"कच्ची सड़क": अवतरणों में अंतर

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कच्ची सड़कें प्राचीन काल से ही पगडंडियाँ बनने लगी थीं। परंतु सभ्यता के विकास के साथ ही चौड़ी कच्ची सड़कें बनने लगीं। मोहनजोदड़ो (सिंध) की खुदाई से पता चला है कि 3,००० ई.पू. में भी चौड़ी कच्ची सड़कें बनने लगी थीं और उनमें पानी की निकासी का भी अच्छा प्रबंध रहता था। मौर्यकाल (लगभग 6०० ई.) में सड़क बनाने और उसकी देखरेख की कला समुन्नत अवस्था में पहुँच गई थी। उस काल में कहा जाता था कि राजपथ कछुए की पीठ के समान कड़ा और ढालू हो और उसकी चौड़ाई कम से कम 16 हाथ हो। सैनिक उपयोग तथा वाणिज्य के लिए महत्वपूर्ण सड़कों का एक जाल सा बिछ गया था, जिसमें सर्वविख्यात सड़क उत्तरापथ की थी। सन्‌ 154० से 1555 तक शेरशाह सूरी ने इसी को दोबारा सुधारकर बंगाल से पेशावर तक बनवाया था। अंग्रेजी शासनकाल में इसे ही ग्रैंड ट्रंक रोड कहा गया। ये सब सड़कें वस्तुत: कच्ची ही थीं।
कच्ची सड़कें प्राचीन काल से ही पगडंडियाँ बनने लगी थीं। परंतु सभ्यता के विकास के साथ ही चौड़ी कच्ची सड़कें बनने लगीं। मोहनजोदड़ो (सिंध) की खुदाई से पता चला है कि 3,000 ई.पू. में भी चौड़ी कच्ची सड़कें बनने लगी थीं और उनमें पानी की निकासी का भी अच्छा प्रबंध रहता था। मौर्यकाल (लगभग 600 ई.) में सड़क बनाने और उसकी देखरेख की कला समुन्नत अवस्था में पहुँच गई थी। उस काल में कहा जाता था कि राजपथ कछुए की पीठ के समान कड़ा और ढालू हो और उसकी चौड़ाई कम से कम 16 हाथ हो। सैनिक उपयोग तथा वाणिज्य के लिए महत्वपूर्ण सड़कों का एक जाल सा बिछ गया था, जिसमें सर्वविख्यात सड़क उत्तरापथ की थी। सन्‌ 1540 से 1555 तक शेरशाह सूरी ने इसी को दोबारा सुधारकर बंगाल से पेशावर तक बनवाया था। अंग्रेजी शासनकाल में इसे ही ग्रैंड ट्रंक रोड कहा गया। ये सब सड़कें वस्तुत: कच्ची ही थीं।


सन्‌ 1९5९ में भारत में कुल 3,९3,००० मील लंबी सड़कें थीं। इनमें कच्ची सड़कें 2,53,8०० मील थीं। कच्ची सड़कें यातायात के बढ़ जाने पर पक्की बना दी जाती हैं। इसलिए उनका पथनिर्णय और ज्यामितिक आकल्पन (डिज़ाइन), अर्थात्‌ उनकी चौड़ाई, वक्रों की गोलाई, चढ़ाई, उतराई की ढलान इत्यादि, के निर्णय उन्हीं सिद्धांतों पर किए जाते हैं जिनपर पक्की सड़कें बनाई जाती हैं। जहाँ पुल बनाने की आवश्कता होती है वहाँ पुल भी वैसी ही सामर्थ्य के बनाए जाते हैं जैसे पक्की सड़कों पर।
सन्‌ 1959 में भारत में कुल 3,93,000 मील लंबी सड़कें थीं। इनमें कच्ची सड़कें 2,53,800 मील थीं। कच्ची सड़कें यातायात के बढ़ जाने पर पक्की बना दी जाती हैं। इसलिए उनका पथनिर्णय और ज्यामितिक आकल्पन (डिज़ाइन), अर्थात्‌ उनकी चौड़ाई, वक्रों की गोलाई, चढ़ाई, उतराई की ढलान इत्यादि, के निर्णय उन्हीं सिद्धांतों पर किए जाते हैं जिनपर पक्की सड़कें बनाई जाती हैं। जहाँ पुल बनाने की आवश्कता होती है वहाँ पुल भी वैसी ही सामर्थ्य के बनाए जाते हैं जैसे पक्की सड़कों पर।


यातायात से मिट्टी के धूल में बदल जाने कारण और वर्षा में कीचड़ और फिसलन हो जाने के कारण कच्ची सड़कें तेज चाल की गाड़ियों के लिए खराब मौसम में ठीक नहीं रहतीं। कभी-कभी तो बैलगाड़ियों तक का इनपर चलना कठिन हो जाता है। इसलिए जनता इन्हें पसंद नहीं करती। किंतु पक्की सड़क बनाने में लागत बहुत आती है, अत: सभी सड़कें पक्की नहीं बनाई जा सकतीं।
यातायात से मिट्टी के धूल में बदल जाने कारण और वर्षा में कीचड़ और फिसलन हो जाने के कारण कच्ची सड़कें तेज चाल की गाड़ियों के लिए खराब मौसम में ठीक नहीं रहतीं। कभी-कभी तो बैलगाड़ियों तक का इनपर चलना कठिन हो जाता है। इसलिए जनता इन्हें पसंद नहीं करती। किंतु पक्की सड़क बनाने में लागत बहुत आती है, अत: सभी सड़कें पक्की नहीं बनाई जा सकतीं।
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#दो स्थानों के बीच की सड़क लंबाई में यथासंभव छोटी से छोटी होनी चाहिए।
#दो स्थानों के बीच की सड़क लंबाई में यथासंभव छोटी से छोटी होनी चाहिए।
#सड़क ऐसे गाँवों और कस्बों से होकर निकलनी चाहिए जिससे उस क्षेत्र के वाणिज्य, उद्योग तथा कृषि की समस्त आवश्यकताओं की अधिक से अधिक पूर्ति हो सके।
#सड़क ऐसे गाँवों और कस्बों से होकर निकलनी चाहिए जिससे उस क्षेत्र के वाणिज्य, उद्योग तथा कृषि की समस्त आवश्यकताओं की अधिक से अधिक पूर्ति हो सके।
#सड़कों में उतार चढ़ाव बहुत तीव्र न होना चाहिए। मैदानों में उतार या चढ़ाव साधारणत: 1०० लंबाई में 1 ऊँचाई का, और अधिक से अधिक 33 लंबाई में 1 ऊँचाई का, होना चाहिए। पहाड़ों पर उतार चढ़ाव साधारणत: 2० में 1 का और अधिक से अधिक 14 में 1 रहना चाहिए।
#सड़कों में उतार चढ़ाव बहुत तीव्र न होना चाहिए। मैदानों में उतार या चढ़ाव साधारणत: 100 लंबाई में 1 ऊँचाई का, और अधिक से अधिक 33 लंबाई में 1 ऊँचाई का, होना चाहिए। पहाड़ों पर उतार चढ़ाव साधारणत: 20 में 1 का और अधिक से अधिक 14 में 1 रहना चाहिए।
#वक्रता यथासंभव कम होनी चाहिए। वक्रता की न्यूनतम त्रिज्या कम से कम 3०० फुट हो। साधारणत: यह लगभग 1,००० फुट होनी चाहिए।
#वक्रता यथासंभव कम होनी चाहिए। वक्रता की न्यूनतम त्रिज्या कम से कम 300 फुट हो। साधारणत: यह लगभग 1,000 फुट होनी चाहिए।
#सड़क के बीच से दोनों ओर ढाल रहनी चाहिए। जिससे वर्षा का पानी उसपर से सरलतापूर्वक बह जाए।
#सड़क के बीच से दोनों ओर ढाल रहनी चाहिए। जिससे वर्षा का पानी उसपर से सरलतापूर्वक बह जाए।
#सड़क के लिए छोड़ी हुई भूमि कम से कम 4० फुट और अधिक से अधिक 15० फुट चौड़ी रहनी चाहिए।
#सड़क के लिए छोड़ी हुई भूमि कम से कम 40 फुट और अधिक से अधिक 150 फुट चौड़ी रहनी चाहिए।


पास पड़ोस की भूमि से सड़क कुछ ऊँची होनी चाहिए। जहाँ बाढ़ आती हो वहाँ जल के उच्चतम स्तर से सड़क कम से कम डेढ़ फुट ऊँची होनी चाहिए। सड़क के बाँध के पार्श्वों की ढाल दो पड़े और एक खड़े के अनुपात में हो, जैसा चित्र में दिखा गया है।
पास पड़ोस की भूमि से सड़क कुछ ऊँची होनी चाहिए। जहाँ बाढ़ आती हो वहाँ जल के उच्चतम स्तर से सड़क कम से कम डेढ़ फुट ऊँची होनी चाहिए। सड़क के बाँध के पार्श्वों की ढाल दो पड़े और एक खड़े के अनुपात में हो, जैसा चित्र में दिखा गया है।
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==देखरेख==
==देखरेख==
यदि नया बाँध बाँधा गया हो और उसकी ऊँचाई 1० फुट से अधक हो तो वर्षा से उसकी रक्षा के लिए बगल में गिरनेवाले जल को बगल में बनी नालियों में गिरने देना चाहिए। ये नालियाँ कहीं दूर जाकर पानी को बहा दें। बाँध कहीं कटकर बह न जाए, अत: ऊपरी चार इंच में खादयुक्त मिट्टी हो, जिसमें उपयुक्त घास बो दी जाए। ढालों पर सरपत रोपी जा सकती है। सड़क की कोर परदूब जमाई जा सकती है।
यदि नया बाँध बाँधा गया हो और उसकी ऊँचाई 10 फुट से अधक हो तो वर्षा से उसकी रक्षा के लिए बगल में गिरनेवाले जल को बगल में बनी नालियों में गिरने देना चाहिए। ये नालियाँ कहीं दूर जाकर पानी को बहा दें। बाँध कहीं कटकर बह न जाए, अत: ऊपरी चार इंच में खादयुक्त मिट्टी हो, जिसमें उपयुक्त घास बो दी जाए। ढालों पर सरपत रोपी जा सकती है। सड़क की कोर परदूब जमाई जा सकती है।


यदि सड़क कहीं कट या फट जाए तो उसकी मरम्मत तुरंत करनी चाहिए। कभी-कभी सड़क पर पड़ी लीकों को भी भर देना चाहिए और कुटाई करके चौरस कर देना चाहिए।
यदि सड़क कहीं कट या फट जाए तो उसकी मरम्मत तुरंत करनी चाहिए। कभी-कभी सड़क पर पड़ी लीकों को भी भर देना चाहिए और कुटाई करके चौरस कर देना चाहिए।


==वृक्षरोपण==
==वृक्षरोपण==
सड़कों के अगल बगल छायादार वृक्षों के रोपने की प्रथा है। इससे गर्मी में यात्रियों को छाया मिलती है और फल तथा लकड़ी से कुछ आय भी हो जाती है। पेड़ों की छाया से यात्रा का कष्ट बहुत कुछ मिट जाता है। पाश्ववर्ती वृक्षावली का गाड़ी चालक के मस्तिष्क पर शांतिप्रद प्रभाव पड़ता है और उसकी थकान कम होती है। यदि सड़क का बाँध 32 फुट चौड़ा हो, तो वृक्षों की पंक्तियाँ सड़क के मध्य भाग से 3० फुट अथवा अधिक दूरी पर हों। वृक्षों के बीच की दूरी वृक्षों की किस्म पर निर्भर है। परंतु साधारणत: वे 4०-4० फुट पर लगाए जाते हैं। यदि वृक्ष बड़े और बहुशाखी हों, तो उनके बीच की दूरी 6० फुट तक बढ़ा दी जा सकती है। छोटे पेड़ों के लिए यह दूरी 3० फुट तक भी रखी जा सकती है। निम्नलिखित वृक्ष इस काम के लिए उपयोगी हैं :-शीशम, आम, अर्जुन, तुन, इमली, जामुन, पाकड़, नीम इत्यादि। इनमें से आम और शीशम उत्तर भारत के मैदानों में अधिक लोकप्रिय हैं।
सड़कों के अगल बगल छायादार वृक्षों के रोपने की प्रथा है। इससे गर्मी में यात्रियों को छाया मिलती है और फल तथा लकड़ी से कुछ आय भी हो जाती है। पेड़ों की छाया से यात्रा का कष्ट बहुत कुछ मिट जाता है। पाश्ववर्ती वृक्षावली का गाड़ी चालक के मस्तिष्क पर शांतिप्रद प्रभाव पड़ता है और उसकी थकान कम होती है। यदि सड़क का बाँध 32 फुट चौड़ा हो, तो वृक्षों की पंक्तियाँ सड़क के मध्य भाग से 30 फुट अथवा अधिक दूरी पर हों। वृक्षों के बीच की दूरी वृक्षों की किस्म पर निर्भर है। परंतु साधारणत: वे 40-40 फुट पर लगाए जाते हैं। यदि वृक्ष बड़े और बहुशाखी हों, तो उनके बीच की दूरी 60 फुट तक बढ़ा दी जा सकती है। छोटे पेड़ों के लिए यह दूरी 30 फुट तक भी रखी जा सकती है। निम्नलिखित वृक्ष इस काम के लिए उपयोगी हैं :-शीशम, आम, अर्जुन, तुन, इमली, जामुन, पाकड़, नीम इत्यादि। इनमें से आम और शीशम उत्तर भारत के मैदानों में अधिक लोकप्रिय हैं।


नीरसता मिटाने और सौंदर्यवृद्धि के लिए कहीं-कहीं फूलवाले अथवा सुंदर आकृतिवाले वृक्ष भी लगा दिए जाते हैं, विशेषकर नगरों के आपास अथवा महत्वपूर्ण पुलों के समीप। निम्नलिखित वृक्ष इस काम के लिए उपयोगी हैं-अमलतास, कचनार, गुलमोहर, जेकरांडा, मौलसिरी (मौलिश्री, बकुल), अशोक, यूकालिप्टस इत्यादि।
नीरसता मिटाने और सौंदर्यवृद्धि के लिए कहीं-कहीं फूलवाले अथवा सुंदर आकृतिवाले वृक्ष भी लगा दिए जाते हैं, विशेषकर नगरों के आपास अथवा महत्वपूर्ण पुलों के समीप। निम्नलिखित वृक्ष इस काम के लिए उपयोगी हैं-अमलतास, कचनार, गुलमोहर, जेकरांडा, मौलसिरी (मौलिश्री, बकुल), अशोक, यूकालिप्टस इत्यादि।

१३:२९, २१ फ़रवरी २०१४ के समय का अवतरण

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लेख सूचना
कच्ची सड़क
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 2
पृष्ठ संख्या 362-364
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक सुधाकर पांडेय
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1975 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक कार्तिक प्रसाद

कच्ची सड़कें प्राचीन काल से ही पगडंडियाँ बनने लगी थीं। परंतु सभ्यता के विकास के साथ ही चौड़ी कच्ची सड़कें बनने लगीं। मोहनजोदड़ो (सिंध) की खुदाई से पता चला है कि 3,000 ई.पू. में भी चौड़ी कच्ची सड़कें बनने लगी थीं और उनमें पानी की निकासी का भी अच्छा प्रबंध रहता था। मौर्यकाल (लगभग 600 ई.) में सड़क बनाने और उसकी देखरेख की कला समुन्नत अवस्था में पहुँच गई थी। उस काल में कहा जाता था कि राजपथ कछुए की पीठ के समान कड़ा और ढालू हो और उसकी चौड़ाई कम से कम 16 हाथ हो। सैनिक उपयोग तथा वाणिज्य के लिए महत्वपूर्ण सड़कों का एक जाल सा बिछ गया था, जिसमें सर्वविख्यात सड़क उत्तरापथ की थी। सन्‌ 1540 से 1555 तक शेरशाह सूरी ने इसी को दोबारा सुधारकर बंगाल से पेशावर तक बनवाया था। अंग्रेजी शासनकाल में इसे ही ग्रैंड ट्रंक रोड कहा गया। ये सब सड़कें वस्तुत: कच्ची ही थीं।

सन्‌ 1959 में भारत में कुल 3,93,000 मील लंबी सड़कें थीं। इनमें कच्ची सड़कें 2,53,800 मील थीं। कच्ची सड़कें यातायात के बढ़ जाने पर पक्की बना दी जाती हैं। इसलिए उनका पथनिर्णय और ज्यामितिक आकल्पन (डिज़ाइन), अर्थात्‌ उनकी चौड़ाई, वक्रों की गोलाई, चढ़ाई, उतराई की ढलान इत्यादि, के निर्णय उन्हीं सिद्धांतों पर किए जाते हैं जिनपर पक्की सड़कें बनाई जाती हैं। जहाँ पुल बनाने की आवश्कता होती है वहाँ पुल भी वैसी ही सामर्थ्य के बनाए जाते हैं जैसे पक्की सड़कों पर।

यातायात से मिट्टी के धूल में बदल जाने कारण और वर्षा में कीचड़ और फिसलन हो जाने के कारण कच्ची सड़कें तेज चाल की गाड़ियों के लिए खराब मौसम में ठीक नहीं रहतीं। कभी-कभी तो बैलगाड़ियों तक का इनपर चलना कठिन हो जाता है। इसलिए जनता इन्हें पसंद नहीं करती। किंतु पक्की सड़क बनाने में लागत बहुत आती है, अत: सभी सड़कें पक्की नहीं बनाई जा सकतीं।

कच्ची सड़क का निर्माण-सड़क के पथ का निर्णय हो जाने पर सर्वेक्षण से उसकी इच्छित चौड़ाई के दोनों ओर लकीरें लगाई जाती हैं और फिर इच्छित चौड़ाई के दोनों ओर लकीरें लगाई जाती हैं और फिर इच्छित समतल और ढाल के अनुसार उसमें मिट्टी की कटाई और भराई की जाती है। कच्ची सड़कों के लिए यह कटाई और भराई न्यूनतम रखी जाती है और जहाँ तक हो सकता है सड़क को दोनों ओर की प्राकृतिक भूमि से नौ इंच से अधिक ऊँचा या नीचा नहीं रखा जाता। भारत में यह काम मजदूर गैंती, फावड़े से ही कर लेते हैं, परंतु विदेशों में यह काम मिट्टी खोदनेवाली मशीनें करती हैं जिन्हें मोटर ग्रेडर कहते हैं। भारत में भी जहाँ मजदूर मिलने में दिक्कत होती है, या जहाँ काम शीघ्रता से कराना होता है, जैसे सेना के लिए, वहाँ मोटर ग्रेडर काम में लाए जाते हैं। इन मशीनों में उनके आगे पैनी धारवाली इस्पात की चौड़ी पट्टी लगी होती है। भूमि पर इन ग्रेडरों को चलाने के लिए बगल की मिट्टी खुरचकर बीच में पड़ जाती है और इस प्रसकार सड़क का बीच का भाग ऊँचा हो जाता है और सड़क के दोनों ओर इच्छित ढाल तथा पानी बहने के लिए नाली भी बन जाती है। इन मोटर ग्रेडरों की सहायता से सड़क का निर्माण शीघ्रता से इच्छित लंबाई, चौड़ाई तथा ढालवाला हो जाता है। वर्षा में सड़क के खराब हो जाने पर और अधिक यातायात से भी ढाल बिगड़ जाने पर हल्के ग्रेडर सड़क को फुर्ती से ठीक कर देते हैं। यह कार्य मजदूरों के शारीरिक परिश्रम से इतना अच्छा नहीं हो सकता। जहाँ सड़क के बाँध की ऊँचाई अधिक होती है वहाँ मजदूर भी ठीक काम कर सकते हैं, जैसा आगे बताया गया है।

रेखांकन

नवीन सड़कों की लकीर लगाने में ये सिद्धांत प्रयुक्त होते हैं :

  1. दो स्थानों के बीच की सड़क लंबाई में यथासंभव छोटी से छोटी होनी चाहिए।
  2. सड़क ऐसे गाँवों और कस्बों से होकर निकलनी चाहिए जिससे उस क्षेत्र के वाणिज्य, उद्योग तथा कृषि की समस्त आवश्यकताओं की अधिक से अधिक पूर्ति हो सके।
  3. सड़कों में उतार चढ़ाव बहुत तीव्र न होना चाहिए। मैदानों में उतार या चढ़ाव साधारणत: 100 लंबाई में 1 ऊँचाई का, और अधिक से अधिक 33 लंबाई में 1 ऊँचाई का, होना चाहिए। पहाड़ों पर उतार चढ़ाव साधारणत: 20 में 1 का और अधिक से अधिक 14 में 1 रहना चाहिए।
  4. वक्रता यथासंभव कम होनी चाहिए। वक्रता की न्यूनतम त्रिज्या कम से कम 300 फुट हो। साधारणत: यह लगभग 1,000 फुट होनी चाहिए।
  5. सड़क के बीच से दोनों ओर ढाल रहनी चाहिए। जिससे वर्षा का पानी उसपर से सरलतापूर्वक बह जाए।
  6. सड़क के लिए छोड़ी हुई भूमि कम से कम 40 फुट और अधिक से अधिक 150 फुट चौड़ी रहनी चाहिए।

पास पड़ोस की भूमि से सड़क कुछ ऊँची होनी चाहिए। जहाँ बाढ़ आती हो वहाँ जल के उच्चतम स्तर से सड़क कम से कम डेढ़ फुट ऊँची होनी चाहिए। सड़क के बाँध के पार्श्वों की ढाल दो पड़े और एक खड़े के अनुपात में हो, जैसा चित्र में दिखा गया है।

सड़कों के बाँध बनाने, अर्थात्‌ भराव करने के लिए, मिट्टी के काम की मान्यताएँ

सड़क के आसपास के ऊँचे स्थानों को, या गड्ढे खोदकर, मिट्टी ले ली जाती है। ये गड्ढे साधारणत: एक फुट से अधिक गहरे न हों, और यथासंभव बराबर चौड़ाई के हों, एक दूसरे से संबद्ध हों तथा ऐसा प्रबंध रहे कि बरसात में उनमें पानी न रुके। गड्ढे बेढंगे न हों और इधर-उधर न खोदे जाएँ।

यदि यांत्रिक कुटाई न की जाए तो मान लेना चाहिए कि निम्नलिखित अनुपात में मिट्टी बैठेगी :

बलुई मिट्टी-एक इंच प्रति फुट ऊँचाई

दोमट (लोम) मिट्टी-डेढ़ इंच प्रति फुट ऊँचाई

चिकनी तथा काली मिट्टी-दो इंच प्रति फुट ऊँचाई

यदि मिट्टी ढालू पृष्ठ पर डाली जाए तो पृष्ठ को सीढ़ीनुमा बना देना चाहिए। बगल की ढाल यथासंभव दो पड़े और एक खड़े के अनुपात में हो और वह प्राकृतिक विश्राम कोण से किसी भी दिशा में अधिक न हो। दोमट मिट्टी के लिए साधारणत: दो क्षैतिज और एक ऊर्ध्वाधर के अनुपात में बगली ढाल बनाई जाती है और अच्छी तरह कूटी हुई चिकनी मिट्टी तथा बजरीवाली मिट्टी के लिए 1 ह : 1 की ढाल दी जा सकती है।

पानी की निकासी

सड़क के भराव से पानी की निकासी का प्रबंध करना अत्यंत महत्वूपर्ण है। अधिक आर्द्रता से भार सहन करने की शक्ति घट जाती है। फिर, चिकनी मिट्टी और काली मिट्टी पर अधिक पानी पड़ने से भूमि फूल उठती है और सूखने पर संकुचित हो जाती है। ये दोनों बातें हानिकर हैं। अत: यह परमावश्यक है कि कच्ची सड़कों के पृष्ठ से पानी के शीघ्र बह जाने के लिए सड़क के बीच की ऊँचाई किनारों की अपेक्षा 1 : 3 के अनुपात में रखी जाए। बगल में इस नाप और इस ढाल की नालियाँ रखी जाएँ कि महत्तम प्रत्याशित वर्षा का जल भी शीघ्रता से बह जाए।

देखरेख

यदि नया बाँध बाँधा गया हो और उसकी ऊँचाई 10 फुट से अधक हो तो वर्षा से उसकी रक्षा के लिए बगल में गिरनेवाले जल को बगल में बनी नालियों में गिरने देना चाहिए। ये नालियाँ कहीं दूर जाकर पानी को बहा दें। बाँध कहीं कटकर बह न जाए, अत: ऊपरी चार इंच में खादयुक्त मिट्टी हो, जिसमें उपयुक्त घास बो दी जाए। ढालों पर सरपत रोपी जा सकती है। सड़क की कोर परदूब जमाई जा सकती है।

यदि सड़क कहीं कट या फट जाए तो उसकी मरम्मत तुरंत करनी चाहिए। कभी-कभी सड़क पर पड़ी लीकों को भी भर देना चाहिए और कुटाई करके चौरस कर देना चाहिए।

वृक्षरोपण

सड़कों के अगल बगल छायादार वृक्षों के रोपने की प्रथा है। इससे गर्मी में यात्रियों को छाया मिलती है और फल तथा लकड़ी से कुछ आय भी हो जाती है। पेड़ों की छाया से यात्रा का कष्ट बहुत कुछ मिट जाता है। पाश्ववर्ती वृक्षावली का गाड़ी चालक के मस्तिष्क पर शांतिप्रद प्रभाव पड़ता है और उसकी थकान कम होती है। यदि सड़क का बाँध 32 फुट चौड़ा हो, तो वृक्षों की पंक्तियाँ सड़क के मध्य भाग से 30 फुट अथवा अधिक दूरी पर हों। वृक्षों के बीच की दूरी वृक्षों की किस्म पर निर्भर है। परंतु साधारणत: वे 40-40 फुट पर लगाए जाते हैं। यदि वृक्ष बड़े और बहुशाखी हों, तो उनके बीच की दूरी 60 फुट तक बढ़ा दी जा सकती है। छोटे पेड़ों के लिए यह दूरी 30 फुट तक भी रखी जा सकती है। निम्नलिखित वृक्ष इस काम के लिए उपयोगी हैं :-शीशम, आम, अर्जुन, तुन, इमली, जामुन, पाकड़, नीम इत्यादि। इनमें से आम और शीशम उत्तर भारत के मैदानों में अधिक लोकप्रिय हैं।

नीरसता मिटाने और सौंदर्यवृद्धि के लिए कहीं-कहीं फूलवाले अथवा सुंदर आकृतिवाले वृक्ष भी लगा दिए जाते हैं, विशेषकर नगरों के आपास अथवा महत्वपूर्ण पुलों के समीप। निम्नलिखित वृक्ष इस काम के लिए उपयोगी हैं-अमलतास, कचनार, गुलमोहर, जेकरांडा, मौलसिरी (मौलिश्री, बकुल), अशोक, यूकालिप्टस इत्यादि।

यदि सड़क के रास्तें में नाला या नदी पड़े तो उस पर उपयुक्त पुल बनाना चाहिए। वह पुल इतना ऊँचा हो कि घोरतम वर्षा में भी सुगमतापूर्वक इसपर से जल बह जाए। पुलों का आकल्पन यह ध्यान रखकर करना चाहिए कि सड़क पर चलनेवाली भारी गाड़ियों का बोझ निरापद रूप से सहन कर सकें। सामान्यत: इंडियन रोड्स कांग्रेस के वर्ग बी के सिद्धांतों के अनुसार इन पुलों और पुलियों का आकल्पन करना चाहिए। यदि सड़क की एक बगल की भूमि ऊँची तथा दूसरी ओर की नीची हो तो थोड़ी-थोड़ी दूर पर पुलियाँ बना देनी चाहिए, जिससे वर्षा का जल सुगमता से पार हो सके। ऊँची ओर की भूमि का सर्वेक्षण करके पता लगा लेना चाहिए कि वर्षा का कितना जल एक ओर से दूसरी ओर जाएगा और पुलियों की नाम उसी के अनुसार रखनी चाहिए।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

“खण्ड 2”, हिन्दी विश्वकोश, 1975 (हिन्दी), भारतडिस्कवरी पुस्तकालय: नागरी प्रचारिणी सभा वाराणसी, 362-364।