"महाभारत स्त्री पर्व अध्याय 7 श्लोक 12-21": अवतरणों में अंतर
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==सप्तम (7) अध्याय: | ==सप्तम (7) अध्याय: स्त्री पर्व (जलप्रदानिक पर्व )== | ||
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: स्त्री पर्व: सप्तम अध्याय: श्लोक 12-21 का हिन्दी अनुवाद</div> | ||
माननीय भारत ! जिसकी तृष्णा बढ़ी हुई है, उसी को राज्य, सुहृद् और पुत्रों का नाशरुपी यह महान् दु:ख प्राप्त होता है । साधु पुरुष को चाहिये कि वह अपने मन को वश में करके ज्ञान रुपी महान् औषधि प्राप्त करे, जो परम दुर्लभ है । उससे अपने बड़े-से-वड़े दु:खों की चिकित्सा करे ।उस ज्ञान रुपी औषधि से दु:ख रुपी महान् व्याधि का नाश कर डाले । पराक्रम, धन, मित्र और सुहृद् भी उस तरह दु:ख से छुटकारा नहीं दिला सकते, जैसा कि दृढ़तापूर्वक संयम में रहने वाला अपना मन दिला सकता है । भरतनन्दन ! इसलिये सर्वत्र मैत्री भाव रखते हुए शील प्राप्त करना चाहिये । दम, त्याग और अप्रमाद–ये तीन परमात्मा के धाम में ले जाने वाले घोड़े हैं । जो मनुष्य शीलरुपी लगाम को पकड़ कर इन तीनों घोड़ो से जुते हुए मन रुपी रथ पर सवार होता है, वह मृत्यु का भय छोड़ कर ब्रह्मलोक में चला जाता है । भूपाल ! जो सम्पूर्ण प्राणियों को अभयदान देता है, वह भगवान् विष्णु के अविनाशी परमधाम में चला जाता है । अभयदान से मनुष्य जिस फल को पाता है, वह उसे सहस्त्रों यज्ञ और नित्य प्रति उपवास करने से भी नहीं मिल सकता है । भारत ! यह बात निश्चित रुप से कही जा सकती है कि प्राणियों को अपने आत्मा से अधिक प्रिय कोई भी वस्तु नहीं है; इसीलिये मरना किसी भी प्राणी को अच्छा नहीं लगता; अत: विद्वान् पुरुष को सभी प्राणियों पर दया करनी चाहिये । जो मूढ़ नाना प्रकार के मोह में डूबे हुए हैं, जिन्हें बुद्धि के जाल ने बाँध रक्खा है और जिनकी दृष्टि स्थूल है, वे भिन्न-भिन्न योनियों में भटकते रहते हैं । राजन् ! महाप्राज्ञ ! सूक्ष्मदर्शी ज्ञानीपुरुष सनातन ब्रह्म को प्राप्त होते हैं, ऐसा जानकर आप अपनेमरेहुए सगे-सम्बन्धियों का और्ध्वदैहिक संस्कार कीजिये । इसी से आप को उत्तम फल की प्राप्ति होगी । | माननीय भारत ! जिसकी तृष्णा बढ़ी हुई है, उसी को राज्य, सुहृद् और पुत्रों का नाशरुपी यह महान् दु:ख प्राप्त होता है । साधु पुरुष को चाहिये कि वह अपने मन को वश में करके ज्ञान रुपी महान् औषधि प्राप्त करे, जो परम दुर्लभ है । उससे अपने बड़े-से-वड़े दु:खों की चिकित्सा करे ।उस ज्ञान रुपी औषधि से दु:ख रुपी महान् व्याधि का नाश कर डाले । पराक्रम, धन, मित्र और सुहृद् भी उस तरह दु:ख से छुटकारा नहीं दिला सकते, जैसा कि दृढ़तापूर्वक संयम में रहने वाला अपना मन दिला सकता है । भरतनन्दन ! इसलिये सर्वत्र मैत्री भाव रखते हुए शील प्राप्त करना चाहिये । दम, त्याग और अप्रमाद–ये तीन परमात्मा के धाम में ले जाने वाले घोड़े हैं । जो मनुष्य शीलरुपी लगाम को पकड़ कर इन तीनों घोड़ो से जुते हुए मन रुपी रथ पर सवार होता है, वह मृत्यु का भय छोड़ कर ब्रह्मलोक में चला जाता है । भूपाल ! जो सम्पूर्ण प्राणियों को अभयदान देता है, वह भगवान् विष्णु के अविनाशी परमधाम में चला जाता है । अभयदान से मनुष्य जिस फल को पाता है, वह उसे सहस्त्रों यज्ञ और नित्य प्रति उपवास करने से भी नहीं मिल सकता है । भारत ! यह बात निश्चित रुप से कही जा सकती है कि प्राणियों को अपने आत्मा से अधिक प्रिय कोई भी वस्तु नहीं है; इसीलिये मरना किसी भी प्राणी को अच्छा नहीं लगता; अत: विद्वान् पुरुष को सभी प्राणियों पर दया करनी चाहिये । जो मूढ़ नाना प्रकार के मोह में डूबे हुए हैं, जिन्हें बुद्धि के जाल ने बाँध रक्खा है और जिनकी दृष्टि स्थूल है, वे भिन्न-भिन्न योनियों में भटकते रहते हैं । राजन् ! महाप्राज्ञ ! सूक्ष्मदर्शी ज्ञानीपुरुष सनातन ब्रह्म को प्राप्त होते हैं, ऐसा जानकर आप अपनेमरेहुए सगे-सम्बन्धियों का और्ध्वदैहिक संस्कार कीजिये । इसी से आप को उत्तम फल की प्राप्ति होगी । | ||
इस प्रकार श्रीमहाभारत स्त्रीपर्व के अन्तर्गत जलप्रदानिकपर्व में धृतराष्ट्र के शोक का निवारणविषयक सातवाँ अध्याय पूरा | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">इस प्रकार श्रीमहाभारत स्त्रीपर्व के अन्तर्गत जलप्रदानिकपर्व में धृतराष्ट्र के शोक का निवारणविषयक सातवाँ अध्याय पूरा हुआ।</div> | ||
{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत स्त्री पर्व अध्याय 7 श्लोक 1-11|अगला=महाभारत स्त्री पर्व अध्याय 8 श्लोक 1-19}} | |||
{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत स्त्री पर्व अध्याय 7 श्लोक 1-11|अगला=महाभारत स्त्री पर्व अध्याय 8 श्लोक 1- | |||
==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== |
०५:१९, १० अगस्त २०१५ के समय का अवतरण
सप्तम (7) अध्याय: स्त्री पर्व (जलप्रदानिक पर्व )
माननीय भारत ! जिसकी तृष्णा बढ़ी हुई है, उसी को राज्य, सुहृद् और पुत्रों का नाशरुपी यह महान् दु:ख प्राप्त होता है । साधु पुरुष को चाहिये कि वह अपने मन को वश में करके ज्ञान रुपी महान् औषधि प्राप्त करे, जो परम दुर्लभ है । उससे अपने बड़े-से-वड़े दु:खों की चिकित्सा करे ।उस ज्ञान रुपी औषधि से दु:ख रुपी महान् व्याधि का नाश कर डाले । पराक्रम, धन, मित्र और सुहृद् भी उस तरह दु:ख से छुटकारा नहीं दिला सकते, जैसा कि दृढ़तापूर्वक संयम में रहने वाला अपना मन दिला सकता है । भरतनन्दन ! इसलिये सर्वत्र मैत्री भाव रखते हुए शील प्राप्त करना चाहिये । दम, त्याग और अप्रमाद–ये तीन परमात्मा के धाम में ले जाने वाले घोड़े हैं । जो मनुष्य शीलरुपी लगाम को पकड़ कर इन तीनों घोड़ो से जुते हुए मन रुपी रथ पर सवार होता है, वह मृत्यु का भय छोड़ कर ब्रह्मलोक में चला जाता है । भूपाल ! जो सम्पूर्ण प्राणियों को अभयदान देता है, वह भगवान् विष्णु के अविनाशी परमधाम में चला जाता है । अभयदान से मनुष्य जिस फल को पाता है, वह उसे सहस्त्रों यज्ञ और नित्य प्रति उपवास करने से भी नहीं मिल सकता है । भारत ! यह बात निश्चित रुप से कही जा सकती है कि प्राणियों को अपने आत्मा से अधिक प्रिय कोई भी वस्तु नहीं है; इसीलिये मरना किसी भी प्राणी को अच्छा नहीं लगता; अत: विद्वान् पुरुष को सभी प्राणियों पर दया करनी चाहिये । जो मूढ़ नाना प्रकार के मोह में डूबे हुए हैं, जिन्हें बुद्धि के जाल ने बाँध रक्खा है और जिनकी दृष्टि स्थूल है, वे भिन्न-भिन्न योनियों में भटकते रहते हैं । राजन् ! महाप्राज्ञ ! सूक्ष्मदर्शी ज्ञानीपुरुष सनातन ब्रह्म को प्राप्त होते हैं, ऐसा जानकर आप अपनेमरेहुए सगे-सम्बन्धियों का और्ध्वदैहिक संस्कार कीजिये । इसी से आप को उत्तम फल की प्राप्ति होगी ।
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