्हें ही अर्पित किया करेंगे। दैत्य और दानव भी तुम्हें उत्तमोत्तम रत्नों की भेंट देंगे। भीष्मजी कहते हैं- भारत! इस प्रकार भौमासुर ने नाना प्राकार के बहुत से उत्म रत्नों तथा स्त्री रत्नों का भी अपहरण किया। गन्धर्वों की जो कन्याएँ थीं, उन्हें भी नकरकासुर बलपूर्वक हर लाया। देवताओं और मनुष्यों की कन्याओं तथा अप्सराओं के सात समुदायों का भी उसने अपहरण कर लिया। इस प्रकार सोलह हजार एक सौ सुन्दरी कुमारियाँ उसके घर में एकत्र हो गयीं। वे सब की सब सत्पुरुषों के मार्ग का अनुसरण करके व्रत और नियम के पालन में तत्पर हो एक वेणी धारण करती थीं। उत्साहयुक्त मन वाले भौमासुर ने उनके रहने के लिये मणिपर्वत पर अन्त:पुर का निर्माण कराया। उस स्थान का नाम था औदका (जल की सुविधा से सम्पन्न भूमि)। वह अन्त:पुर मुर नामक दैत्य के अधिकृत प्रदेश में बना था।


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१२:०७, २९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

अष्टात्रिंश (38) अध्‍याय: सभा पर्व (अर्घाभिहरण पर्व)

महाभारत: सभा पर्व: अष्टात्रिंश अध्याय: भाग 8 का हिन्दी अनुवाद

जनार्दन ने यशोदा और रोहिणाी का भी बारंबार प्रणाम करके उग्रसेन को राजा के पद पर अभिषिक्त किया। उस समय यदुकुल के प्रधान-प्रधान पुरुषों ने इन्द्र के छोटै भाई भगवान श्रीहरि का पूजन किया। तदनन्तर पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण ने समस्त राजाओं के सहित आक्रमण करने वाले राजा जरासंध को सरोवरों या ह्रदों से सुशोभित यमुना के तट पर परास्त किया।

नरकासुर का सैनिकों सहित वध, देवता आदि की सोलह हजार कन्याओं कों पत्नी रूप में स्वीकार करके श्रीकृष्ण का उन्हें द्वारका भेजना तथा इन्द्रलोक में जाकर अदिति को कुण्डल अर्पण कर द्वारकापुरी में वापस आना

भीष्मजी कहते हैं- युधिष्ठिर! तदनन्तर समस्त यदुवंशियों को आनन्दित करने वाले भगवान श्रीकृष्ण शूरसेनपुरी मथुरा को छोड़कर द्वारका में चले गये। कमल नयन श्रीकृष्ण ने असुरों को पराजित करके जो बहुत से रत्न और वाहन प्राप्त किये थे, उनका वे द्वारका में यथोचिव रूप से संरक्षण करते थे। उनके इस कार्य में दैत्य और दानव विघ्न डालने लगे। तब महाबाहु श्रीकृष्ण ने वदान से उन्मत्त हुए उन बड़े-बड़े असुरों को मार डाला। तत्पश्चात नरक नामक राक्षस ने भगवान के कार्य में विघ्न डालना आरम्भ किया। वह समस्त देवताओं को भयभीत करने वाला था। राजन्! तुम्हें तो उसका प्रभाव विदित ही है। समस्त देवताओं के लिये अन्तकरूप नरकासुर इस धरती के भीतर मूर्तिलिंग[१] में स्थित हो मनुष्यों और ऋषियों के प्रतिकूल आचरण किया करता था। भूमि का पुत्र होने से नरक को भौमासुर भी कहते हैं। उसने हाथी का रूप धारण करे प्रजापति त्वष्टा की पुत्री कशेरु के पास जाकर उसे पकड़ लिया। कशेरु बड़ी सुन्दरी और चौदह वर्ष की अवस्था वाली थी। नरकासुर प्राग्ज्योतिषपुर का राजा था। उसके शोक, भय और बाधाएँ दूर हो गयी थीं। उसने कशेरु को मूर्च्छित करके हर लिया और अपने घर लाकर उससे इस प्रकार कहा। नरकासुर बोला- देवि! देवताओं और मनुष्यों के पास जो नाना प्रकार के रत्न हैं, सारी पृथ्वी जिन रत्नों को धारण करती है तथा समुद्रों में जो रत्न संचित हैं, उन सबको आज से सभी राक्षस ला लाकर तुम्हें ही अर्पित किया करेंगे। दैत्य और दानव भी तुम्हें उत्तमोत्तम रत्नों की भेंट देंगे। भीष्मजी कहते हैं- भारत! इस प्रकार भौमासुर ने नाना प्राकार के बहुत से उत्म रत्नों तथा स्त्री रत्नों का भी अपहरण किया। गन्धर्वों की जो कन्याएँ थीं, उन्हें भी नकरकासुर बलपूर्वक हर लाया। देवताओं और मनुष्यों की कन्याओं तथा अप्सराओं के सात समुदायों का भी उसने अपहरण कर लिया। इस प्रकार सोलह हजार एक सौ सुन्दरी कुमारियाँ उसके घर में एकत्र हो गयीं। वे सब की सब सत्पुरुषों के मार्ग का अनुसरण करके व्रत और नियम के पालन में तत्पर हो एक वेणी धारण करती थीं। उत्साहयुक्त मन वाले भौमासुर ने उनके रहने के लिये मणिपर्वत पर अन्त:पुर का निर्माण कराया। उस स्थान का नाम था औदका (जल की सुविधा से सम्पन्न भूमि)। वह अन्त:पुर मुर नामक दैत्य के अधिकृत प्रदेश में बना था।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मूर्ति या शिवलिंग के आकार का कोई दुर्भेद्य गृह, जो पृथ्वी के भीतर गुफा में बनाया गया हो। शत्रुओं से आत्मरक्षा की दृष्टि से नरकासुर ने ऐसे निवास स्थान का निर्माण करा रखा था।

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