"महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 220 भाग 7": अवतरणों में अंतर
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==विंशत्यधिकद्विशततम (220) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)== | ==विंशत्यधिकद्विशततम (220) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)== | ||
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: शान्ति पर्व: विंशत्यधिकद्विशततम अध्याय: भाग 7 का हिन्दी अनुवाद</div> | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: शान्ति पर्व: विंशत्यधिकद्विशततम अध्याय: भाग 7 का हिन्दी अनुवाद</div> | ||
वेदों में ब्रह्रा की उपासना अथवा उसकी प्राप्ति के साधन का उपदेश है । उपासना के उपाय भी सूचित किये गये हैं । (जैसे ग्रहणकाल में चन्द्रमा और सूर्य के साथ राहु का दर्शन होता है उसी प्रकार) उपलक्षण योग से प्रत्येक शरीर में जीवात्मारूप से ब्रह्रा की ही स्थिति का प्रदर्शन किया गया है । इसके सिवा नेति-नेति आदि निषेधात्मक वचनों द्वारा अनात्मवस्तु के बाधपूर्वक ब्रह्रा के स्वरूप की ओर संकेत किया गया है । इसलिये शुद्धस्वरूप परमात्मा एकमात्र वेदगम्य हैं, यही मेरी सुनिश्चित धारणा है ।। शुभ आचरणों वाली देवि ! तुम्हें यह विदित हो कि अध्यात्मतत्व के चिन्तन से नित्य ज्ञान दीपक की भॉति स्वष्टरूप से प्रकाशित होने लगता है । उस ज्ञान से मनुष्य परमगति को प्राप्त होते हैं । शुभे ! शुद्धस्वरूपे ! ज्ञानदृष्टि से सम्पन्न देवि ! मैंने यह जो गूढ़ एवं यथार्थ ब्रह्राज्ञान का विषय बताया है, इसे तुमने सुना है या नही ? शुभे ! परब्रह्रा परमात्मा का ऐश्वर्य नाना रूपों में दिखायी देता है ।वायु की वहॉ तक पहॅुच नहीं है । सूर्य और अग्नि उस परमपदस्वरूप परमेश्वर को प्रकाशित नहीं कर सकते । परमात्मा से ही यह सम्पूर्ण जगत् परिपूर्ण है और वे ही प्रत्येक प्राणी के हृदयमें आत्मारूप से निवास करते हैं ।। इतना ही परमात्मविज्ञान है । इतना ही अहम् पदार्थ माना गया है । हम दोनों की सत्ता नित्य नहीं है, ऐसी धारणा अज्ञान के कारण होती है ।। भीष्म जी कहते हैं – राजन् ! अपने पति श्वेतकेतु के इस प्रकार यथार्थ उपदेश देनेपर सुवर्चला आनन्दमग्न हो गयी । वह निरन्तर तत्वज्ञाननिष्ठ रहकर तदनुरूप आचरण करने लगी ।। श्वेतकेतु पत्नी को साथ रखकर नित्य नैमित्तिक कर्मों में संलग्न रहते थे । वे सबके हृदय में निवास करनेवाले महात्मा परमात्मा गोविन्द को अपने समस्त कर्म समर्पित करके उन्हीं के ध्यान में तन्मय रहा करते थे । राजन् ! इस प्रकार दीर्घकालतक परमात्मचिन्तन करके उन्होंने परमगति प्राप्त कर ली । | वेदों में ब्रह्रा की उपासना अथवा उसकी प्राप्ति के साधन का उपदेश है । उपासना के उपाय भी सूचित किये गये हैं । (जैसे ग्रहणकाल में चन्द्रमा और सूर्य के साथ राहु का दर्शन होता है उसी प्रकार) उपलक्षण योग से प्रत्येक शरीर में जीवात्मारूप से ब्रह्रा की ही स्थिति का प्रदर्शन किया गया है । इसके सिवा नेति-नेति आदि निषेधात्मक वचनों द्वारा अनात्मवस्तु के बाधपूर्वक ब्रह्रा के स्वरूप की ओर संकेत किया गया है । इसलिये शुद्धस्वरूप परमात्मा एकमात्र वेदगम्य हैं, यही मेरी सुनिश्चित धारणा है ।। शुभ आचरणों वाली देवि ! तुम्हें यह विदित हो कि अध्यात्मतत्व के चिन्तन से नित्य ज्ञान दीपक की भॉति स्वष्टरूप से प्रकाशित होने लगता है । उस ज्ञान से मनुष्य परमगति को प्राप्त होते हैं । शुभे ! शुद्धस्वरूपे ! ज्ञानदृष्टि से सम्पन्न देवि ! मैंने यह जो गूढ़ एवं यथार्थ ब्रह्राज्ञान का विषय बताया है, इसे तुमने सुना है या नही ? शुभे ! परब्रह्रा परमात्मा का ऐश्वर्य नाना रूपों में दिखायी देता है ।वायु की वहॉ तक पहॅुच नहीं है । सूर्य और अग्नि उस परमपदस्वरूप परमेश्वर को प्रकाशित नहीं कर सकते । परमात्मा से ही यह सम्पूर्ण जगत् परिपूर्ण है और वे ही प्रत्येक प्राणी के हृदयमें आत्मारूप से निवास करते हैं ।। इतना ही परमात्मविज्ञान है । इतना ही अहम् पदार्थ माना गया है । हम दोनों की सत्ता नित्य नहीं है, ऐसी धारणा अज्ञान के कारण होती है ।। भीष्म जी कहते हैं – राजन् ! अपने पति श्वेतकेतु के इस प्रकार यथार्थ उपदेश देनेपर सुवर्चला आनन्दमग्न हो गयी । वह निरन्तर तत्वज्ञाननिष्ठ रहकर तदनुरूप आचरण करने लगी ।। श्वेतकेतु पत्नी को साथ रखकर नित्य नैमित्तिक कर्मों में संलग्न रहते थे । वे सबके हृदय में निवास करनेवाले महात्मा परमात्मा गोविन्द को अपने समस्त कर्म समर्पित करके उन्हीं के ध्यान में तन्मय रहा करते थे । राजन् ! इस प्रकार दीर्घकालतक परमात्मचिन्तन करके उन्होंने परमगति प्राप्त कर ली । | ||
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०५:१०, २० सितम्बर २०१५ के समय का अवतरण
विंशत्यधिकद्विशततम (220) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
वेदों में ब्रह्रा की उपासना अथवा उसकी प्राप्ति के साधन का उपदेश है । उपासना के उपाय भी सूचित किये गये हैं । (जैसे ग्रहणकाल में चन्द्रमा और सूर्य के साथ राहु का दर्शन होता है उसी प्रकार) उपलक्षण योग से प्रत्येक शरीर में जीवात्मारूप से ब्रह्रा की ही स्थिति का प्रदर्शन किया गया है । इसके सिवा नेति-नेति आदि निषेधात्मक वचनों द्वारा अनात्मवस्तु के बाधपूर्वक ब्रह्रा के स्वरूप की ओर संकेत किया गया है । इसलिये शुद्धस्वरूप परमात्मा एकमात्र वेदगम्य हैं, यही मेरी सुनिश्चित धारणा है ।। शुभ आचरणों वाली देवि ! तुम्हें यह विदित हो कि अध्यात्मतत्व के चिन्तन से नित्य ज्ञान दीपक की भॉति स्वष्टरूप से प्रकाशित होने लगता है । उस ज्ञान से मनुष्य परमगति को प्राप्त होते हैं । शुभे ! शुद्धस्वरूपे ! ज्ञानदृष्टि से सम्पन्न देवि ! मैंने यह जो गूढ़ एवं यथार्थ ब्रह्राज्ञान का विषय बताया है, इसे तुमने सुना है या नही ? शुभे ! परब्रह्रा परमात्मा का ऐश्वर्य नाना रूपों में दिखायी देता है ।वायु की वहॉ तक पहॅुच नहीं है । सूर्य और अग्नि उस परमपदस्वरूप परमेश्वर को प्रकाशित नहीं कर सकते । परमात्मा से ही यह सम्पूर्ण जगत् परिपूर्ण है और वे ही प्रत्येक प्राणी के हृदयमें आत्मारूप से निवास करते हैं ।। इतना ही परमात्मविज्ञान है । इतना ही अहम् पदार्थ माना गया है । हम दोनों की सत्ता नित्य नहीं है, ऐसी धारणा अज्ञान के कारण होती है ।। भीष्म जी कहते हैं – राजन् ! अपने पति श्वेतकेतु के इस प्रकार यथार्थ उपदेश देनेपर सुवर्चला आनन्दमग्न हो गयी । वह निरन्तर तत्वज्ञाननिष्ठ रहकर तदनुरूप आचरण करने लगी ।। श्वेतकेतु पत्नी को साथ रखकर नित्य नैमित्तिक कर्मों में संलग्न रहते थे । वे सबके हृदय में निवास करनेवाले महात्मा परमात्मा गोविन्द को अपने समस्त कर्म समर्पित करके उन्हीं के ध्यान में तन्मय रहा करते थे । राजन् ! इस प्रकार दीर्घकालतक परमात्मचिन्तन करके उन्होंने परमगति प्राप्त कर ली ।
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