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|संस्करण=सन्‌ 1976 ईसवी
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|स्रोत=आचार्य विश्वेश्वर: हिंदी वक्रोक्ति जीवित, दिल्ली, 1957; बलदेव उपाध्याय : भारतीय साहित्यशास्त्र, भाग 2, काशी, सं. 2०12; सुशीलकुमार दे: वक्रोक्तिजीवित का संस्करण तथा ग्रंथ की भूमिका, कलकत्ता  
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|उपलब्ध=भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
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|कॉपीराइट सूचना=नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
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उनकी एकमात्र रचना वक्रोक्तिजीवित है जो अधूरी ही उपलब्ध हैं। वक्रोक्ति को वे काव्य को जीवित (जीवन, प्राण) मानते हैं। पूरे ग्रंथ में वक्रोक्ति के स्वरूप तथा प्रकार का बड़ा ही प्रौढ़ तथा पांडित्यपूर्ण विवेचन है। वक्रोक्ति का अर्थ है वदैग्ध्यभंगीभणिति (सर्वसाधारण द्वारा प्रयुक्त वाक्य से विलक्षण कथनप्रकार)
उनकी एकमात्र रचना वक्रोक्तिजीवित है जो अधूरी ही उपलब्ध हैं। वक्रोक्ति को वे काव्य को जीवित (जीवन, प्राण) मानते हैं। पूरे ग्रंथ में वक्रोक्ति के स्वरूप तथा प्रकार का बड़ा ही प्रौढ़ तथा पांडित्यपूर्ण विवेचन है। वक्रोक्ति का अर्थ है वदैग्ध्यभंगीभणिति (सर्वसाधारण द्वारा प्रयुक्त वाक्य से विलक्षण कथनप्रकार)
<blockquote>वक्रोक्तिरेव वैदग्ध्यभंगीभणितिरु च्यते।<ref>वक्रोक्तिजीवित 1।1०</ref></blockquote>
<blockquote>वक्रोक्तिरेव वैदग्ध्यभंगीभणितिरु च्यते।<ref>वक्रोक्तिजीवित 1।10</ref></blockquote>


कविकर्म की कुशलता का नाम है वैदग्ध्य या विदग्धता। भंगी का अर्थ है-विच्छित, चमत्कार या चारु ता। भणिति से तात्पर्य है-कथन प्रकार। इस प्रकार वक्रोक्ति का अभिप्राय है कविकर्म की कुशलता से उत्पन्न होनेवाले चमत्कार के ऊपर आश्रित रहनेवाला कथनप्रकार। कुंतक का सर्वाधिक आग्रह कविकौशल या कविव्यापार पर है अर्थात्‌ इनकी दृष्टि में काव्य कवि के प्रतिभाव्यापार का सद्य:प्रसूत फल हैं।
कविकर्म की कुशलता का नाम है वैदग्ध्य या विदग्धता। भंगी का अर्थ है-विच्छित, चमत्कार या चारु ता। भणिति से तात्पर्य है-कथन प्रकार। इस प्रकार वक्रोक्ति का अभिप्राय है कविकर्म की कुशलता से उत्पन्न होनेवाले चमत्कार के ऊपर आश्रित रहनेवाला कथनप्रकार। कुंतक का सर्वाधिक आग्रह कविकौशल या कविव्यापार पर है अर्थात्‌ इनकी दृष्टि में काव्य कवि के प्रतिभाव्यापार का सद्य:प्रसूत फल हैं।

१३:४०, १८ जून २०१४ के समय का अवतरण

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लेख सूचना
कुंतक
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 3
पृष्ठ संख्या 47-48
भाषा हिन्दी देवनागरी
लेखक आचार्य विश्वेश्वर, बलदेव उपाध्याय, सुशीलकुमार दे
संपादक सुधाकर पांडेय
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1976 ईसवी
स्रोत आचार्य विश्वेश्वर: हिंदी वक्रोक्ति जीवित, दिल्ली, 1957; बलदेव उपाध्याय : भारतीय साहित्यशास्त्र, भाग 2, काशी, सं. 2012; सुशीलकुमार दे: वक्रोक्तिजीवित का संस्करण तथा ग्रंथ की भूमिका, कलकत्ता
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक बलदेव उपाध्याय

कुंतक अलंकारशास्त्र के एक मौलिक विचारक विद्वान्‌। ये अभिधावादी आचार्य थे जिनकी दृष्टि में अभिधा शक्ति ही कवि के अभीष्ट अर्थ के द्योतन के लिए सर्वथा समर्थ होती है। परंतु यह अभिधा संकीर्ण आद्या शब्दवृत्ति नहीं है। अभिधा के व्यापक क्षेत्र के भीतर लक्षण और व्यंजना का भी अंतर्भाव पूर्ण रूप से हो जाता है। वाचक शब्द द्योतक तथा व्यंजक उभय प्रकार के शब्दों का उपलक्षण है। दोनों में समान धर्म अर्थप्रतीतिकारिता है। इसी प्रकार प्रत्येयत्व (ज्ञेयत्व) धर्म के सादृश्य से द्योत्य और व्यंग्य अर्थ भी उपचारदृष्ट्या वाच्य कहे जा सकते हैं। इस प्रकार वे अभिधा की सर्वातिशायिनी सत्ता स्वीकार करने वाले आचार्य थे।

उनकी एकमात्र रचना वक्रोक्तिजीवित है जो अधूरी ही उपलब्ध हैं। वक्रोक्ति को वे काव्य को जीवित (जीवन, प्राण) मानते हैं। पूरे ग्रंथ में वक्रोक्ति के स्वरूप तथा प्रकार का बड़ा ही प्रौढ़ तथा पांडित्यपूर्ण विवेचन है। वक्रोक्ति का अर्थ है वदैग्ध्यभंगीभणिति (सर्वसाधारण द्वारा प्रयुक्त वाक्य से विलक्षण कथनप्रकार)

वक्रोक्तिरेव वैदग्ध्यभंगीभणितिरु च्यते।[१]

कविकर्म की कुशलता का नाम है वैदग्ध्य या विदग्धता। भंगी का अर्थ है-विच्छित, चमत्कार या चारु ता। भणिति से तात्पर्य है-कथन प्रकार। इस प्रकार वक्रोक्ति का अभिप्राय है कविकर्म की कुशलता से उत्पन्न होनेवाले चमत्कार के ऊपर आश्रित रहनेवाला कथनप्रकार। कुंतक का सर्वाधिक आग्रह कविकौशल या कविव्यापार पर है अर्थात्‌ इनकी दृष्टि में काव्य कवि के प्रतिभाव्यापार का सद्य:प्रसूत फल हैं।

इनका काल निश्चित रूप से ज्ञात नहीं हैं। किंतु विभिन्न अलंकार ग्रंथों के अंत:साक्ष्य के आधार पर समझा जाता है। कि ये दसवीं शती ई. के आसपास हुए होंगे।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. वक्रोक्तिजीवित 1।10