"गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 41": अवतरणों में अंतर

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केवल हाथ-पर-हाथ धर के बैठे रहने से या जड़तावश बुराई प्रतीकार करने की अनिच्छा या अक्षमता से यह विधान नष्ट नहीं होगा; वास्तव में संघर्ष करने की राजसिक वृत्ति से उतनी हानि नहीं होती जितनी जड़ता और तमस् से होती है, क्योंकि राजसिक संघर्ष जितना नाश करता है उससे अधिक सर्जन करता है। इसलिये वैयक्तिक कर्म की मीमांसा का जहां तक संबंध है, व्‍यक्ति संघर्ष एवं संग्राम से तथा उसके फलस्वरूप  होने वाले नाश से स्थूल और भौतिक रूप  में बचने के लिये अपने नैतिक भाव की सहायता तो कर सकता है, पर इससे प्राणियों का संहारक ज्यों-का-त्यों बना रहता है। बाकी लिये मानव इतिहास साक्षी है कि संहार-तत्व जगत् में निर्मम प्राण शक्ति के साथ लगातार अस्तित्व रखता आया है। यह हमारे लिये स्वाभाविक ही है कि हम इसकी उग्रता को ढांकने और दूसरे पहलुओं पर जोर देने का प्रयास करते हैं। युद्ध और विनाश ही सब कुछ नहीं है, विच्छेद और परस्पर-संघर्ष की संहारक शक्ति की तरह परस्पर-संघ और साहाय्य ही संरक्षक शक्ति भी है। प्रेम की शक्ति अपनी धाक जमाने वाली अहंकारभरी शक्ति से कम नहीं है। दूसरों के लिये अपनी बलि चढ़ाने के आवेग की तरह अपने लिये दूसरों की बलि चढ़ाने का आवेग भी होता है। यदि हम यह देखें कि इन्होंने किस तरह काम किया है तो इनके विरोधी तत्वों की ताकत पर मुलम्मा चढ़ाने या उनकी उपेक्षा करने के लिये ही नहीं, बल्कि साथ-ही-साथ रक्षण और आक्रमण के लिये भी हुआ है। इस जीवन संग्राम में जो कोई हमारे ऊपर आक्रमण करता या हमारा प्रतिरोध करता है उसके विरूद्ध अपने-आपको बलवान् बनाने में भी इसका उपयोग हुआ है।  
केवल हाथ-पर-हाथ धर के बैठे रहने से या जड़तावश बुराई प्रतीकार करने की अनिच्छा या अक्षमता से यह विधान नष्ट नहीं होगा; वास्तव में संघर्ष करने की राजसिक वृत्ति से उतनी हानि नहीं होती जितनी जड़ता और तमस् से होती है, क्योंकि राजसिक संघर्ष जितना नाश करता है उससे अधिक सर्जन करता है। इसलिये वैयक्तिक कर्म की मीमांसा का जहां तक संबंध है, व्‍यक्ति संघर्ष एवं संग्राम से तथा उसके फलस्वरूप  होने वाले नाश से स्थूल और भौतिक रूप  में बचने के लिये अपने नैतिक भाव की सहायता तो कर सकता है, पर इससे प्राणियों का संहारक ज्यों-का-त्यों बना रहता है। बाकी लिये मानव इतिहास साक्षी है कि संहार-तत्व जगत् में निर्मम प्राण शक्ति के साथ लगातार अस्तित्व रखता आया है। यह हमारे लिये स्वाभाविक ही है कि हम इसकी उग्रता को ढांकने और दूसरे पहलुओं पर जोर देने का प्रयास करते हैं। युद्ध और विनाश ही सब कुछ नहीं है, विच्छेद और परस्पर-संघर्ष की संहारक शक्ति की तरह परस्पर-संघ और साहाय्य ही संरक्षक शक्ति भी है। प्रेम की शक्ति अपनी धाक जमाने वाली अहंकारभरी शक्ति से कम नहीं है। दूसरों के लिये अपनी बलि चढ़ाने के आवेग की तरह अपने लिये दूसरों की बलि चढ़ाने का आवेग भी होता है। यदि हम यह देखें कि इन्होंने किस तरह काम किया है तो इनके विरोधी तत्वों की ताकत पर मुलम्मा चढ़ाने या उनकी उपेक्षा करने के लिये ही नहीं, बल्कि साथ-ही-साथ रक्षण और आक्रमण के लिये भी हुआ है। इस जीवन संग्राम में जो कोई हमारे ऊपर आक्रमण करता या हमारा प्रतिरोध करता है उसके विरूद्ध अपने-आपको बलवान् बनाने में भी इसका उपयोग हुआ है।  


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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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०८:४८, २२ सितम्बर २०१५ के समय का अवतरण

गीता-प्रबंध
5.कुरुक्षेत्र

बुराई अकेले नहीं मरती, उसके साथ वे सब चीजें भी विनाशक को प्राप्त होती हैं जो उससे पलती हैं; चाहे हम हिंसा के सनसनीदार कर्म की पीड़ा से बच जायें, पर इससे नाश का परिणाम कुछ कम नहीं होता। फिर, जब-जब हम आत्मबल का प्रयोग करते हैं तब-तब हम अपने शत्रु के विरूद्ध एक ऐसी प्रचंड कर्मशक्ति खड़ी कर देते हैं, जिसके बाद की क्रिया को अपने बस में रखना हमारे सामर्थ्‍य के बाहर होता है। विश्वामित्र के क्षात्र बल के मुकाबले वसिष्ठ आत्मबल का प्रयोग करते हैं और परिणाम यह होता है कि हूण, शक और पल्लव सेनाएं आक्रामक पर घबराकर टूट पड़ती हैं। आक्रमण और हिंसा की अवस्था में आध्यात्मिक पुरुष का शांत और निष्क्रिय रहना संसार की प्रचंड शक्तियों को बदला लेने के लिये जगा देता है। जो अशुभ और दुष्टता के प्रतिनिधि हैं उन्हें यदि रौंदने और कुचलने के लिये छोड़ दिया जाये तो वे अपने ऊपर इतनी बड़ी तबाही बुला लेंगे जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते। अतः उन्हें रोकना और इसके लिये बल प्रयोग करना भी दया का काम होगा। हमारे अपने हाथ पाक और साफ रहें, हमारी आत्मा में कोई दाग न लगे, इतने-से ही संसार से संघर्ष और विनाश का विधान मिट नहीं जाता; इसकी जो जड़ है उसे पहले मानव जाति में से उखाड़ जाना चाहिये।
केवल हाथ-पर-हाथ धर के बैठे रहने से या जड़तावश बुराई प्रतीकार करने की अनिच्छा या अक्षमता से यह विधान नष्ट नहीं होगा; वास्तव में संघर्ष करने की राजसिक वृत्ति से उतनी हानि नहीं होती जितनी जड़ता और तमस् से होती है, क्योंकि राजसिक संघर्ष जितना नाश करता है उससे अधिक सर्जन करता है। इसलिये वैयक्तिक कर्म की मीमांसा का जहां तक संबंध है, व्‍यक्ति संघर्ष एवं संग्राम से तथा उसके फलस्वरूप होने वाले नाश से स्थूल और भौतिक रूप में बचने के लिये अपने नैतिक भाव की सहायता तो कर सकता है, पर इससे प्राणियों का संहारक ज्यों-का-त्यों बना रहता है। बाकी लिये मानव इतिहास साक्षी है कि संहार-तत्व जगत् में निर्मम प्राण शक्ति के साथ लगातार अस्तित्व रखता आया है। यह हमारे लिये स्वाभाविक ही है कि हम इसकी उग्रता को ढांकने और दूसरे पहलुओं पर जोर देने का प्रयास करते हैं। युद्ध और विनाश ही सब कुछ नहीं है, विच्छेद और परस्पर-संघर्ष की संहारक शक्ति की तरह परस्पर-संघ और साहाय्य ही संरक्षक शक्ति भी है। प्रेम की शक्ति अपनी धाक जमाने वाली अहंकारभरी शक्ति से कम नहीं है। दूसरों के लिये अपनी बलि चढ़ाने के आवेग की तरह अपने लिये दूसरों की बलि चढ़ाने का आवेग भी होता है। यदि हम यह देखें कि इन्होंने किस तरह काम किया है तो इनके विरोधी तत्वों की ताकत पर मुलम्मा चढ़ाने या उनकी उपेक्षा करने के लिये ही नहीं, बल्कि साथ-ही-साथ रक्षण और आक्रमण के लिये भी हुआ है। इस जीवन संग्राम में जो कोई हमारे ऊपर आक्रमण करता या हमारा प्रतिरोध करता है उसके विरूद्ध अपने-आपको बलवान् बनाने में भी इसका उपयोग हुआ है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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