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भूशूकर के अग्रपाद छोटे तथा मजबूत होते हैं और प्रत्येक में चार अँगुलियाँ होती हैं। चलते समय इनकी हथेलियाँ और पैर के तलवे पृथ्वी को स्पर्श करते हैं। पश्चपादों में पाँच अँगुलियाँ होती हैं। लंबाई में ये जीव छह फुट तक पहुँच जाते हैं। भूशूकर का जीवननिर्वाह दीमकों से होता है। अफ्रीका में पाया जानेवाला जंतु जो पूँछ लेकर पाँच फुट तक लंबा होता है और दीमक खाकर जीवननिर्वाह करता है।<br /> | भूशूकर के अग्रपाद छोटे तथा मजबूत होते हैं और प्रत्येक में चार अँगुलियाँ होती हैं। चलते समय इनकी हथेलियाँ और पैर के तलवे पृथ्वी को स्पर्श करते हैं। पश्चपादों में पाँच अँगुलियाँ होती हैं। लंबाई में ये जीव छह फुट तक पहुँच जाते हैं। भूशूकर का जीवननिर्वाह दीमकों से होता है। अफ्रीका में पाया जानेवाला जंतु जो पूँछ लेकर पाँच फुट तक लंबा होता है और दीमक खाकर जीवननिर्वाह करता है।<br /> | ||
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१०:११, २४ मई २०१८ के समय का अवतरण
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अनग्रदंत
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 1 |
पृष्ठ संख्या | 110,111,112 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | सुधाकर पाण्डेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1973 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | भृगुनाथ प्रसाद। |
अग्रदंत (ईडेंटेटा), जैसा नाम से ही स्पष्ट है, वे जंतु हैं जिनके अग्रदंत नहीं होते। हिंदी का 'अनग्रदंत' शब्द अंग्रेजी के ईडेंटेटा का समानार्थक माना गया है। अंग्रेजी के 'ईडेंटेटा' शब्द का अर्थ है 'जंतु जिनको दाँत होते ही नहीं'। अंग्रेजी का ईडेंटेटा नाम कुवियर ने उन जरायुज, स्तनधारी जंतुओं के समुदाय को दिया था जिनके सामने के दाँत (कर्तनक दंत) अथवा जबड़े के दाँत नहीं होते। इस समुदाय के अंतर्गत दक्षिण अमरीका के चींटखोर (ऐंटईटर्स), शाखांलबी (स्लॉथ), वर्मी (आर्माडिलोज़) और पुरानी दुनिया के आर्डवार्क तथा वज्रकीट (पैंगोलिन) आते हैं। इनमें वज्रकीट तथा चींटीखोर बिलकुल दंतविहीन होते हैं। अन्यों में केवल सामने के कर्तनक दंत नहीं होते, परंतु शेष दाँत ह्रास की अवस्था में, बिना दंतवल्क (इनैमलं) तथा मूल (रूट) के, होते हैं और किसी किसी में दाँतों के पतनशील पूर्वज पाए जाते हैं।
स्तनधारी प्राणियों के वर्गीकरण में पहले अनग्रदंतों का एक वर्ग (ऑर्डर) माना गया था और इसके तीन उपवर्ग थे:
(क) जिर्न्थ्रा,
(ख) फ़ोलिंडोटा तथा
(ग) टयूबुलीडेंटेटा,
किंतु अब ये तीनों उपवर्ग स्वयं अलग वर्ग बन गए हैं। इस प्रकार ईडेंटेटा वर्ग का पृथक् अस्तित्व विलीन होकर उपर्युक्त तीन वर्गो में समाहित हो गया है।
जिर्न्थ्रा
यह प्राय: दक्षिण तथा मध्य अमरीकी प्राणियों का समुदाय है, यद्यपि इसके कुछ सदस्य उत्तरी अमरीका में भी प्रवेश कर गए हैं। प्रारूपिक (टिपिकल) अमरीकी अनग्रदंत अथवा जिर्न्थ्रा की विशेषता यह है कि अंतिम पृष्ठीय तथा सभी कटिकशेरूकाओं में अतिरिक्त संधिमुखिकाएँ (फ़ैसेट) अथवा असामान्य संधियाँ पाई जाती हैं। इनमें दाँत हो भी सकते हैं और नहीं भी। जब होते हैं तब कभी दाँत बराबर होते हैं अथवा एक सीमा तक विभिन्न होते है। शरीर का आवरण मोटे बालों अथवा अस्थिल पट्टियों का रूप ले लेता है अथवा छोटे या बड़े बालों का संमिश्रण होता है।
यह वर्ग तीन कुलों में विभक्त है। इनमें पहला है ब्रैडीपोडिडी, जिसके उदाहरण त्रिअंगुलक शाखालंबी (स्लॉथ) तथा द्विअंगुलक शाखालंबी हैं। दूसरा है मिरमेकोफेजिडी, जिसके उदाहरण हैं बृहत्काय चींटीखोर (जाएंट ऐंटईटर्स) तथा त्रिअंगुलक चींटीखोर (थ्राटोड ऐंटईटर्स)। तीसरा है डेसीपोडाइडी, जिसके उदाहरण हैं: टेस्सास के वर्मी (आर्माडिलोज़) तथा बृहत्काय वर्मी (जाएंट आर्माडिलोज़)।
शाखालंबी
शाखालंबी का सिर गोल और लघु, कान का लोर छोटा, पाँव लंबे एवं पतले होते हैं। स्तनपायी जानवरों में अन्य किसी भी समुदाय के अंग वृक्षवासी जीवन के इतने अनुकूल नहीं हैं जितने शाखालंबियों में। इनमें अग्रपाद पश्चपादों की अपेक्षा अधिक बड़े होते हैं। अँगुलियाँ लंबी, भीतर की ओर मुड़ी हुई और अंकुश सदृश होती हैं, जिनसे उनको वृक्षों पर चढ़ने तथा उनकी शाखाओं को पकड़कर लटके रहने में सुविधा होती है। त्रिअंगुलक शाखालंबी के अग्र तथा पश्च दोनों ही पादों में तीन तीन अँगुलियाँ होती हैं, किंतु द्विअंगुलक शाखालंबी के अग्रपाद में दो और पश्चपाद में तीन अँगुलियाँ होती हैं। इनकी पूँछ प्राथमिक अवस्था में अथवा अल्पविकसित होती है। इनका शरीर लंबे तथा मोटे बालों से आच्छादित रहता है। आर्द्र जलवायु के कारण इनके बालों पर एक प्रकार की हरी काई जैसी वस्तु 'ऐल्जी' उत्पन्न होती है जिससे इन जानवरों के रोम हरे प्रतीत होते हैं। इसी से जब ये जानवर हरी हरी डालियों पर लटके रहते हैं तब ऐसा भ्रम होता है कि ये उस वृक्ष की शाखा ही हैं। उस समय ध्यान से देखने पर ही इन जंतुओं का अलग अस्तित्व ज्ञान होता है।
यह जंतु वृक्षों की शाखाओं पर लटका हुआ चलता है। मंदगामी होने के कारण इसे अंग्रेजी में स्लॉथ कहते हैं (स्लॉथ=आलस्य)। शाखालंबियों के शरीर की लंबाई 20 इंच से 28 इंच तक और पूँछ लगभग दो इंच लंबी होती हैं। ये अपना जीवन वृक्षों पर बिताते हैं, भूमि पर उतरते नहीं; यदि कभी उतरते भी हैं तो अग्रपाद तथा पश्चपादों की लंबाई की असमता के कारण बड़ी कठिनाई से चल पाते हैं। ये बंदर की भाँति उछलकर एक पेड़ से दूसरे पेड़ पर नहीं जाते, बल्कि हवा के झोकों से झुकी डालियों को पकड़कर जाते हैं। ये अपना जीवन निर्वाह पत्तियों, कोमल टहनियों तथा फलों पर करते हैं। इनके अग्रपाद डालियों को खींचकर मुख की पहुँच के भीतर लाने में सहायक होते हैं, किंतु पत्तियों को मुख में ले जाने का काम नहीं लेते हैं। ये निशिचर, शांत प्रकृति के, अनाक्रामक एवं एकांतवासी होते हैं। इनकी मादा एक बार में प्राय: एक ही बच्चा जनती है।
चींटीखोर
(ऐंटईटर) यह मिरमेकोफेजिडी कुल का सदस्य है। इसका थूथन नुकीला होता है, जिसके छोर पर छिद्र के सामान एक मुखद्वार होता है। आँखे छोटी तथा कान का लोर किसी में छोटा और किसी में बड़ा होता है। प्रत्येक अग्रपाद में पाँच अँगुलियाँ होती हैं। इनमें तीसरी अँगुली में प्राय: बड़ा, मुड़ा हुआ और नुकीला नख होता है, जिससे हाथ कार्यक्षम तथा निपुण खोदनेवाला अवयव सिद्ध होता है।
पश्चपादों में चार पाँच छोटी बड़ी अँगुलियाँ होती हैं, जिसमें साधारण आकार के नख होते हैं। अग्रपाद की अँगुलियाँ भीतर की ओर मुड़ी होती हैं, जिससे चलते समय शरीर का भार अग्रपाद की दूसरी, तीसरी तथा चौथी अँगुलियों की ऊपरी सतह पर तथा पाँचवीं की छोर की एक गद्दी पर और पश्चपादों के पूरे पंजों पर पड़ता है। सभी चींटीखोरों में पूँछ बहुत लंबी होती है। किसी किसी की पूँछ परिग्राही होती है। शरीर लंबे बालों से आच्छादित होता है। द्विअंगुलक चींटीखोर (साइक्लोटुरस) में थूथन छोटा होता है और अग्रपाद में चार अँगुलियाँ होती हैं जिनमें केवल दूसरी तथा तीसरी में ही नख होते हैं। तीसरी का नख बड़ा होता हैं जो शाखालंबी के पैर की भाँति अंकुश सदृंश होती हैं।
चींटीखोर चूहे की नाप से लेकर दो फुट की ऊँचाई तक के होते हैं और दक्षिण तथा मध्य अमरीका में नदी किनारे तथा नम स्थानों में पाए जाते हैं। इनका मुख्य भोजन दीमक है। ये वर्मी (आर्माडिलोज़) की भाँति माँद बनाकर नहीं रहते। ये स्वयं किसी पर आक्रमण नहीं करते, किंन्तु आक्रमण किए जाने पर अपनी रक्षा नखों द्वारा करते हैं। मादा एक बार में एक ही बच्चा देती है।
वर्मी
(आर्माडिलोज़)-यह डेसीपोडाइडी कुल का सदस्य है। इसका सिर छोटा, चौड़ा तथा दबा हुआ होता है। प्रत्येक अग्रपाद में तीन से पाँच तक अँगुलियाँ होती हैं और इनमें पुष्ट नख होते हैं, जो एक प्रकार के खोदने वाले हथियार का काम देते हैं। पश्चपाद में सदा पाँच छोटी छोटी नखयुक्त अँगुलियाँ होती हैं। पूँछ प्राय: भली भाँति विकसित होती है। वर्मी का सारा शरीर हड्डी की छोटी पट्टियों से ढका रहता है। इसी से इसे वर्मी कहते हैं (वम=कवच)।
शरीर अस्थिल त्वचीय पाट्टियों से ढका रहता है। ये पट्टियाँ शरीर के लिए कवच का काम करती है। वर्मी (आर्माडिलोज़) में अंसफलकीय ढाल (स्कैंपुलर शील्ड) घनी संयुक्त पाट्टियों की बनी होती है और शरीर का अग्रभग पट्टियों से ढका होता है। इसके बाद अनुप्रस्थ धारियाँ होती हैं, जिनके बीच बीच में रोमयुक्त त्वचा होती है। पिछले भाग में एक पश्चश्रोणी ढाल (पेल्विक शील्ड) होती है। टोलीप्युटस जीनस में ये धारियाँ चलायमान होती हैं, जिससे यह जानवर अपने शरीर को लपेटकर गेंद जैसा बना लेता है। पूँछ भी अस्थिल पट्टियों के छल्लों से ढकी होती है और इसी प्रकार की पट्टियाँ सिर की भी रक्षा करती हैं।
वर्मी लंबाई में छह इंच से लेकर तीन फुट तक होते हैं। ये सर्वभक्षी होते हैं। जड़, मूल, कीड़े, पतंगे, छिपकलियाँ तथा मृत पशुओं का मांस इत्यादि सब कुछ इनका भोज्य है। यह जीव अधिकतर निशिचर होता है। कभी कभी दिन में भी दिखाई पड़ता है। यह अनाक्रामक होता है और अन्य जंतुओं को हानि नहीं पहुँचाता; यहाँ तक कि यदि पकड़ लिया जाय तो स्वतंत्र होने के लिए प्रयत्न भी नहीं करता। इसकी रक्षा का एकमात्र साधन भूमि खोदकर छिप जाना है। पैर छोटे होते है, फिर भी यह बड़ी तेजी से दौड़ता है। यह खुले मैदानों या जंगालों में रहता है।
वर्ग फ़ोलिडोटा-इस वर्ग के अंतर्गत आनेवाले प्राणियों की प्रमुख विशेषता यह है कि उनके सिर, धड़ तथा पूँछ शृंगशल्कों (सींग जैसी पट्टियों) से ढके होते हैं। शल्कों के बीच में यत्र तत्र बाल पाए जाते हैं। दाँत बिलकुल ही नहीं होते। जगल चाप (जूगुलर आर्च) तथा अक्षक (क्लैविकल) भी नहीं होते। खोपड़ी लंबी और बेलनाकार होती है। नेत्रगुहीय तथा शंखक खातों (टेंपोरल फ़ोसा) के कुछ विभाजन नहीं होता। जीभ बहुत लंबी होती है।
इस वर्ग के उदाहरण एशिया तथा अफ्रीका के वज्रकीट अथवा पैंगोलिन हैं। इस वर्ग में केवल एक जाति (जीनस) मेनीस है। इस जाति के अंतर्गत सात उपजातियाँ (स्पीशीज़) हैं, जिनमें से तीन उपजातियाँ बनरोहू ( मेनीस पेंटाडेक्टाइला), पहाड़ी वज्रकीट अथवा लोर धारी वज्रकीट (मेनीस आरिटा) तथा मलायी वज्रकीट (मेनीस जावानिका) भारत में पाए जाते हैं।
बनरोहू
हिमालय प्रदेश को छोड़कर शेष भारत तथा लंका में पाया जाता है। भारत के विभिन्न प्रदशों में इनके विभिन्न नाम हैं: वज्रकीट, वज्रकपटा, सालसालू, कौली मा, बनरोहू, खेतमाछ, इत्यादि। लोरधारी वज्रकीट (मेनीस) सिक्कम और नेपाल के पूर्व हिमालय की साधारण उँचाई में, आसाम और उत्तरी भागों की पहाड़ियों से लेकर करेन्नी, दक्षिण चीन, हैनान तथा फारमोसा में पाया जाता है। मलाया का वज्रकीट मलाया के पूर्ववर्ती देशों से लेकर सिलेबीज़ तक, कोचीन चीन, कंबोडिया के दक्षिण, सिलहट और टिपरा के पश्चिम में पाया जाता है।
सभी वज्रकीट दंतविहीन होते हैं और अन्य स्तनधारियों से भिन्न, बड़ी छिपकली की भाँति दिखाई देते हैं। लगभग ये सभी बिना कानवाले तथा लंबी पूँछवाले होते हैं। पूँछ जड़ में मोटी होती है। केवल पेट तथा शाखांगों (हाथ, पाँव, कान नाक इत्यादि) के अतिरिक्त संपूर्ण शरीर शल्कों से आच्छादित होता है। शल्कों के बीच बीच में कुछ मोटे बाल भी होते हैं। पूँछ का तल भाग भी शल्कों से ढका होता है। सिर छोटा और नुकीला, थूथुन संकीर्ण तथा मुखविवर छोटा होता है। जिह्वा लंबी, दूर तक बाहर निकलनेवाली तथा कृमि सदृश होती है। आमाशय चिड़ियों के पेषणी (गिज़र्ड) भाँति पेशीय होता है। शाखांग छोटे तथा पुष्ट होते हैं। प्रत्येक पैर में पाँच अँगुलियाँ होती हैं, जिनमें पुष्ट नख लगे होते हैं। अग्रपादों के नख पश्चपादों की अपेक्षा बड़े होते हैं। सभी पादों के मध्य नख बहुत बड़े होते हैं। अग्रपादों के नख विशेष रूप से मिट्टी खोदने के उपयुक्त बने होते हैं। चलने से उनकी नोक कुंठित न हो जाय, इसलिए वे भीतर की ओर मुड़े होते हैं। उनकी ऊपरी सतह ही धरातल को स्पर्श करती हे, क्योंकि ये जंतु हथेली के बल नहीं चलते, बल्कि चलते समय शरीर का भार चौथी तथा पाँचवीं अँगुलियों की बाह्य तथा ऊपरी सतह पर डालते हैं। पश्चपाद साधारण: पंजे के बल चलनेवाले होते हैं। चलते समय ये जानवर तलवे के बल पग रखते हैं और उस समय इनकी पीठ धनुषाकर हो जाती है।
जब कभी वज्रकीट (पैंगोलिन) पर किसी प्रकार का आक्रमण होता है तो वह अपने शरीर को लपेटकर गेंद के आकार का हो जाता है और शरीर पर लगे, एक के ऊपर एक चढ़े शल्कों के कोर आक्रमण से रक्षा करने तथा स्वयं प्रहार करने के काम आते हैं। यह जीव मंद गति से किंतु परिपुष्ट माँद निर्मित करता है। चींटियों तथा दीमकों के घरों को खोदकर यह अपनी लार से तर, चिकनी, लसीली और बड़ी जीभ की सहायता से उन क्षुद्र जंतुओं को खा जाता है। वज्रकीट के आमाशयों में प्राय: पत्थर के टुकड़े पाए गए हैं। ये पत्थर या तो चिड़ियों शरीर के ऊपर लगे, एक के ऊपर एक चढ़े, कड़े शलकों के कारण यह वज्रकीट कहलाता है। यह भारत के प्राय: सभी स्थानों में पाया जाता है और इसके विविध स्थानीय नाम हैं, यथा वज्रकीट, वज्रकपटा, सालसालू, कौली मा, बनरोहू, खेतमाछ, इत्यादि की भाँति पाचन के हेतु निगले जाते हैं अथवा कीटभोजन के साथ संयोगवश निगल लिए जाते हैं। नियमत: वज्रकीट निशिचर होता है और दिन में या तो चट्टानों की दरारों में अथवा स्वयंनिर्मित माँदों में छिपा रहता है। यह एकपत्नीधारी होता है। और इसकी मादा एक बार में केवल एक या दोे बच्चे ही पैदा करती है। वज्रकीट को कारावास (बंदी अवस्था) भी पाला जा सकता है और यह शीघ्र पालतू भी हो जाता है, किंतु इसे भोजन खिलाना कठिन होता है। इसमें अपने शरीर को झुका रखकर पिछले पैरों पर खड़े होने की विचित्र आदत होती है। वर्ग टयूबुलीडेंटाटा-इस वर्ग के अंतर्गत दक्षिण अफ्रीका का भूशूकर (आर्डवार्क या ऑरिक्टिरोपस) आता है। भूशूकर का शरीर मोटी खाल से ढका होता है, परन्तु सिर और थूथन इस प्रकार मिले होते हैं कि पता नहीं चलता, कहाँ सिर का अंत और थूथन का आंरभ है। मुख छोटा और जीभ लंबी होती है। मुख में खूँटी के समान चार या पाँच दाँत होते हैं, जिनकी बनावट विचित्र होती है। दाँतों में दंतवलक नहीं होता, सोवैडेंटीन होता है, जिस पर एक प्रकार के सीमेंट का आवरण होता है। बैसोडेंटीन की मज्जागुहा (पल्प कैविटी) नालिकाओं द्वारा छिद्रित होती है, जिसके कारण इस वर्ग का नाम नलीदार दंतधारी (टयूबुलीडेंटाटा) पड़ा है।
भूशूकर
भूशूकर के अग्रपाद छोटे तथा मजबूत होते हैं और प्रत्येक में चार अँगुलियाँ होती हैं। चलते समय इनकी हथेलियाँ और पैर के तलवे पृथ्वी को स्पर्श करते हैं। पश्चपादों में पाँच अँगुलियाँ होती हैं। लंबाई में ये जीव छह फुट तक पहुँच जाते हैं। भूशूकर का जीवननिर्वाह दीमकों से होता है। अफ्रीका में पाया जानेवाला जंतु जो पूँछ लेकर पाँच फुट तक लंबा होता है और दीमक खाकर जीवननिर्वाह करता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
सं.ग्रं.-आर.ए.स्टर्नडेल: नैचुरल हिस्ट्री ऑव इंडियन मैमेलिया (1884); फ्रैंकफिन: स्टर्नडेल्स मैमेलिया ऑव इंडिया (1929);पार्कर ऐंड हैसवेल: टेक्स्टबुक ऑव ज़ूलाज़ी (1941);फ़ैकाइ वोर लिरे: दि नैचूरल हिस्ट्री ऑव मैमल्स (1955)।