"गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 47": अवतरणों में अंतर

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इसमें स्वीकृति है और विश्वास भी। स्वीकृति इस बात की कि संसार में सर्वत्र अनवन है और विश्वास इस बात का कि कोई भागवत तत्व - भी है विश्वपुरूष अथवा प्रकृति जो भी कहिये - जिसके बल से हम इन परस्पर - विरोधों को पार कर सकते है, जीत सकते हैं या समन्वित कर सकते हैं, कदाचित् एक साथ तीनों ही बातें कर सकते हैं , इनको जीतकर और इनको पार करके हम इन्हें समन्वित कर सकते हैं। तब, मनुष्य जीवन की वास्तविकता का जहां तक संबंध है , हमें उसके संघर्ष और युद्ध के पहलू को मानना होगा जिसकी भीषणता बढते - बढते कुरूक्षेत्र के जैसे महासंकट तक जा पहुंचती हैं। गीता जैसा कि हम देख आये हैं, परिवर्तन और संकट के एक ऐसे काल को अपना आधार बनाती है जो मानव जाति के इतिहास में पुनः पुनः आया करता है और इस काल में बड़ी- बड़ीशक्तियां किसी भीषण बौद्धिक, सामाजिक , नैतिक, धार्मिक, राजनीतिक ध्वंस और पुर्निर्माण के लिये एक - दूसरे से टकराती है और मनुष्य की वास्तविक मनोवैज्ञानिक और सामाजिक अवस्था में साधारणतया ये शक्तियां संघर्ष , युद्ध और क्रांति के भीषण भौतिक आदोंलनों में अपनी पराकष्ठा को पहुंचती हैं गीता का प्रारंभ ही इस मान्यता से होता है कि ऐसे भीषण क्रांतिकारक प्रसंग प्रकृति में आवश्यक होते हैं केवल उनका नैतिक पहलू ही नहीं अर्थात् धर्म और अधर्म में, शुभ के स्थापित होते हुए विधान और उसकी प्रगति को रोकने वाली शक्त्यिों जो युद्ध होता है वही नहीं, बल्कि उनका भोतिक अंग भी अर्थात् शुभाशुभ शक्त्यिों के प्रतिनिधिस्वरूप जो मनुष्य हैं उनके बीच सशस्त्र संग्राम अथवा अन्य किसी प्रकार का प्रचंड शारीरिक युद्ध भी आवश्यक होता है । यहां हमें स्मरण रखना होगा की गीता की रचना ऐसे समय में हुई थी जब युद्ध मानव गतिविधि का आज से भी अधिक आवश्यक अंग था और उसके बहिष्कार का विचार तक आकाश - कुसुम जैसा होता है। मनुष्यों में विश्वव्यापी शांति और सद्भाव को स्थापित करने का उपदेश - क्योकि विश्वव्यापी शांति और और पूर्ण सद्भाव के बिना सच्ची और स्थायी शांति नहीं हो सकती - हमारी उन्नति के ऐतिहासिक काल में एक क्षण के लिये भी मानव जीवन को अधिकृत नहीं कर सका है , क्योकिं जाति की नैतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक अवस्था इसके लिये तैयार नहीं थी और विकासात्मक प्रकृति की अभी तक जो हालत थी उसके कारण वह इस बात की इजाजत नहीं दे सकती थी कि मानव - जाति ऐसी उच्चतर स्थिति के लिये एकाएक तैयार कर ली जाये।  
इसमें स्वीकृति है और विश्वास भी। स्वीकृति इस बात की कि संसार में सर्वत्र अनवन है और विश्वास इस बात का कि कोई भागवत तत्व - भी है विश्वपुरूष अथवा प्रकृति जो भी कहिये - जिसके बल से हम इन परस्पर - विरोधों को पार कर सकते है, जीत सकते हैं या समन्वित कर सकते हैं, कदाचित् एक साथ तीनों ही बातें कर सकते हैं , इनको जीतकर और इनको पार करके हम इन्हें समन्वित कर सकते हैं। तब, मनुष्य जीवन की वास्तविकता का जहां तक संबंध है , हमें उसके संघर्ष और युद्ध के पहलू को मानना होगा जिसकी भीषणता बढते - बढते कुरूक्षेत्र के जैसे महासंकट तक जा पहुंचती हैं। गीता जैसा कि हम देख आये हैं, परिवर्तन और संकट के एक ऐसे काल को अपना आधार बनाती है जो मानव जाति के इतिहास में पुनः पुनः आया करता है और इस काल में बड़ी- बड़ीशक्तियां किसी भीषण बौद्धिक, सामाजिक , नैतिक, धार्मिक, राजनीतिक ध्वंस और पुर्निर्माण के लिये एक - दूसरे से टकराती है और मनुष्य की वास्तविक मनोवैज्ञानिक और सामाजिक अवस्था में साधारणतया ये शक्तियां संघर्ष , युद्ध और क्रांति के भीषण भौतिक आदोंलनों में अपनी पराकष्ठा को पहुंचती हैं गीता का प्रारंभ ही इस मान्यता से होता है कि ऐसे भीषण क्रांतिकारक प्रसंग प्रकृति में आवश्यक होते हैं केवल उनका नैतिक पहलू ही नहीं अर्थात् धर्म और अधर्म में, शुभ के स्थापित होते हुए विधान और उसकी प्रगति को रोकने वाली शक्त्यिों जो युद्ध होता है वही नहीं, बल्कि उनका भोतिक अंग भी अर्थात् शुभाशुभ शक्त्यिों के प्रतिनिधिस्वरूप जो मनुष्य हैं उनके बीच सशस्त्र संग्राम अथवा अन्य किसी प्रकार का प्रचंड शारीरिक युद्ध भी आवश्यक होता है । यहां हमें स्मरण रखना होगा की गीता की रचना ऐसे समय में हुई थी जब युद्ध मानव गतिविधि का आज से भी अधिक आवश्यक अंग था और उसके बहिष्कार का विचार तक आकाश - कुसुम जैसा होता है। मनुष्यों में विश्वव्यापी शांति और सद्भाव को स्थापित करने का उपदेश - क्योकि विश्वव्यापी शांति और और पूर्ण सद्भाव के बिना सच्ची और स्थायी शांति नहीं हो सकती - हमारी उन्नति के ऐतिहासिक काल में एक क्षण के लिये भी मानव जीवन को अधिकृत नहीं कर सका है , क्योकिं जाति की नैतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक अवस्था इसके लिये तैयार नहीं थी और विकासात्मक प्रकृति की अभी तक जो हालत थी उसके कारण वह इस बात की इजाजत नहीं दे सकती थी कि मानव - जाति ऐसी उच्चतर स्थिति के लिये एकाएक तैयार कर ली जाये।  


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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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०८:५७, २२ सितम्बर २०१५ के समय का अवतरण

गीता-प्रबंध
6.मनुष्य और जीवन-संग्राम

इसमें स्वीकृति है और विश्वास भी। स्वीकृति इस बात की कि संसार में सर्वत्र अनवन है और विश्वास इस बात का कि कोई भागवत तत्व - भी है विश्वपुरूष अथवा प्रकृति जो भी कहिये - जिसके बल से हम इन परस्पर - विरोधों को पार कर सकते है, जीत सकते हैं या समन्वित कर सकते हैं, कदाचित् एक साथ तीनों ही बातें कर सकते हैं , इनको जीतकर और इनको पार करके हम इन्हें समन्वित कर सकते हैं। तब, मनुष्य जीवन की वास्तविकता का जहां तक संबंध है , हमें उसके संघर्ष और युद्ध के पहलू को मानना होगा जिसकी भीषणता बढते - बढते कुरूक्षेत्र के जैसे महासंकट तक जा पहुंचती हैं। गीता जैसा कि हम देख आये हैं, परिवर्तन और संकट के एक ऐसे काल को अपना आधार बनाती है जो मानव जाति के इतिहास में पुनः पुनः आया करता है और इस काल में बड़ी- बड़ीशक्तियां किसी भीषण बौद्धिक, सामाजिक , नैतिक, धार्मिक, राजनीतिक ध्वंस और पुर्निर्माण के लिये एक - दूसरे से टकराती है और मनुष्य की वास्तविक मनोवैज्ञानिक और सामाजिक अवस्था में साधारणतया ये शक्तियां संघर्ष , युद्ध और क्रांति के भीषण भौतिक आदोंलनों में अपनी पराकष्ठा को पहुंचती हैं गीता का प्रारंभ ही इस मान्यता से होता है कि ऐसे भीषण क्रांतिकारक प्रसंग प्रकृति में आवश्यक होते हैं केवल उनका नैतिक पहलू ही नहीं अर्थात् धर्म और अधर्म में, शुभ के स्थापित होते हुए विधान और उसकी प्रगति को रोकने वाली शक्त्यिों जो युद्ध होता है वही नहीं, बल्कि उनका भोतिक अंग भी अर्थात् शुभाशुभ शक्त्यिों के प्रतिनिधिस्वरूप जो मनुष्य हैं उनके बीच सशस्त्र संग्राम अथवा अन्य किसी प्रकार का प्रचंड शारीरिक युद्ध भी आवश्यक होता है । यहां हमें स्मरण रखना होगा की गीता की रचना ऐसे समय में हुई थी जब युद्ध मानव गतिविधि का आज से भी अधिक आवश्यक अंग था और उसके बहिष्कार का विचार तक आकाश - कुसुम जैसा होता है। मनुष्यों में विश्वव्यापी शांति और सद्भाव को स्थापित करने का उपदेश - क्योकि विश्वव्यापी शांति और और पूर्ण सद्भाव के बिना सच्ची और स्थायी शांति नहीं हो सकती - हमारी उन्नति के ऐतिहासिक काल में एक क्षण के लिये भी मानव जीवन को अधिकृत नहीं कर सका है , क्योकिं जाति की नैतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक अवस्था इसके लिये तैयार नहीं थी और विकासात्मक प्रकृति की अभी तक जो हालत थी उसके कारण वह इस बात की इजाजत नहीं दे सकती थी कि मानव - जाति ऐसी उच्चतर स्थिति के लिये एकाएक तैयार कर ली जाये।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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