"गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 49": अवतरणों में अंतर
[अनिरीक्षित अवतरण] | [अनिरीक्षित अवतरण] |
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) ('<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">गीता-प्रबंध</div> <div style="text-align:center; di...' के साथ नया पन्ना बनाया) |
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) छो (गीता प्रबंध -अरविन्द भाग-49 का नाम बदलकर गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 49 कर दिया गया है: Text replace - "गीता प्...) |
||
(इसी सदस्य द्वारा किए गए बीच के २ अवतरण नहीं दर्शाए गए) | |||
पंक्ति ३: | पंक्ति ३: | ||
यद्यपि हमारे लिये गीता के सर्वसामान्य और व्यापक सिद्धांत ही सबसे अधिक महत्व रखते हैं तथापि ये सिद्धांत जिस विशिष्ट भारतीय संस्कृति और समाज - व्यवस्था के समय में प्रादुर्भूत हुए और इस कारण इन सिद्धांतों पर उस संस्कृति और व्यवस्था का जो रंग चढा है और जिस और इनका रूख है उनका कोई विचार न करके यूं ही छोड़ देना ठीक न होगा। उस समाज व्यव्स्था की धारणा आधुनिक समाज व्यवस्था धारणा से भिन्न थी। आधुनिकों की बुद्धि में एक ही मनुष्य विचारक , योद्धा , कृषक , व्यवसायी और सेवक सब कुछ है और आजकल की सामाजिक व्यवस्था का रूख इस ओर है कि इन सब कर्मो को मिला - जुला दिया जाये और प्रत्येक व्यक्ति से समाज के बौद्धिक ,सामजिक और आर्थिक जीवन और समस्त के लिये उसका अपना हिस्सा मांगा जाये और इस बात में उसकी अपनी प्रकृति और उसके स्वभाव की मांग पर कोई ध्यान न दिया जाये । प्राचीन भारतीय संस्कृति में व्यक्तिगत सहज गुण, कर्म, स्वभाव का बहुत अधिक ध्यान रखा जाता था और इसी गुण - कर्म - स्वभाव से व्यक्तिमात्र का विशेष धर्म, कर्म और समाज में उसका स्थान नियत करने का प्रयत्न किया जाता था।<br /> | यद्यपि हमारे लिये गीता के सर्वसामान्य और व्यापक सिद्धांत ही सबसे अधिक महत्व रखते हैं तथापि ये सिद्धांत जिस विशिष्ट भारतीय संस्कृति और समाज - व्यवस्था के समय में प्रादुर्भूत हुए और इस कारण इन सिद्धांतों पर उस संस्कृति और व्यवस्था का जो रंग चढा है और जिस और इनका रूख है उनका कोई विचार न करके यूं ही छोड़ देना ठीक न होगा। उस समाज व्यव्स्था की धारणा आधुनिक समाज व्यवस्था धारणा से भिन्न थी। आधुनिकों की बुद्धि में एक ही मनुष्य विचारक , योद्धा , कृषक , व्यवसायी और सेवक सब कुछ है और आजकल की सामाजिक व्यवस्था का रूख इस ओर है कि इन सब कर्मो को मिला - जुला दिया जाये और प्रत्येक व्यक्ति से समाज के बौद्धिक ,सामजिक और आर्थिक जीवन और समस्त के लिये उसका अपना हिस्सा मांगा जाये और इस बात में उसकी अपनी प्रकृति और उसके स्वभाव की मांग पर कोई ध्यान न दिया जाये । प्राचीन भारतीय संस्कृति में व्यक्तिगत सहज गुण, कर्म, स्वभाव का बहुत अधिक ध्यान रखा जाता था और इसी गुण - कर्म - स्वभाव से व्यक्तिमात्र का विशेष धर्म, कर्म और समाज में उसका स्थान नियत करने का प्रयत्न किया जाता था।<br /> | ||
उस काल में मनुष्य को मूलतः एक सामाजिक प्राणी नहीं समझा जाता था, न उसकी सामाजिक स्थिति की पूर्ण संपन्नता ही सर्वोच्च आदर्श मानी जाती थी, बल्कि यह मान्यता थी कि मनुष्य एक आध्यात्मिक जीव है जो क्रमशः गठित और विकसित हो रहा है और उसका सामाजिक जीवन, उसका विशेष धर्म , उसके स्वभाव की क्रिया और उसके कर्म का उपयोग ,ये सब उसके आध्यात्मिक गठन के साधन और अवस्था मात्र हैं। चितंन और ज्ञान , युद्ध और राज्य - प्रबंध, शिल्प, कृषि और वाणिज्य , मजदूरी और सेवा, ये सब समाज के विधिपूर्वक बंटे हुए कर्म थे, जो सहज जीव से जिस कर्म के योग्य हेाते उन्हीं को वह काम सौंपा जाता था और वही कर्म उनका वह उचित साधन होता था जिसके द्वारा वे व्यक्तिशः अपनी आध्यात्मिक उन्नति और आत्मसिद्धि की ओर आगे बढ सकते थे। आधुनिक की जो यह भावना है कि अखिल मानव - कर्म के सभी मुख्य - मुख्य विभागों मे सब मुनष्यों को ही समान रूप से योगदान करना चाहिये , इस भावना के अपने कुछ लाभ है, और जहां भारतीय वर्णव्यवस्था का अंत में यह परिणम हुआ कि व्यक्ति के अनगिनत विभाजन हो गये, उसमें अतिविशेषीकरण की भरमार हो गयी तथा उसका जीवन संकुचित और कृत्रिम बंधनों से बंध गया, वहां आधुनिक व्यवस्था समाज के जीवन को अधिक संघटित, एकत्रित और पूर्ण बनाने में तथा संपूर्ण मानव - सत्ता का सर्वागीण विकास करने में सहायता देती है । परंतु आधिुनिक व्यवस्था के भी अपने दोष हैं और इसके कतिपय व्यावहारिक प्रयोगों में इस व्यवस्था का बहुत अधिक कठोरता पूर्वक उपयोग किये जाने के कारण इसका परिणाम बेढंगा और अनर्थकारी हुआ। आधुनिक युद्ध का स्वरूप देखने से ही यह बात स्पष्ट हो जायेगी। | |||
{{लेख क्रम |पिछला=गीता प्रबंध -अरविन्द | {{लेख क्रम |पिछला=गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 48|अगला=गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 50}} | ||
==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ||
<references/> | <references/> |
०८:५७, २२ सितम्बर २०१५ के समय का अवतरण
यद्यपि हमारे लिये गीता के सर्वसामान्य और व्यापक सिद्धांत ही सबसे अधिक महत्व रखते हैं तथापि ये सिद्धांत जिस विशिष्ट भारतीय संस्कृति और समाज - व्यवस्था के समय में प्रादुर्भूत हुए और इस कारण इन सिद्धांतों पर उस संस्कृति और व्यवस्था का जो रंग चढा है और जिस और इनका रूख है उनका कोई विचार न करके यूं ही छोड़ देना ठीक न होगा। उस समाज व्यव्स्था की धारणा आधुनिक समाज व्यवस्था धारणा से भिन्न थी। आधुनिकों की बुद्धि में एक ही मनुष्य विचारक , योद्धा , कृषक , व्यवसायी और सेवक सब कुछ है और आजकल की सामाजिक व्यवस्था का रूख इस ओर है कि इन सब कर्मो को मिला - जुला दिया जाये और प्रत्येक व्यक्ति से समाज के बौद्धिक ,सामजिक और आर्थिक जीवन और समस्त के लिये उसका अपना हिस्सा मांगा जाये और इस बात में उसकी अपनी प्रकृति और उसके स्वभाव की मांग पर कोई ध्यान न दिया जाये । प्राचीन भारतीय संस्कृति में व्यक्तिगत सहज गुण, कर्म, स्वभाव का बहुत अधिक ध्यान रखा जाता था और इसी गुण - कर्म - स्वभाव से व्यक्तिमात्र का विशेष धर्म, कर्म और समाज में उसका स्थान नियत करने का प्रयत्न किया जाता था।
उस काल में मनुष्य को मूलतः एक सामाजिक प्राणी नहीं समझा जाता था, न उसकी सामाजिक स्थिति की पूर्ण संपन्नता ही सर्वोच्च आदर्श मानी जाती थी, बल्कि यह मान्यता थी कि मनुष्य एक आध्यात्मिक जीव है जो क्रमशः गठित और विकसित हो रहा है और उसका सामाजिक जीवन, उसका विशेष धर्म , उसके स्वभाव की क्रिया और उसके कर्म का उपयोग ,ये सब उसके आध्यात्मिक गठन के साधन और अवस्था मात्र हैं। चितंन और ज्ञान , युद्ध और राज्य - प्रबंध, शिल्प, कृषि और वाणिज्य , मजदूरी और सेवा, ये सब समाज के विधिपूर्वक बंटे हुए कर्म थे, जो सहज जीव से जिस कर्म के योग्य हेाते उन्हीं को वह काम सौंपा जाता था और वही कर्म उनका वह उचित साधन होता था जिसके द्वारा वे व्यक्तिशः अपनी आध्यात्मिक उन्नति और आत्मसिद्धि की ओर आगे बढ सकते थे। आधुनिक की जो यह भावना है कि अखिल मानव - कर्म के सभी मुख्य - मुख्य विभागों मे सब मुनष्यों को ही समान रूप से योगदान करना चाहिये , इस भावना के अपने कुछ लाभ है, और जहां भारतीय वर्णव्यवस्था का अंत में यह परिणम हुआ कि व्यक्ति के अनगिनत विभाजन हो गये, उसमें अतिविशेषीकरण की भरमार हो गयी तथा उसका जीवन संकुचित और कृत्रिम बंधनों से बंध गया, वहां आधुनिक व्यवस्था समाज के जीवन को अधिक संघटित, एकत्रित और पूर्ण बनाने में तथा संपूर्ण मानव - सत्ता का सर्वागीण विकास करने में सहायता देती है । परंतु आधिुनिक व्यवस्था के भी अपने दोष हैं और इसके कतिपय व्यावहारिक प्रयोगों में इस व्यवस्था का बहुत अधिक कठोरता पूर्वक उपयोग किये जाने के कारण इसका परिणाम बेढंगा और अनर्थकारी हुआ। आधुनिक युद्ध का स्वरूप देखने से ही यह बात स्पष्ट हो जायेगी।
« पीछे | आगे » |